Monday, 20 August 2018

कलम, कलाम, कूची

कलम से कलम की हुई मुहब्बत
कलम कलाम लिखता रहा
मौसिकी में होती थीं बातें
इश्क़ साहिर अमृता का
परवान चढ़ता रहा

वो अधजले सिगरेटों को सम्भालती रही
पीकर उन्हें, एहसास नज़दीकी का पालती रही
वो चाय के जूठे प्याले संभालता रहा
एहसास से उसके,खुद को भरमाता रहा!

मुहब्ब्त बयानी लफ़्ज़ों की थी
ख़तों में मुहब्बत लिखता रहा
मिलते,ख़ामोशियों के साये तले
इश्क़ उनका आँखों से बरसता रहा!

वो बंधनो में न बंध सका
अपना न उसको कर सका
अंजाम तक अफ़साना लाना था मुश्किल
एक खूबसूरत मोड़ देकर उसे देखता रहा!

वक़्त फिर यूँ ही गुज़रता रहा......


कूची पर कलम की हुई इनायत
हुई एक दूजे से सोहबत
वो नज़्मों में किसी को उकेरती रही
वो कैनवास पर उसको रंगता रहा

एक दुनिया की परवाह करता रहा
एक साये सा साथ उसके चलता रहा
देर रात वो लफ़्ज़ों से थी उलझती
आधी रात वो चाय की प्याली पिलाता रहा!

बैठ इमरोज़ संग, पीठ पर उसके साहिर लिख जाती थी
वो मुहब्बत के उन एहसासो को संभालता रहा
"मैं फिर आऊँगी" वादे को
रसीदी टिकट सा संभालता रहा!

अधूरा इश्क़ तीनों का
फिर भी कितना मुकम्मल रहा
कुछ यूँ नशा इस इश्क़ का
आज तलक सबको मदहोश करता रहा......

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