Sunday, 26 January 2014

क़ुदरत और जीवन

सूखे पेड़ो पर फिर से
नए पत्ते आने लगे हैं
मौसम ने भी ली है करवट
फूल भी खिलखिलाने लगे हैं
देख खिलते फूलों को
भौंरे भी गुनगुनाने लगे हैं
चिड़ियों की कलरव से
मन -मयूर नाचने लगे हैं
गुलाबी सर्दी की धूप में
मानो सब नहाने लगे हैं
देख इन्हें ये हमें
कुछ याद दिलाने लगे हैं
क्या प्रकृति दिलाता नहीं
हमें यह एहसास ?
ऐसा ही है जीवन
बना लो समय रहते
इसको  ख़ास
क्या पता
कब झड जाये पत्ते
कब खिल जाए फूल
बस जी लो जीवन
सब कुछ भूल ...........

Wednesday, 22 January 2014

हालात

नजदीकियों से भी कभी
बढ़ जाती है दूरियाँ
और दूरियों से नजदीकियाँ.......
क्या पता कब किस
इन्सान की होती है
क्या मजबूरियाँ?
कभी बन जाते हैं
ऐसे हालात
नहीं मिलते कभी ,ज़ज़्बात
साथ रहकर भी होती हैं
साथ हमारे, हमारी तन्हाइयां..........
उम्र गुज़ार देते हैं
दूरियों के साथ
कुछ मजबूरियों के साथ
और वक़्त लेता रहता है
यूँ ही अंगराईयाँ.........
कर समझौता
मानते हैं उसकी हर चुनौतियाँ
और करते हैं सब
वक़्त के साथ  अठखेलियाँ........


Wednesday, 15 January 2014

बहाव

रोको नहीं विचारो को
बाँधो नहीं बहावो को
      क्या पता
रुके पानी सी कभी
थम जाये ज़िन्दगी
बिना नए एहसास के
बर्फ सी ठंडी
बन जाये ज़िन्दगी.......
कभी कोई विचार
बन एक पत्थर
शांत ज़िन्दगी में
हलचल मचा जाता है
कभी किसी रिश्ते की गर्मी से
पिघल जाती है ज़िन्दगी .........
     जरूरी नहीं
हर ठहराव, पड़ाव हो
हर पड़ाव में उठाव हो
गिरकर उठने , उठकर गिरने
के सफ़र का नाम, है ज़िन्दगी
ठहरे नहीं बहते पानी का
नाम ही तो है ज़िन्दगी.........


तुम्हारी कविता

मैं एक शब्द बन
हर पन्नों में
बिखरना चाहती हूँ
तुम्हारी अनोखी रचना
बनना चाहती हूँ
      होंगे जहाँ
एहसास मेरे ,भाषा तुम्हारी
जिज्ञासा मेरी , शब्द तुम्हारे
अन्तर्द्वंद मेरा ,उत्तर तुम्हारे
लड़कपन मेरा ,मजबूती तुम्हारी
कल्पना मेरी , पंख तुम्हारे
बन तुम्हारी कविता
मैं "शब्द" हर जगह पहचान
अपनी छोड़ना चाहती हूँ
 एक सुंदर सी रचना
रचना चाहती हूँ
उसी में रस- बस जाना चाहती हूँ
मैं एक शब्द बन
हर पन्नों में बिखरना चाहती हूँ ........
हर पन्नों में बिखरना चाहती हूँ ..........

आस

एक उम्मीद की प्यास
लिए बैठे हैं
हर बात में
औरो की आस
लिए बैठे हैं
अपने ज़ज्बात कर लिए हैं ज़ज्ब
हर समझौते से इकरार कर बैठे हैं
खुले आसमान में उड़ना
पसंद किसे नहीं ?
पर अपने पिंजरे से ही
प्यार कर बैठे हैं .....
पिंजरे में रहकर भी
भूख बढ़ी है ,विचारों की
प्यास लगी है भावों की
बिखरे हैं ख्वाहिशों के दाने
उन्हें चुनने को बस
तैयार बैठे हैं .........

पुनः

कहीं कुछ दब गया था
दुनियादारी की सांठ- गाँठ में
एक धागा कहीं उलझ गया था
गाँठ सी लग गयी थी
सारी भावनाए उलझ गयी थी
                   अब
पुनः गाँठ खुल गयी है
भावनाए मचल गयी हैं
बहने लगी है शब्दों की धार
जिसे दिया था
कहीं मैंने मार........
अभी लेखनी चल पड़ी है
सृजन ही सृजन है
ज़िन्दगी दे दे कुछ पल मुझे
अपनी लेखनी के साथ उधार .......