Tuesday, 27 June 2017

बरस ओ बादल

ओ बादल जमकर बरस
सूखी, तपती धरती
रही तेरे स्पर्श को तरस
करवा लेना मान मनुहार
दिखा लेना अपना रोष
गुस्सा तुम्हारा लोगों से
बेचारी धरती का क्या दोष?
प्रगति के नाम पर लोग
प्रकृति को रहे उजाड़
कर रहे सब धरती पर ही अत्याचार
देखो न
धरती कैसे कातर नयनों से रही निहार
लगा रही तुमसे गुहार!
बादल और धरती का रिश्ता बेजोड़
फिर ऐसे कैसे तुम
आहिस्ता आहिस्ता बंधन ये
दिए जा रहे हो तोड़?
इस विशाल धरती की
बस तुम्ही मिटा सकते प्यास
तुमसे ही बस अब
इसकी आस
ओ बादल अब तो खा तरस
जमकर बरस
खूब बरस
खूब बरस!!!!

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