Tuesday, 27 June 2017

डाकिया

खाकी वर्दी ,सर पर टोपी हुआ करती थी
उसकी साइकिल की ट्रिन ट्रिन की
एक अलग आवाज़ हुआ करती थी
चश्मे के नीचे से झाँकती
उसकी मुस्कान थी
कंधे पर टंगा झोला ,
उसकी पहचान थी।
इंतज़ार में उसके
पूरा घर रहा करता था
पैगाम वो खत के रूप में
लाया करता था
किसी ज़माने में
ऐसा डाकिया हुआ करता था।
जाने ,अनजाने लोगो के
दुःख सुख से जुड़ा होता था
खुशखबरी वो कुछ
नख़रे दिखाकर दिया करता था।
कभी पैसे तो कभी मिठाई
लिया करता था,
लोगों से भी रिश्ता जुड़ा रखता था
किसी ज़माने में
ऐसा डाकिया हुआ करता था।
समय ने ली करवट
स्वरुप सबका बदल गया
लिफाफा, डाक टिकट, डाकिया
सब मशीन बन गया
न होती ट्रिन ट्रिन की आवाज़ अब
न होती डाकिये की पदचाप अब
खत आना हुआ बंद अब
धड़कते दिलों से खत का लेना
हुआ ख़त्म अब
डाकिया भी गुमनाम अब
ड से डाकिया
शायद यही उसकी पहचान अब।
हाँ ,किसी ज़माने में
होता था ऐसा डाकिया
किताब और गूगल बताया करेगा
ऐसे पहचान डाकिये की
सबसे करवाया करेगा......


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