Monday, 9 October 2017

धनक (चित्र प्रतियोगिता)

सुंदर धरा, सुंदर गगन
महसूस कर रही
ये निश्छल पवन
प्रभाकर की प्रभा निराली
मुझ संग
हर्षित,प्रकृति सारी
शिक्षा के है अब पंख लगे
अरमान बन अब खग
चहुँ ओर हैं ,उड़ने लगे
नही बँधे अब बस
घर से डोर मेरे
नही जीवन का मतलब
बस सात फेरे
अब उन्मुक्त मेरे स्वर
उन्मुक्त डगर!
सूरज सी मैं रही चमक
आत्मविश्वास से मैं रही दमक
चौके से चाँद तक
कहाँ नही है मेरी पहुँच?
धरा से व्योम तक
मेरी आवाज रही खनक
छा रही हूँ मैं
हर दिशा में बनकर
    धनक
बनकर धनक.....
 (धनक -इंद्रधनुष)

©अनुपमा झा
(नई दिल्ली)



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