Friday, 22 November 2013

उडान

पंखहीन मैं उड़ रही थी
कल्पना की उडान
शब्दहीन मैं उड़ रही थी
कल्पना की उडान
आह, कितना सुन्दर अनुभव था
सिर्फ ,मैं थी
और मेरा दर्शन था ,
बस, अपने भावों का प्रदर्शन था .....
कल्पना की कूची से
शब्दों का रंग बिखेरती
जो न जाना किसी ने
उन भावों को कुरेदती,.....
न कोई संकोच ,
न कोई दुविधा,
अपने शब्दों से लिपटती.........
दबे -दबाए, गड़े- गड़ाए
कई भावों को समेटती
न किसी का भय
न किसी की चिंता
भारहीन मैं उड़ रही थी
कल्पना की उडान
शब्दहीन मैं उड़ रही थी
कल्पना की उडान
   सोचती हूँ
न होती ये कल्पना
तो जीवन कितना नीरस होता
खाली दिल , खाली मन
कितना बेरंग होता !
कहाँ जाकर इंसा अपने
खवाबों का पंख फ़ैलाता?
कहाँ अपने इन्द्रधनुषी
सपनों को सजाता?
बहुत सुख है उड़ने में
दूर -दूर तक उन्मुक्त उडान
हाँ, पंखहीन मैं उड़ रही थी
कल्पना की उडान
असीम नभ ,असीम जग
बस तान-वितान ............
                

3 comments:

  1. bahut hi sunder kalpana aur vichar

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  2. very nice ......kaha bhi gaya hai kalpana ke bina manushya pashu ke saman hai.......

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