ग्लोब
जीवन के रंगों को
अपने गोलार्द्धों में समेटे
गोल घूमता ग्लोब
क्या नहीं प्रतीत होता
एक स्त्री जैसा?
अपनी धूरी पर घूमता
अल्हड़ पहाड़ी नदी की चंचलता
सागर की गंभीरता
धरती की सहिष्णुता
आकाश की उन्मुक्तता
सबको अपने में समेटे
पृथकीकरण करता है
बारीक लकीरों से
सबकी हदें
बिल्कुल स्त्रियों जैसा।
देखो ग्लोब को, ध्यान से
झुका हुआ है,एक ओर
शायद यह भी
सबके भार से,
बना रहा संतुलन
अपने मे समेटे ,दुनियाँ का
जैसे स्त्री समेटती है
अपनी दुनियाँ
अपनी धूरी पर घूमते
और जाती है झुक
सबका भार उठा।
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