Friday, 21 April 2017

गुल्लक यादों का

कुछ यादें हैं जमा गुल्लक में
बरसों से उन्हें छेड़ा नहीं
इकट्ठी हो रहीं हैं
आहिस्ता आहिस्ता,
आज उनको उठाकर
 टटोल रही हूँ,
और भी भारी हो चला है
कुछ  तुम्हारा हिस्सा
कुछ मेरा हिस्सा है
सब जमा हो ,घुलमिल गया है
एक दूसरे से,हमारी तरह
अब कैसे करूँ बँटवारा
कौन सा तुम्हारा,कौन सा मेरा
बहुत मुश्किल है यह सवाल
सोच रही हूँ न तोड़ू कभी
इस गुल्लक को
मिटटी ही तो है
कुछ और होता तो
लग चुका होता अबतक जंग
नहीं बचता कुछ
हमारी यादों का अंग
पर मिटटी का ये गुल्लक
गर टूटा भी तो
टूट मिटटी में ,मिल जायेगा
और मिल मिट्टी में,संग अपने
सौंधी सौंधी  यादो की खूशबू फैलायेगा

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