Sunday, 9 July 2017

विरह

लो आई रिमझिम फुहार
क्या सुन ली
बादलों ने मेरी मनुहार?
तभी शायद गा रहा
मेघ ये मधुर मल्हार।

दूर कहीं सीमा पर बैठे
मेरे साजन को
क्या ये बादल छूकर आए!
इन बूँदों में खुश्बू उनकी
जो मन मेरा महका जाए!
सौंधी मिट्टी की खुशबू
बिल्कुल तेरी यादो सी
ये मनमोहक फुहार
बिलकुल तेरी बातों सी
देखो न कैसे
दोनों घुलमिल गाए
आओ साजन न इन पलों को
यूँ व्यर्थ गवाएँ!

हूँ तुम्हारी वामा, वीरांगना
सीख लिया है
घर की सीमा को संभालना
पर दर्द विरह का न अब सहा जाए
ऐसी प्यारी बरसात में
तुम ही कहो
कैसे अब रहा जाए।

इन बूँदों ने बस भिगोया मेरा तन
तुम बिन यूँ ही
बंजर पड़ा ये मन।
बारिश की बूँदों से
अश्कों को अपने छिपा रही
बहुत खुश हूँ मैं
सबको यूँ बहला रही ।

श्रापित यक्ष ,यक्षिणी के विरह को
महसूस कर रही
इन मेघों को मैं भी
दूत बना पास तुम्हारे
भेज रही।
अगली बारिश में
चाहिए बस मुझे
अपने साजन के बाँहों का गलहार
और न हो कोई मेरा श्रृंगार
ओ मेघ
 बस इतनी सी मेरी
 लगा दे गुहार
यही मेरा तुमसे मनुहार
बन प्रेम बूँद
बरसू मैं भी
और बरसाऊँ
साजन पर
अपना प्यार!!!!!!

अनुपमा झा
(नई दिल्ली)
स्वरचित



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