Sunday, 23 April 2017

सागर

न जाने क्यूँ ,किसके लिए
व्याकुल रहता है सागर?
विकल,विह्वल सा,
चट्टानों से टकराता रहता !
शांत,निश्छल मोतीयों को
समाये अपने में
फिर मन क्यूँ
इसका बेकल रहता ?
असंख्य नदियाँ हैं समाहित इसमें
क्या इसका है इसको अभिमान?
या कोई अधूरी प्रेम कथा
छुपाकर रखा है
सागर के मन तल में,
जिसका नहीं हमें है भान!
पत्थरों से टकराता रहता
क्या लेता है खुद से प्रतिशोध!
क्यूँ नहीं करता ये किसी से प्रतिरोध?
आँसुओं सा खारा पानी
चीख चीख कह रहा
इसने नहीं की प्रेम में मनमानी
बस व्याकुल है,
शायद प्रतीक्षाकुल है
चट्टानों से टकराता है
लहरों की ओट में
अंतर्मन का शोर छुपाता है......

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