Monday, 24 August 2020

पारिजात

ओ पारिजात!

अथक कहानियाँ छुपाये तुम

मिथकों की खुशबू से

सुवासित कर जाते हो।

बन इन्द्र प्रिय 

सागर मंथन से निकले

तुम, देव तुल्य ,कहलाते हो!


सौम्य मन मोहन रूप से अपने

देवों को भी लुभाते हो

उर्वशी,कामदेव सबको 

वश अपने कर जाते हो!


पता है न पारिजात!

अलौकिक तुम्हारा रूप सुवास!

नितांत भोर की नीरवता में,

बिखर धरा, और 

अनुपम हो जाते हो!


ओ पारिजात

तुम्हारे,सूर्य प्रेम से

 अनभिज्ञ नहीं जग,

फिर क्यूँ सूरज से कतराते हो?

मित्र प्रेम के पात्र नहीं वो 

फिर क्यूँ

हिम, तुहिन सी स्वच्छ, श्वेत

पंच पंखुरियों में, 

रंग लालिमा, सूरज की

 अपने, हृदय मध्य छुपाते हो?


कहो पारिजात

मित्र रंग की निधियाँ

 क्यूँ एकाकी संभाले हो ?

उदय होते ही उसके, क्यूँ

झहर झहर झड़ जाते हो!


ओ पारिजात

अद्भुत,प्रणम्य

तुम्हारा विश्वास !

मौन से अपनी , मित्रता

 मुखर कर जाते हो

सुगंध, से अपनी 

हृदय में सबके, 

बस जाते हो।

सजते नहीं गुलदानों में,

देवों के चरणों में

मुक्ति तुम पाते हो

मुक्ति तुम पाते हो.......








 


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