Monday, 6 August 2018

कर्ण व्यथा

( 1)
आओ सुनाऊँ अपनी कथा
 क्या सोची किसी ने मेरी व्यथा?
 माता ने मेरा परित्याग किया
गंगा में मुझे प्रवाह किया
किन्तु,भाग्य था मेरा बहुत बलवान
हुआ काल का नव निर्माण
अधिरथ से मिला,पुत्र सम्मान
कौन मात, पिता कौन
नहीं था मुझे,इसका भान!
हाँ,मैं *कर्ण* सब कहते योद्धा महान।
(2)
सूर्य सा तेज,था मैं प्रखर
सम्पूर्ण विद्याओं में,रहा था निखर
था अपने पौरुष से भिज्ञ
कुल,गोत्र से अनभिज्ञ
जाति से दीन-हीन
नहीं था मैं कुलीन
मैं सूत पुत्र मलीन।
(3)
धनुर्धर बना मैं महान
यह विद्या थी मेरी पहचान
राज्य-ध्रुपद धनु कौशल दिखलायी
स्नेह,प्रतिष्ठा नृप संग,द्रौपदी की पायी
मोहित हुआ रूप ,विद्वत्ता पर उसकी
थी प्रेम की ये अद्भुत अनुभूति !

(4)
प्रेम मेरा हुआ अंकुरित
उसकी कथा से,था मैं विचलित
मैं था त्यागित,अभिशापित
द्रौपदी यज्ञाग्नि से निःसृत
स्वार्थ के लिए,उसे उत्पन्न किया
यज्ञ की पूर्णाहुति से सम्पन्न किया।
(5)
थी वो सुंदर,विदुषी,चपला, कामिनी
दीप्ति से उसके भय खाती दामिनी
हृदय ने उसे कर लिया था वरण
नहीं था कल्पनाओं का संवरण
भावनाएँ अंकुरित,हो रहीं थी पुष्पित
अनजान था क्या होना था घटित।
(6)
स्वयंवर का हुआ आह्वान
प्रतिष्ठा पर थी धनुर्धरों की बाण
थे निश्चिंत मेरी प्रत्यंचा  और स्वाभिमान
मैं ही था योग्य धनुर्धर महान
पर हुआ तार-तार मेरा मान
शौर्य का किया गया अपमान
भरी सभा में सूत पुत्र कहकर
बेधे गए शब्द रूपी बाण
नहीं था मैं योग्य,क्षत्रिय महान!
(7)
आए थे कई योद्धा वीर
हुआ विजयी अर्जुन धनुर्वीर
गले पड़ी उसकी जयमाल
चहुँ ओर उसकी जय जयकार
हुआ बहुत मैं अपमानित, लज्जित
पर नहीं था मेरा प्रेम विस्मित
धर्म,लाज,लोक लिहाज
क्या ये सब थी,मन की भीत?
(8)
क्रोध ने मुझपर अधिकार किया
मेरे अंतर्मन ने धिक्कार किया
प्रतिशोध की अग्नि बनी दावानल
मैत्री दुर्योधन की थी सबल
वह था मेरा सच्चा बल
समय चलता रहा प्रबल।
(9)
समय ने अपना चाल दिखाया
चौपड़ रूपी जाल बिछाया
हार चुके जब पांडव सब कुछ
फिर पांचाली पर दांव लगाया!
काल बना उस क्षण निर्मम
पथ बने सब दुर्गम!
(10)
हार पांचाली,पांडवों ने शीश झुकाया
कौरवों ने अट्टहास लगाया
भरे दरबार में प्रिय तुम्हें गया बुलाया
खींच केश से,रजस्वला स्त्री को गया था लाया।
(11)
मेरी मति गयी थी मारी
निर्वस्त्र करने मैंने,कही थी एक नारी
मैंने भरी थी हुंकारी
भूल गया था,मैं पौरुष मर्यादा
क्षत विक्षत हो गया प्रेम अगाध।
(12)
विनाशकाले विपरीत बुद्धि
खो बैठा था, मैं अपनी सुधि
जिसे हृदय सिंघासन विराजमान किया
पूजिता का सम्मान दिया
उसी का क्यूँ मैंने अपमान किया?
सिर्फ पांडवो पर नहीं ये कलंक
मैं भी सहूँगा ये विष डंक।
(13)
क्यूँ अपमान हुआ प्रेम पर भारी
क्या मान मेरा करेगी नारी?
इससे अच्छा तो शिखंडी, वृहन्नला बन आता
सबसे कुछ प्रेम तो पाता
क्यूँ रचा ऐसा मेरा भाग्य,हे विधाता??
मित्रता मेरी मिसाल बनेगी
पर मेरा प्रेम??
सदा एक सवाल करेगी
सदा एक सवाल करेगी.....




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