बंद कमरे में वो
दर्पण में खुद को
निहार रही थी,
सुन्दर तन,उम्र कम
आँखों से ख़्वाहिशों का काजल
फैला अंतर तल तक।
निकाल बिंदी ,उसने माथे पर सजाई
चूड़ियाँ कुछ कलाईयों को पहनाई
होंठो पर हलकी सी लाली लगाई,
सतरंगी चुनरी से छिपा खुद को
मन ही मन सोच कुछ
आँखे उसकी भर आयी।
दरवाज़े पर पड़ी थाप
तन्द्रा सी टूटी उसकी
सामने खड़े हाथ से ले
सफ़ेद साड़ी,छुटी सिसकी उसकी
हिकारत से देखा उसने उसको
माँ समान माना था जिसको।
दर्पण देख अब वो रही सोच
जीवन साथी मरा उसका
नहीं उसका जीवन,
क्यूँ खत्म करूँ ख्वाहिशों को
क्यूँ मिटा डालूँ खुद को?
क्या हत्या नहीं ये"आत्म" की?
अंतर्मन के जज्बात की?
लिया उसने एक निर्णय अहम
सोच लिया तोडूंगी ,ये सामाजिक वहम
नहीं करुँगी मैं अरमानो की "ख़ुदकुशी"
देखूँगी अब" खुद की ख़ुशी"
सौभाग्य से मिलता स्त्री जन्म
संवारकर इसे लिखूंगी अपना कर्म.......
दर्पण में खुद को
निहार रही थी,
सुन्दर तन,उम्र कम
आँखों से ख़्वाहिशों का काजल
फैला अंतर तल तक।
निकाल बिंदी ,उसने माथे पर सजाई
चूड़ियाँ कुछ कलाईयों को पहनाई
होंठो पर हलकी सी लाली लगाई,
सतरंगी चुनरी से छिपा खुद को
मन ही मन सोच कुछ
आँखे उसकी भर आयी।
दरवाज़े पर पड़ी थाप
तन्द्रा सी टूटी उसकी
सामने खड़े हाथ से ले
सफ़ेद साड़ी,छुटी सिसकी उसकी
हिकारत से देखा उसने उसको
माँ समान माना था जिसको।
दर्पण देख अब वो रही सोच
जीवन साथी मरा उसका
नहीं उसका जीवन,
क्यूँ खत्म करूँ ख्वाहिशों को
क्यूँ मिटा डालूँ खुद को?
क्या हत्या नहीं ये"आत्म" की?
अंतर्मन के जज्बात की?
लिया उसने एक निर्णय अहम
सोच लिया तोडूंगी ,ये सामाजिक वहम
नहीं करुँगी मैं अरमानो की "ख़ुदकुशी"
देखूँगी अब" खुद की ख़ुशी"
सौभाग्य से मिलता स्त्री जन्म
संवारकर इसे लिखूंगी अपना कर्म.......
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