Friday, 6 November 2020

सामंजस्य

 देख आते अरुणिमा को

चाँदनी,हो रही आतुर

छिटकने को रात से,

लगती नाराज़ सी

वो किसी बात से,

कुछ कह रही धरा

आओ सुने प्रात से !


शिथिल मौन अब भंगित होगा

कलरवों के नाद से

पादप दल मुस्काएँगे

पुष्पों के,अभिव्यंजित श्रृंगार से,

मकरंदों के लिए

तितलियों के अभिसार से।


मंद मधुर पवन के झोंके

लगे असावरी के राग से

नव प्रात,जैसे नव गात

न खंडित अवशेष, रात से,

अभिशप्त चादर तिमिर का

उड़े दिवा के भाग से।


था रात,सब सुन रहा

सुन सब,कह पड़ा

सुन धरा

न प्रात पर यूँ इतरा,

अभिशप्त नहीं तिमिर मेरा,

न कर तू,तेरा मेरा,

रह जायेगा अभिमान तेरा

यूँ का यूँ ही धरा!

गर रूप चक्र आवर्तन का

प्रकृति ने नहीं धरा।


ए धरा, सोच ज़रा

थम जाएगा काल चक्र

हो जाएगा समय वक्र

अधूरा रहेगा,धरा श्रृंगार सब

प्रकृति की धरा से

है सुंदर यह धरा।


गयी बात समझ धरा

दिवा आभूषण उसका

तिमिर श्रृंगार अंजन जिसका

अब दोनों से सजकर 

देखो इतराती धरा

दिवा,रात्रि का सामंजस्य

जीवन में सिखलाती धरा

🌷🌿🌷🌿🌷🌿


धरा - धरती

धरा - नाप का पैमाना

धरा - धरे रहना/ रखना

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