पूछा एक दिन मैंने चाँद से
कहते हैं तुम शीतल हो
तो क्यूँ भर जाते हैं लोग
देख तुम्हें उष्णता से ?
विहंस उसने कहा मुझसे
शीतलता में है,जीवन की उष्णता निहित
उष्णता में है निहित शीतलता
न हो अगर शीतलता
तो ,चाह हो कैसे उष्णता की ?
हो न अगर उष्णता तो
एहसास कैसे हो शीतलता की?
देख शांत भाव से बहती नदी को
पूछा मैंने उससे
क्यूँ शांति की बाहों में बैठकर भी
में हो रही हूँ अशांत?
कहा नदी ने शांत भाव से
क्या चंचल जीवन में
कभी पाई है किसी ने शांति ?
है अशांति जीवन में व्याप्त ,
नहीं मन की शांति पर्याप्त,
हो अगर जीवन में शांति
कैसे हो नित नूतन क्रांति ?
जा एक पेड़ के सम्मुख
पूछा मैंने उससे
तुम करते हो ,अपने सर्वस्व का होम,
पर , तुम्हें क्या मिलता है इससे ?
धीर ,गंभीर मुद्रा में कहा पेड़ ने
ओ! ओछे मानव
क्या तू प्रतिदान ही ढूंढेगा?
क्या तू देता है प्रतिदान ?
सूर्य को .......
जो देता है तुझे अपनी रौशनी
रौशनी जो है , तेरी ज़िन्दगी
पर तू उसे क्या देता है ?
चाँद को ........
जो लुटाता है अपनी समस्त चांदनी
पर तू उसे क्या लौटाता है ?
बादल को .........
जो देता है बूँद-बूँद पानी
क्या करेगा तू उसकी सानी ?
ओ मानव ! सोच तू अपने मन में
क्या देगा तू प्रकृति को प्रतिदान ?
निरुत्तरित रह गयी मैं !
उलझी दान -प्रतिदान के जाल में
आज समझ गयी एक राज़
जीवन में ,प्रतिदान की रखो न इच्छा,
कर्त्तव्य पथ में नहीं होती ,अपनी स्वेच्छा..........
कहते हैं तुम शीतल हो
तो क्यूँ भर जाते हैं लोग
देख तुम्हें उष्णता से ?
विहंस उसने कहा मुझसे
शीतलता में है,जीवन की उष्णता निहित
उष्णता में है निहित शीतलता
न हो अगर शीतलता
तो ,चाह हो कैसे उष्णता की ?
हो न अगर उष्णता तो
एहसास कैसे हो शीतलता की?
देख शांत भाव से बहती नदी को
पूछा मैंने उससे
क्यूँ शांति की बाहों में बैठकर भी
में हो रही हूँ अशांत?
कहा नदी ने शांत भाव से
क्या चंचल जीवन में
कभी पाई है किसी ने शांति ?
है अशांति जीवन में व्याप्त ,
नहीं मन की शांति पर्याप्त,
हो अगर जीवन में शांति
कैसे हो नित नूतन क्रांति ?
जा एक पेड़ के सम्मुख
पूछा मैंने उससे
तुम करते हो ,अपने सर्वस्व का होम,
पर , तुम्हें क्या मिलता है इससे ?
धीर ,गंभीर मुद्रा में कहा पेड़ ने
ओ! ओछे मानव
क्या तू प्रतिदान ही ढूंढेगा?
क्या तू देता है प्रतिदान ?
सूर्य को .......
जो देता है तुझे अपनी रौशनी
रौशनी जो है , तेरी ज़िन्दगी
पर तू उसे क्या देता है ?
चाँद को ........
जो लुटाता है अपनी समस्त चांदनी
पर तू उसे क्या लौटाता है ?
बादल को .........
जो देता है बूँद-बूँद पानी
क्या करेगा तू उसकी सानी ?
ओ मानव ! सोच तू अपने मन में
क्या देगा तू प्रकृति को प्रतिदान ?
निरुत्तरित रह गयी मैं !
उलझी दान -प्रतिदान के जाल में
आज समझ गयी एक राज़
जीवन में ,प्रतिदान की रखो न इच्छा,
कर्त्तव्य पथ में नहीं होती ,अपनी स्वेच्छा..........
bahut hi sahi aur accha likha hai . keep writing......
ReplyDeletebahut hi achaa........
ReplyDeleteVery nice.keep writing and publish it
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