Wednesday, 25 November 2020

रतजगा और गुफ़्तगू

 रतजगा था मेरा,चाँद परवाह मेरी करता रहा

सिरहाने बैठ मेरे,मेरी दास्ताँ सुनता रहा।


बहलाता, फुसलाता,मुझसे गुफ़्तगु करता रहा

आहिस्ता आहिस्ता ,ज़ख्मों को मेरे सहलाता रहा।


नम आँखो को मेरे,चाँदनी से चूमता रहा

घास जैसे ओस को,खुद में जज़्ब करता रहा।


सुनकर दास्ताँ मेरे अधूरेपन की,बस खामोश रहा

कहाँ रह पाता वह भी पूरे रात का,यह मुझे समझाता रहा।


सोलह कलाओं को लेकर बैठा था,साथ मेरे

दाग की बात पूछने पर टालता रहा।


स्लेटी बादलों में छुपता रहा,दाग को अपने छुपाता रहा

न दिखाओ सरे आम दाग अपने,इशारों में यह बतलाता रहा।

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