Friday, 7 April 2017

पदचिन्ह

महावर की थाल में डालकर पैरों को
अपने पदचिन्हों को छोड़ा उसने
सिर्फ दिल ही नहीं
कई रिश्ता जोड़ा उसने
कुछ सहमी कुछ घबराई सी थी
कुछ अपनी कल्पनाओं से
शर्मायी लजायी सी थी
सुबह सवेरे उठकर अपने
लाल महावर के निशान देख रही थी
अपनी जिम्मेदारी के एहसास
को संजो रही थी
कुछ बिखरे सामानों को उठाया उसने
बड़े हक़ से ,अपनी मर्ज़ी से उन्हें सजाया उसने
तभी पीछे आई कहीं
एक ताने की आवाज़
देवी जी इस घर का ,ये नहीं रिवाज़
घर अभी ये मेरा है
नहीं इसपर हक़ तेरा है
सुन इसे वो रो पड़ी
मन ही मन सोच पड़ी
कौन सा पदचिन्ह अपना है
जहाँ पड़े महावर या
जहाँ पड़े थे धमा चौकड़ी के निशान?
कुछ प्रश्न चिन्ह लेकर पदचिन्ह वो
छोड़ आयी जहाँ न मिला उसे मान
कौन सा घर उसका है
और कहाँ है उसका स्थान!

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