चमकते दमकते सामानों में
रंग बिरंगे बिकते फोन की दुकानों में
अब हमारी अहमियत
है नगण्य ,गौण
अब हमें पहचाने कौन?
उदास ,हताश सी
कुछ कैलेंडर ,कुछ डायरियाँ
याद कर बीते दिन
हो रही थी गुमसुम मौन
कहता मिला कैलेंडर
क्या ज़माना था
जब सालान्त हुआ करता था
ऑफिस से लेकर घरों तक
हर जगह मैं
टंगा मिलता था
हर कोई मुझे पाकर
खुश हुआ करता था
कैलेंडरों के लेन देन
की होड़ लगी रहती थी
मुझसे घरों की दिवारें
सजी मिलती थी!
लोग मुझे निहारते
दिन- महीनों का हिसाब
रखा करते थे
महीने के अंत मे
प्यार से पलटा करते थे!
स्वरूप मेरा अब
मोबाइल में सिमट गया है
अस्तित्व वो पुराना
कहीं खो सा गया है
तरसता अब
उस स्पर्श उस नज़र को
जब कितने ही हाथों गुजरता
नए साल की शुभकामनाओं के साथ
लोगों के घर ,आया जाया करता था
मुस्कानों के साथ,स्वीकारा जाता था!
सब व्यथा सुन रही थी
डायरी हो गुमसुम
कहा ओ कैलेंडर अब मेरी सुन
मैं भी तो सबके
कितनी अजीज हुआ करती थी
लोगो के दिल के करीब रहा करती थी
लोगों के दिनचर्या का
हिसाब हुआ करती थी
दिल मे उठते बातों की
किताब हुआ करती थी
बड़े जतन से मुझे संभालते थे
सीने से अपनी लगाते थे!
कितनों की हमराज़ ,हुआ करती थी
लोगों के जज़्बात ,सुना करती थी
पर अब
मेरी भी अहमियत खो गयी है
सब ज़ज़्बातों की ठेकेदार
ये मुई मोबाइल हो गयी है
हम दोनों
एक विगत गीत बन रह जायेंगें
यूँ ही एक दूजे को
अपनी व्यथा सुनायेंगे
"कागज़ बचाओ अभियान" में
कुछ सालों बाद
हम छपने भी
बंद हो जायेंगे!!!!!!!!
रंग बिरंगे बिकते फोन की दुकानों में
अब हमारी अहमियत
है नगण्य ,गौण
अब हमें पहचाने कौन?
उदास ,हताश सी
कुछ कैलेंडर ,कुछ डायरियाँ
याद कर बीते दिन
हो रही थी गुमसुम मौन
कहता मिला कैलेंडर
क्या ज़माना था
जब सालान्त हुआ करता था
ऑफिस से लेकर घरों तक
हर जगह मैं
टंगा मिलता था
हर कोई मुझे पाकर
खुश हुआ करता था
कैलेंडरों के लेन देन
की होड़ लगी रहती थी
मुझसे घरों की दिवारें
सजी मिलती थी!
लोग मुझे निहारते
दिन- महीनों का हिसाब
रखा करते थे
महीने के अंत मे
प्यार से पलटा करते थे!
स्वरूप मेरा अब
मोबाइल में सिमट गया है
अस्तित्व वो पुराना
कहीं खो सा गया है
तरसता अब
उस स्पर्श उस नज़र को
जब कितने ही हाथों गुजरता
नए साल की शुभकामनाओं के साथ
लोगों के घर ,आया जाया करता था
मुस्कानों के साथ,स्वीकारा जाता था!
सब व्यथा सुन रही थी
डायरी हो गुमसुम
कहा ओ कैलेंडर अब मेरी सुन
मैं भी तो सबके
कितनी अजीज हुआ करती थी
लोगो के दिल के करीब रहा करती थी
लोगों के दिनचर्या का
हिसाब हुआ करती थी
दिल मे उठते बातों की
किताब हुआ करती थी
बड़े जतन से मुझे संभालते थे
सीने से अपनी लगाते थे!
कितनों की हमराज़ ,हुआ करती थी
लोगों के जज़्बात ,सुना करती थी
पर अब
मेरी भी अहमियत खो गयी है
सब ज़ज़्बातों की ठेकेदार
ये मुई मोबाइल हो गयी है
हम दोनों
एक विगत गीत बन रह जायेंगें
यूँ ही एक दूजे को
अपनी व्यथा सुनायेंगे
"कागज़ बचाओ अभियान" में
कुछ सालों बाद
हम छपने भी
बंद हो जायेंगे!!!!!!!!
No comments:
Post a Comment