मैंने भी सजा रखी है
घर में बुद्ध की, कुछ प्रतिमाएं
जिन्हे देख हमेशा ख्याल आता है
क्यूँ उनके आदर्शों के खिलाफ
उनको मैंने कैद कर रखा है
शीशे के शो केस में!
मूर्ति पूजा के विरोधी की
मूर्ति ही स्थापित कर ली है !
वो मूर्तियां साक्ष्य है
बैठक में हुए
मदिरा मांसाहार के भी
दोस्तों के संग धुएं के रंग
उठे ठहाकों के भी।
उनके विचारो से उलट
सारे काम किए जाते रहे
उनकी मूर्ति के समक्ष।
और ऐसे वक्त जब भी
नजर पड़ती उन सुंदर मूर्तियों पर
मन कभी आत्म ग्लानि से
नहीं भरा ।
कई बार झंझोरा खुद को
खुद से ही किए सवाल जवाब
पर बचपन से आजतक
बुद्ध को पर्यटक की तरह
अपने पर्यटनो में ही देखा सुना।
या फिर
दीवार ,किसी टेबल या
दुकानों की शोभा बढ़ाते।
होटलों में
आदम कद मूर्तियां
चमकीले भड़कीले रोशनियों
में नहाई, पाश्चात्य धुनों के
शोर शराबे में
घुंघराले बालों को
और शांत मुस्कान
फोकस लाइट को
झेलती रहती -तटस्थ प्रतिमा।
बुद्ध की ,रात अंधेरे
पत्नी पुत्र को त्याग ,
चले जाने को
बना मुद्दा , बैठा दिया गया
शायद मन में।
सिद्धार्थ से बुद्ध की यात्रा पर उठाए
और पूछे गए अनगिनत सवाल।
और एक अलग सी छवि बना डाली
सिद्धार्थ से बुद्ध बनने की
यात्रा को ।
अपने अपने धर्म कर्म को ढोते
हम में से कितनो ने
सोचा विचारा और सराहा
"ॐ माने पद्मे हूं "
के मंत्र को!
हमें माफ करना बुद्ध
आप
एक वाद, एक प्रतीक
और
एक छुट्टी
रह गए हो
इस भीड़ और दिखावटी
दुनियाँ में!
पर आप
महफूज हो और सदा रहोगे
कुछ गुफाओं, गुमफाओ में
जहां से एक ही रास्ता निकलता है
बुध्दम शरनम गच्छामि
धम्मम शरनम गच्छामि
संघम शरनम गच्छामि।
*अनुपमा झा*