#संवाद
मैं करना चाहती हूँ तय
चुप्पी से संवाद तक की यात्रा
शब्दों के स्वर्ण रथ पर !
पर हो गए हैं ,
राह च्युत मेरे शब्द
क्यूँ, कैसे , कब
भान ही नहीं।
आत्मचिंतन के दर्पण में
खुद को सजा,संवार
जब भी निकलना चाहा
उस यात्रा पर
एक अपरिचिता को पा
उसे संग न ले पायी ,
और बेवजह के सामान से
इक्कठे होते गए
कुछ अवसाद ।
अनुत्तरित प्रश्नों के अरण्य में
उत्तरों की कस्तूरी को
ढूंढ़ने की चाहत
बैचैन करती है ,
पर याद आते हैं
कबीर के शब्द
"कस्तूरी कुण्डली बसे
मृग ढूंढें बन माहि..
और चल पड़ी हूँ
अंतस के कस्तूरी की
खोज में
कुछ शब्दों की पोटली बांध
स्वयं से संवाद की यात्रा पर
निश्चित गंतव्य पर
पर
कठिन राह पर.....
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