Friday, 27 September 2013

कतरन

व्यस्त ज़िन्दगी के
गुजरे पलों के इधर उधर पड़े
लम्हों के कतरनों को
संभाल कर रखना ...
कहीं कोई रंगीन
कहीं रंगविहीन टुकड़ा पड़ा होगा
किसी टुकड़े में
दाग कोई लगा होगा ,
दोस्तों की टोली की तरह
कई यादों का टुकड़ा सतरंगी होगा,
 रिश्तो की तरह,कोई टुकड़ा
किसी डोर से उलझा होगा ,
कहीं कोई टुकड़ा .कहीं से आरा
कहीं से तिरछा होगा,
कुछ यूँ ही कुछ अजनबी एहसासों
में लिपटा होगा
ज़िन्दगी के अनुभवों की तरह ,
सब टुकडो का
 मायना और अस्तित्व होगा
जोड़कर सब कतरनों को,सिलकर
चलो बनाये एक चादर
कभी ओढ़कर जिसे
कभी बिछाकर
यादो की कतरन
अनुभवों और यादों की
उष्णता देगा....




Wednesday, 25 September 2013

अकेले

क्या करती हो अकेले??
कई बार प्रश्न ये
लोगो के मैंने हैं झेले,
    किसे समझाऊ?
     किसे बताऊँ?
अकेली हूँ  पर तन्हा नहीं ,
कल्पना मेरी संग सहेली ,
यादों के रंग से मैं
रचती अपनी हथेली,
ख्वाबों से सजाती
दिल का हर एक कोना
हर एक गली,
 कभी बुझती,
कभी बुझाती
ज़िन्दगी  की पहेली
इतना कुछ है करने को
फिर कैसे हुई मैं
          अकेली??????
     


Tuesday, 24 September 2013

जन्मदिन

               मानो                            
कल की ही तो बात है
उसके नन्हे उंगलियों को पकड़
चलना उसे सीखा  रही थी,
उड़ना उसे बता रही थी,
               कब
वक्त को पंख लगे
कैसे गुजरे
दिन, महिने , साल
और बढ़ते रहे
दिन -प्रतिदिन
हमारे मोह -माया जाल .
             अब
विस्तृत जग में
विस्तृत नभ में
घोंसला छोड़, स्वतंत्र उड़ने को
तैयार हमारा बाल,
सबकी आशीष खड़ी है
बनकर उसका ढाल,
जन्मदिन हो उसे मुबारक
ऐसे ही सालों -साल......................
(२४-९-२०१३)

Friday, 20 September 2013

चाह


चाँद को पाने की आस
किसे नहीं होती ?
बुलंदियों  को छूने की चाह
किसे नहीं होती ?
जानती है समुन्दर की लहरे भी
छू नहीं पायेगी चाँद को
पर चांदनी रात मे उसकी
उफान कम नहीं होती .
गंतव्य पथ से जब भी हुई हैं
       राह -च्युत नदियाँ
काल चक्र घूम जाता है
उथल -पुथल कहाँ नहीं होती?
बढ़ते चलो , जूझते चलो
चाँद को पाने की आस लिए
बुलंदियों को छूने की प्यास लिए
सीख लो कुदरत से कुछ बातें
तो ज़िन्दगी में
  ख़ुशी कम नहीं होती ............

Tuesday, 17 September 2013

प्रभु

धीमी -धीमी हवा की सरसराहट ,
खिले अधखिले फूलों की तरावट,
उन पर घूमती तितलियों की नज़ाकत,
चिड़ियों की मीठी चहचहाहट,
बारिश  से भीगी मिट्टी की सोंधाहट
नंगे पाँव घास पर चलने से
शरीर की सुगबुगाहट,
      महसूस कर
प्रकृति की ये सब बनावट ,
और कर एहसास
चारो ओर है बस
एक उस प्रभु
की ही तो गुनगुनाहट.............

श्रदांजलि......निर्भया के नाम

निर्भया की गहरी नीन्द ने
सबको जगा दिया
कितनी गिर सकती है मानवता ,
यह बता दिया.
जिस रावण का जलता है
पुतला हर साल
उसने तो बस सीता को हरा था ,
क्रोधित था वो
क्योंकि सीता ने उसे
नहीं वरा था
 हमने उसे ,बुराई का
पर्याय बना दिया.
बहुत भला था
त्रेतायुग का रावण
बीते वक़्त ने
यह बता दिया
  इस युग में
शुम्भ -निशुम्भ की तरह
गुणित हो रहे है राक्षस,
रोज़ कहीं न कही
हत्या और बलात्कार
कोई प्रकट नहीं होनेवाला है
          अवतार
खुद बन कर चंडी
कर इनका संहार
निर्भया ने जाते जाते
यह बता दिया
उसकी गहरी नीन्द ने
सबको जगा दिया ...........

Monday, 16 September 2013

तलाश

तलाशते  रहते हैं हम सब
कई मंजिले एक साथ
जबकि ,रहते हैं हम
कभी अपने हालातों मे गुम
कभी अपने सवालातों मे गुम
भटकते रहते हैं हम
कभी इस  दर
कभी उस दर ,
हजारों ख्वाहिशों का बोझ उठाए
एक कोई रास्ता नहीं
एक कोई आरज़ू नहीं
फिर कैसे मिले हमें मंजिल
यूँ ही भटक भटक कर
        दर -दर .........

Saturday, 14 September 2013

सफ़र

यादों के सफ़र में,
सहर हो गयी,
ज़िन्दगी इस दरम्या,
कहर हो गयी ,
कितना भी चाहा,
न याद करूं तुम्हें,
पर तेरी यादें ही मेरी
हमसफ़र हो गयी.......

नयी सुबह

बहुत दिनों से चुभन थी, जकरण  थी
सोच रही थी
क्यूँ  है ये?
अंतर्मन से पूछा तो
पाया  जवाब
बहुत दिनों से सोई थी तू
दुनियादारी की सपनो मैं खोई थी तू
किसी और के सोच को बिछाकर
उसके विचारो को ओढ़कर
सोकर अकड़ गयी है तू
दुसरो की सोच से जकड़ गयी है तू
अब भी कोई देर नहीं हुई
उठ जा , जाग जा
बारिश की बूंदों से
धो डाल
अपनी अकरण -जकरण
सूरज की नयी रौशनी में
अपनी नयी सोच को बिछा नहीं
                  फैला
अपने विचारो को ओढ नहीं
               उड़ा
ओर देख एक अनोखी दुनिया
एक अनोखा स्वप्न..........

Friday, 13 September 2013

ज़िन्दगी

फलसफों और दलिलो से
किसी के बहुत पास
किसी से बहुत दूर
है ज़िन्दगी,
क्या सच , क्या झूठ,
यही उधेरबुन है ज़िन्दगी.
कर लिया है
किसी ने कैद
ज़िन्दगी की सच्चाईयों को
अपने फलसफो में
पर मेरा भ्रम ही है
मेरा फलसफा , मेरी ज़िन्दगी
मैं क्या करूँ हिसाब
आये गए पलो का,
बहुत बेहिसाब है
        ज़िन्दगी ......

Saturday, 7 September 2013

प्रेम

यथार्थ की कटुता
कल्पना की मधुरता ,
मन की चंचलता
प्रेम की मादकता
कहाँ संजोऊ? कहाँ समेटू मैं?
इस रिश्ते की प्रगाढ़ता?
मन की अधीरता
बन जाती है
कल्पना की जीवन्तता
             पर
यथार्थ की सजीवता
से भी सजीव है
प्रेम की परिपूर्णता........

अंकुरण

मेरी नई अंकुरित  कविता
किसने किया सृजन तेरा ?
बीज तो बरसो से डला था
किसने प्रेम की बूंदे डाली ?
कैसे फल फूल रही तू
और महका रही
अस्तित्व मेरा ?
बता ना मेरी अंकुरित  कविता
किसने किया सृजन तेरा ?
खिल खिल कर , महक महक कर
बोली मेरी कविता
जैसे एक पंछी बो जाता है
बीज कई जाने अनजाने.
पड़ी रहती है वो धरती पर
जब तक बारिश की बूंदे
ना आए उन्हें सह्लाने
ओर फिर एक बूँद ही है पर्याप्त
जिससे होती है
एक नयी उत्पति
एक नया सृजन
मुझे भी मिली वो
प्रेम- बूँद
ओर मैं भी बन गयी
एक जीवन
एक अंकुरित कविता

Friday, 6 September 2013

मृगतृष्णा

एक पूर्ण ज़िन्दगी में
कहीं कुछ सुनापन
कहीं कुछ ख़लिश
कर देती है बैचैन
पाने को उस
अतृप्त प्यास को
जिसे मृग-तृष्णा कहूँ
या ज़िन्दगी की मरीचिका
या वो है मृग कस्तूरी
जिसकी खुश्बू की चाहत से
बैचैन है मन
उसे पाने को
पर शायद वो है मेरे ही
वजूद का हिस्सा
बस जिसे दूंढ रही हूँ
             मैं !!!!