सुनो
तुम तुम ही रहो
"मैं" मैं ही रहूँगी
नहीं बंधना मुझे
"हम" वाले बंधन में
उड़ना चाहती हूँ मैं
इश्क़ के उस उन्मुक्त आकाश में
एक मुक्त पंछी जैसे
जहाँ इश्क़ का
कोई दायरा नहीं
कोई बंधन नहीं
कोई फिसलन नहीं
न ही कोई छलावा।
महसूस करना चाहती हूँ
जुनून ए इश्क़
अपने "स्व"के साथ
खुद "अमृता" बनकर
तुम्हें कभी "साहिर"
कभी "इमरोज़" बनाकर।
बोलो है मंज़ूर.....
©Anupama jha
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