Sunday, 5 March 2017

रफ कॉपी

घर के किसी कोने मे
दबी दबाई
सहमी सकुचाई
मुझे मिली पड़ी पुरानी 
"रफ कॉपी"
बचपन का किस्सा है
स्कूल का अहं हिस्सा है
यह "रफ कॉपी"
साफ़ सुथरी थी जहाँ
बाक़ी विषयों की कॉपी
जिल्द चढ़ी 
अकड़ी -अकड़ी,
वहीं हुआ करती थी
मस्त अल्हड़
यह "रफ कॉपी"
न घरवालों के नज़र का खौफ
न किसी टीचर के 
रोक टोक की परवाह
शायद इसलिए थी
जरा वो लापरवाह,
पर होती सबसे प्यारी थी 
वही हमारी 
यह "रफ कॉपी"
सब विषयों का सार होता था
पिछले कुछ पन्नो मे
हमारी शैतानियों का 
विस्तार होता था
राजा,मंत्री,चोर,सिपाही
आज भी दे रहा 
इस बात की गवाही,
पढ़ाई के साथ साथ 
खर्ची थी हमनें
इन खेलों पर भी स्याही
कभी किसी गाने की
दो चार पंक्तियाँ 
लिख जाया करते थे
कभी किसी दोस्त को 
कुछ लिखकर
चिढ़ाया करते थे
सब किस्सों का सारांश
यह "रफ कॉपी"
गणित के सवालों मे
जो खर्चते थे दिमाग
उसकी जोड़ घटाव का हिसाब
यह"रफ कॉपी"
चित्रकारी के जरिये
हमारे मन का इज़हार
यह"रफ कॉपी"
हमारे बचपन के दिनों के 
अल्हड़पन के गवाह 
यह "रफ कॉपी"
       काश
ज़िन्दगी के हर पड़ाव पर
होती साथ हमारी
ऐसी ही कोई 
एक "रफ कॉपी"
दुःख,तकलीफ,परेशानियों
को डाल कॉपी के 
अंतिम पन्ने पर
सकून से हमें 
जीने देती हमारी
ज़िन्दगी की 
यह "रफ कॉपी".......


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