Monday, 18 November 2013

परछाईं

हैं हमारे सुख -दुःख
हमारी परछाइयों की तरह
हमेशा साथ हमारे चलते
कभी बढ़ते-कभी घटते
सूरज की ओट लिए
कभी हमसे आगे
कभी पीछे रहते
जैसे हो , आँख-मिचौली खेलते .......
कभी जैसे खुद की परछाईं डराती है
कभी बन अजीबोगरीब हंसाती है
वैसे ही हम डर जाते दुःख में
और कभी हँसते सुख में..............
हो नहीं सकता दूर जैसे
हमसे हमारा साया
वैसे ही है ये
सुख -दुःख की माया
बढ़ते- घटते चाँद की तरह
कभी बढ़ेंगे, कभी घटेंगे
पर हमेशा साथ रहेंगे............
बस नहीं हमारा
हमारी बनती बिगरती परछाइयों पर
सुख दुःख की बहती पुरवाइयो पर ...............

2 comments:

  1. bilkul sahi hamesha sath chalenge hamare sukh dukh. I have bcome big fan of ur poem.keep writing

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  2. excellent again........well done.........keep writing

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