जब लिखी जाती है कविता
गौर वर्णा स्त्रियों पर
पहनायी जाती है,शब्दों से
रंग बिरंगी चूड़ियाँ
गोरी कलाइयों पर
तो,विशेषणों में लग जाती है होड़
संवारने को रूप,रंग ,उस गौर वर्णा के
तब
चुपचाप सब पढ़ती है "वो"
वो सब कविताएँ,
जिन्हें सुंदर नहीं
कहा,माना, जाता।
कभी काली ,कभी बदसूरत कही जाती है
विचित्र नामों से भी पुकारी जाती है।
और गौर वर्णों के आगे
कम ही दुलारी जाती हैं।
अंतर्मन के सवालों से
खुद को संवारती,खुद के लिए
सवालों को उठाती है।
सुना हैआजकल स्त्री विमर्श का बोल बाला है
क्या होता है मुद्दा, इन विमर्शो में?
क्या कहते हैं मनोचिकित्सक?
किसने ज्यादा नुकसान किया
लिंग भेद या रंग भेद?
दोनों ही
घर से शुरू होते है न?
फिर सारे प्रश्नों को अनुत्तरित कर
बढ़ती है वो आगे
खुद को फिर से समझाती
तनिक व्यंग्य से मुस्काती
कृष्ण भी मात्र
शिकायत करके राह गए
राधा क्यों गोरी
मैं क्यूँ काला?
फिर मेरी क्या बिसात!
फिर आश्वस्त हो खुद से
चल पड़ती है
उन दुकानों की ओर
जहाँ बेचा जाता है झूठ
दिखाकर , विज्ञापनों में
उन्हीं स्त्रियों को
जिनपर लिखी जाती है कविता
और बनाये जाते हैं
बड़े बड़े होर्डिंग
जो टंगे ही टंगे करते हैं
कितने ही भावनाओं का कत्ल
जिनपर नहीं लिखी जाती
कोई भी कविता
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