Monday 31 July 2023

 तुम छूट रहे मुझसे

वैसे ही जैसे 

छूट रहे हमसे

हमारे तत्सम शब्द ।


यादें तुम्हारी

भारी ,भरकम लुप्तप्राय शब्दों जैसे

बस अंतस की डिक्शनरी में 

बंद हैं कहीं।


सालों के फासलों ने

मीठे देशज शब्दों से, रिश्तों को

विदेशज शब्दों की

मुहर लगा दी है ।


चाह कर भी

नहीं आता वो नाम

जिसके उच्चारण मात्र से

भाषा की क्लिष्टता का भान हो।


मेरे भाव भी 

मेरी भाषा की तरह

 मिश्रित होकर

कहीं के न रहे।


पर,  वो हृदय के 

ताम्र पत्र पर उकेरे गए

कुछ अभिव्यक्ति 

आज भी महफूज़ है

किसी इतिहास के धरोहर की तरह


जिसे, लिखा गया था

भाषा के व्याकरण से पहले

नेह की लिपि में

प्रेम की विधा में।

मैथिली #कविता सोचू

 #मैथिली #कविता


#सोचू


जहियासँ भेल शहर आबाद

बंद भेल, बोनक संगे मानवक संवाद

गाछ वृक्ष सभ कटि रहल सगरो

के’ सुनत ,चिड़ै-चुनमुनक फरियाद।


अछि उगैत नव नस्लक फल-फसल 

द' कए बस अगबे खादे खाद

कोना क' लेतै ओ साँस

धरतीक भेलै दोहन,उर्वरता बर्बाद


प्लास्टिकसँ सभ पाटि देलक

नदी,समुन्दर ,भूमि, पहाड़

ओतहु तं हम बना देलहुँ 

मॉल ,होटल आ बाजार।


सोचै  छी, होए छी खूब प्रसन्न

ई हम भेलहुँ केहन आबाद

सूखा रहल अछि पोखरि-इनार  

नहि भ’ रहलैए ओकरा लेल कोनो संवाद ।


की भेटल, की हानि भेल

मनहिं करू किछु सोच, 

चेतू एखनो अछि समय

लुटि कए, देबै ककरा दोष!


©अनुपमा झा

 

(  बहुत हितैषी ,मित्र मैथिली में लिखै लेल प्रोत्साहित क रहल छैथ।  कोशिश क रहल छी। छोट सन कोशिश हमर 🙏)

क्षणिकाएँ

 * क्षणिकाएँ *


(1)


दुनियाँ की नज़रों में

घर का हिसाब रखनेवाली औरतें

हमेशा रहीं हैं ऊपर

अपनी खुशियों का हिसाब 

रखने वाली औरतों से।


(2)

दुनियाँ की नज़रों में

अपने सपनों को, बस

रातों में चुपके से देखने वाली औरतें

की जाती रहीं हैं सराहित

उनके मुकाबले जो 

जीती हैं अपने सपनों को ।


(3)

पुरुषों से बराबरी करने वाली औरतें

बददिमाग,बदतमीज होती हैं

सिर्फ पुरुषों के नज़रों में नहीं

कई स्त्रियों की नज़रों में भी।


(4)

पुरुष वर्ग के भद्दे मज़ाक और

हँसी ठिठोली के नाम पर 

 हास्य, व्यंगों से प्रतारित की जाती

औरतें, सिर्फ मुस्कुरा कर रह जाये

तो कहलाती हैं संस्कारी,

और पलटकर उसी लहज़े में

जवाब देने वालो को,दिया जाता है 

बेशर्मी का तमगा।


(5)

औरतों के उठते सवालिया नज़रों को 

दोहरी मानसिकता से हमेशा 

किया गया नज़रंदाज़

जिसे देख, सुन 

बस चुप्पी लगा जाना

हो गया है शुमार

औरतों की आदतों में।


(6)

खुद की ख़ुशी की खुदकशी

करने वाली औरतें रही हैं प्रशंसनीय

बहुतायत की संख्या में ,उनसे

जो देखती हैं खुद की खुशी।


(7)

*एकला चलो रे *

के राग को गा तो सकती हैं

हम औरते पर ..

अमल में लाने वाली औरतें

नहीं मानी जाती अच्छी।

©अनुपमा झा

4/6/21

संवाद

 #संवाद


मैं करना चाहती हूँ तय

चुप्पी से संवाद तक की यात्रा

शब्दों के स्वर्ण रथ पर !

पर हो गए हैं ,

राह च्युत मेरे शब्द

क्यूँ, कैसे , कब

भान ही नहीं।


आत्मचिंतन के दर्पण में

खुद को सजा,संवार

जब भी निकलना चाहा

उस यात्रा पर

एक अपरिचिता को पा

उसे संग न ले पायी ,

और बेवजह के सामान से

 इक्कठे होते गए

कुछ अवसाद ।


अनुत्तरित प्रश्नों के अरण्य में

उत्तरों की कस्तूरी को

ढूंढ़ने की चाहत

 बैचैन करती है ,

पर याद आते हैं

कबीर के शब्द

"कस्तूरी कुण्डली बसे

 मृग ढूंढें बन माहि..


और चल पड़ी हूँ

अंतस के कस्तूरी की

खोज में

कुछ शब्दों की पोटली बांध 

स्वयं से संवाद की यात्रा पर 

निश्चित गंतव्य पर

पर

कठिन  राह पर.....

#क्षणिकाएँ

 #क्षणिकाएँ 


(1)

मुझसे कहा गया 

मौन रहो

और मैंने 

लिखी कुछ कविताएँ।


(2)

मौन से ज्यादा 

वाचाल

मैने कुछ नहीं

देखा।


(3)

मुझे कहा गया

बनाओ 

अपनी कविता का चित्र

और मैंने बनाया

पिंजरे से भागी

उड़ती चिड़िया ।


(4)

अनकहे शब्दों में

छुपी होती हैं

वो सब बातें

जो बस आँखो से

देखी, पढ़ी, सुनी 

जाती है।


(5)

दिल टूटने पर

अच्छा भी होता है

जैसे बारिश के बाद 

निकला इंद्रधनुष ।


(6)

कोरे कागज

पतझड़ के मौसम 

के पेड़ से होते हैं

जिनपर लिखने के साथ

आ जाता है बसंत।


(7)

भावों की

अधिकता हो

या शून्यता

घेर लेते हैं

बहुत सारी जगह

दिलों दिमाग में ।


(8)

दुख को अगर

रंग सकते तो

मंदिर से ज्यादा भीड़

रंगरेज की दुकान

पर होती।


(9)

महुए के फूल सा

नाजुक है प्रेम

संभाल कर उठाना ,

रखना और संजोना 

पड़ता है

ताकि बना रहे उसका

मद और माधुर्य ।


-अनुपमा झा

सावन

 तप्त ,प्यासी धरा को

अपनी बूंदों से

सहलाता सावन,

सूखे शाखों को भी

सब्ज बनाता सावन

न जाने

क्यूं नहीं बना पाया 

मेरे अंतस को

हरा भरा

तुम्हारे जाने के बाद ?

यादें  दब जाती हैं 

कहीं गहरे,

जीवन की आपा धापी में

कहीं

फिर से हरा-भरा होने को,

किसी सावन के इंतजार में ,

शायद!

शायद

किसी सावन के इंतजार में ,

उगती  रहती हैं,

अजर-अमर

कोमल कोपलें,

अकुलाती रहती है

पल्लवित , 

पुष्पित होने को,

खारे पानी से 

सींचे नेह की जड़ें,

और,

बस

फैलती जाती हैं जड़ें

नेह के पन्नों पर

कभी अक्षर

कभी शब्द 

और 

कभी कविता बनकर !

जैसे ,

सावन की खिल्ली उड़ाते,

कहती हो

सब हरा नहीं होता

सावन में

पर

रंग बेरंग होकर भी 

प्यार के सतरंगी पन्ने  कुछ,

बुला लेते 

सावनी घटा,

और

बचाए रखते हैं

प्रेम को

फूलों की सी 

खुशबू  लिए

सावन-सी हरियाली लिए ।

बुद्ध

 मैंने भी सजा रखी है

घर में बुद्ध की, कुछ प्रतिमाएं

जिन्हे देख हमेशा ख्याल आता है

क्यूँ उनके आदर्शों के खिलाफ

उनको मैंने कैद कर रखा है 

शीशे के शो केस में!


मूर्ति पूजा के विरोधी की

मूर्ति ही स्थापित कर ली है !

वो मूर्तियां साक्ष्य है

बैठक में हुए 

मदिरा मांसाहार के भी

दोस्तों के संग धुएं के रंग

उठे ठहाकों के भी।

उनके विचारो से उलट

सारे काम किए जाते रहे

उनकी मूर्ति के समक्ष।

और ऐसे वक्त जब भी

नजर पड़ती उन सुंदर मूर्तियों पर

मन कभी आत्म ग्लानि से

नहीं भरा ।

कई बार झंझोरा खुद को

खुद से ही किए सवाल जवाब

पर बचपन से आजतक

बुद्ध को पर्यटक की तरह

अपने पर्यटनो में ही देखा सुना।

या फिर

दीवार ,किसी टेबल या 

दुकानों की शोभा बढ़ाते।

होटलों में

आदम कद मूर्तियां

चमकीले भड़कीले रोशनियों

में नहाई, पाश्चात्य धुनों के

शोर शराबे में 

घुंघराले बालों को 

और शांत मुस्कान 

फोकस लाइट को

झेलती  रहती -तटस्थ प्रतिमा।


बुद्ध की ,रात अंधेरे 

पत्नी पुत्र को त्याग ,

चले जाने को

बना मुद्दा , बैठा दिया गया 

शायद मन में।

सिद्धार्थ से बुद्ध की यात्रा पर उठाए 

और पूछे गए अनगिनत सवाल।

और एक अलग सी छवि बना डाली

सिद्धार्थ से बुद्ध  बनने की

यात्रा को ।

अपने अपने धर्म कर्म को ढोते

हम में से कितनो ने

सोचा विचारा और सराहा

"ॐ माने पद्मे हूं "

के मंत्र को!


हमें माफ करना बुद्ध 

आप 

एक वाद, एक प्रतीक

 और 

एक छुट्टी 

रह गए हो 

इस भीड़ और दिखावटी

दुनियाँ में!

पर आप 

महफूज हो और सदा रहोगे

कुछ गुफाओं, गुमफाओ में

जहां से एक ही रास्ता निकलता है

बुध्दम शरनम गच्छामि

धम्मम शरनम गच्छामि

संघम शरनम गच्छामि।


*अनुपमा झा*