Tuesday 22 September 2020

उमस

 जब

सावन मास सा उमस

दिल में उतर आता है,

पसीने से लथपथ 

बेचैन भाव

ठंढक की खोज में

पसर जाते हैं

निर्वस्त्र

सामने रखे कागज़ों पर।


कलम सोख लेता है

दिल की सारी नमी

बिल्कुल वैसे ही, जैसे

बंद उमस भरे, कमरे से

ए. सी सोख लेता है

अंदर का ताप,  उमस,

और

निकाल फेंकता है पानी बनाकर।


कागज़ पर पड़े शब्द

सकून  से मुस्कुराते हैं

उमस से छुटकारा पाकर,

पानी बनकर !

वो पानी जिसे 

सिर्फ मेरी परवाह है

सिर्फ मुझसे सरोकार

बाकियों के लिए 

बेकार....

©अनुपमा झा

Friday 11 September 2020

ऋतु परिवर्तन

 जब होता मन का ऋतु परिवर्तन

होता है तब नूतन स्पंदन

होते पुष्पित, पुष्प कल्पनाओं के,

भ्रमर करते,संगीत की गुंजन,

जब होता मन का ऋतु परिवर्तन।


नहीं वेदनाओं का होता क्रंदन

भावनायें करती,भावमय नर्तन

हर्षित मन करता ,सबका अभिनंदन

लगता प्रिय,बस प्रिय का बंधन

जब होता मन का ऋतु परिवर्तन।


सजे आँखों मे छवि मनमोहन,

भाए बस, प्रिय का अवलंबन,

लगे नैन ,उजास का अंजन,

बोलता झूठ भी,देखो दर्पण,

जब होता मन का ऋतु परिवर्तन।


 बहे मन बयार ,जैसे नंदन कानन

भरता कुलांचें, मन हिरण

तपती धूप बने,छाँव गोवर्धन

राधा सी प्रीत लिये उर बने वृन्दावन

जब होता मन का ऋतु परिवर्तन

जब होता मन का ऋतु परिवर्तन।






Tuesday 8 September 2020

मुकरियाँ

 मुकरियाँ (मुकरी) या कह-मुकरियाँ (कह-मुकरी) एक काव्य संरचना है जिसे अमीर खुसरो ने विकसित किया था और भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी खूब अच्छी लिखीं। यह दो सखियों के बीच वार्तालाप है, जिसमें नामानुसार कुछ कह कर उससे मुकर जाना होता है। इसकी पहली तीन पंक्तियों में एक सखी साजन की बात करती जान पड़ती है। चौथी पंक्ति के दो भाग होते है: प्रथम भाग में दूसरी सखी पूछती है कि क्या वह अपने साजन की बात कर रही है, और दूसरे भाग में पहली सखी चतुराई से मुकर जाती है, और एक ऐसी चीज बताती है जिसपर वही चित्रण पूरी तरह से सटीक बैठता है।

यह मेरा कह-मुकरियाँ लिखने का पहला प्रयास है। आप सबके सुझाव,संशोधन का स्वागत है।


(1) 

देख बदरिया कारी कारी,

हुई जाती चाल मतवाली,

देख उसे मन उठे हिलोर,

ऐ सखि साजन? न सखि मोर!

(2) 

सब करे इसका गुणगान,

है अतिसुन्दर बहुत महान,

प्रेम मेरा इससे अशेष,

ऐ सखि साजन? न सखि देश !

(3)

अति सुंदर रंग रंगीला,

बोली बानी चटक चटकीला,

राम नाम मे रहता खोता,

ऐ सखि साजन? न सखि तोता !

(4)

सगरे बगिया खिल खिल जाए

जब भी वो आ जाए,

है वो ऐसा चितचोर,

ऐ सखि साजन? न सखि मोर !


(5)

अपन रूप से सबके डरावत,

कभी जगावत, कभी तड़पावत,

काहे न दिखावत, यह नर्मी?

ऐ सखि साजन? न सखि गर्मी !


(6)

नित मेरे आँगन आवत है,

भोर भए फिर जावत है,

निहारे उसे हर एक बंदा ,

ऐ सखि साजन ? न सखि चंदा !


(7)

छेड़े से न आवे बाज ,

हँसी ठिठोली करे दिन रात ,

मिन्नत से कभी पसीजा ,

ऐ सखि साजन ? न सखि जीजा !


(8)

गोद बैठ मैं उसके झूमुं ,

संग उसके मैं नभ चूमूँ ,

दिन दुनियाँ जाऊँ मैं भूला

ऐ सखि साजन? न सखि झूला !


(9)

पल में तोला पल में माशा ,

नित यह बदले,ज्यों तमाशा ,

दिखलाता रहता अपना दम खम,

ऐ सखि साजन ? न सखि मौसम !


(10)

अधर लगे यह नहि छूटे ,

धर्म,ईमान सब यह लूटे ,

सब कहे इसे खराब ,

ऐ सखि साजन ? नहि शराब !


(11)

नयनन का पहरेदार बन खड़ा ,

नाकों पर भी रहता चढ़ा ,

मैं हूँ उसके वश मा ,

ऐ सखि साजन ? न सखि चश्मा !


(12)

कल्पना को मेरी हवा दे,

उदासी में मुस्कान जगा दे,

बह जाऊँ मैं उस सरिता,

ऐ सखि साजन ? न सखि कविता !

सुनो। कह दो

 सुनो

कह दो ,अपनी कविताओं से

अपनी हद में रहें,

कोई उन्हें ,बेहद चाहने लगा है।

शग़ल बन गया है 

तुम्हारी कविताओं में

ख़ुद को ढूंढना।

जबकि जानती हूँ 

नहीं होती हूँ मैं

दूर दूर तक कहीं

तुम्हारी ,कल्पनाओं में भी!

पर उन्हें बार बार पढ़ती ,

नए सिरे से उनमें अर्थ ढूंढती हूँ,

वैसे ही जैसे राजनेताओं के

भाषणों में अर्थ ढूंढता है

एक आम आदमी 

और हाथ आता उसके

सिर्फ सिफ़र....

प्रेम और चालीस पार की औरतें

 जब प्रेम कविता लिखतीं हैं

चालीस, पचास पार की औरतें

तो लगाये जाते हैं

विशेषणों के भी,विशेष अर्थ।

ढूंढी जाती है,कोई कहानी

उस कविता में!

शब्दों के

संधि तो कभी विग्रह

किये जाते हैं बारंबार।

भावों को तौल

बीते सालों से जोड़,घटा

लगाया जाता है

एक हिसाब।

और की जाती है

एक समीक्षा

उम्र की गोधूलि में

प्रेम का सूर्योदय 

प्रकृति के विरुद्ध है।

अजब गजब औरतें

 अजब गज़ब होती हैं 

गाँव वाली कुछ औरतें!

सभ्यताओं, परंपराओं की बेड़ियों में भी,

निकाल लेती हैं कुछ जुगाड़ 

और हो लेती हैं खुश...

ख़्वाहिशों की पोटली में

लगा किस्मत की गाँठ

कर लेती हैं  मन में मन से

कुछ अपनी साँठ गाँठ..

फिल्मी गाने गुनगुनाने से

मानी जाती हैं जो असभ्य

ज़ोर ज़ोर से गा लेती हैं

भक्ति भजन के गीत

उन्हीं फिल्मी धुनों पर..

और कर लेती हैं

कुछ मनमानी!

देहरी से बाहर निकलने पर

लगता है जिनपर उच्छृंखलता का तगमा

ईश्वर की छत्रछाया में

ढूंढ लेती हैं वो 

देहरी से बाहर की दुनियाँ!

मंदिरों में घूम आती हैं,

मन्नत के धागे बांध आती है,

वापस आकर खोलने को ...

अचार,पापड़,बड़ियों को

धूप दिखाती, संभाल लेती है

 साल भर के लिए

अपने मन की तरह बंद कर लेती है

फफूँद लगने से बचा लेती है।

लगा आती हैं गुहार

ईश्वर के सामने धूप,धान, बारिश का

अपने सूखे पड़े मन के ख़्वाहिशों का

दूर शहर में कमाते पति के आयु का।

बहुत अज़ब गज़ब लगती हैं

मुझे ये औरतें

नहीं भूलती ये लगाना 

सावन में मेहँदी

रोज़ भरना मांग में सिंदूर

और लगाना माथे पर बिंदी

बस अपने अस्तिव को भूल 

सब याद रखती हैं

 कुछ नहीं भूलती ये अज़ब गज़ब औरतें

अपनी ज़िन्दगी को अपने तरीके से

जीने का जुगाड़ लगाती

ये औरतें......

वसीयत

 वसीयत


कुछ विरासत की वसीयत

 है मेरे नाम

कुछ को मैं खारिज़ करती हूँ!

कुछ को सौंपुंगी

अगली पीढ़ी की स्त्रियों को,


एक बाइस्कोप है,

घूँघट के रूप में,

जिसके ओट से 

वही दिखाया,जाता रहा

जो पहले की पीढ़ियों ने

खुद देखना चाहा।

उसे कुछ सालों इस्तेमाल के बाद

एक कोने में रख दिया है,

आने वाली नस्लों

उसे हाथ न लगाना।


कमरे से बाहर,जाने को एक दरवाज़ा है

जो बस,होता है इस्तेमाल

खिड़की की तरह,

झांकने के लिए...आँगन भर

उस खिड़की, किवाड़ को

देना विस्तार,

देख आना,पूरा गाँव

दौड़ने की वसीयत,तुम्हारे नाम 

गाँव की बहुओं।


बस छत और आँगन से

न देखना चाँद ,तारों को

न निहारना,सूर्य देव को

बस तार पर कपड़े डालते।

बैठ बाहर, दालान पर

पुरुषों के साथ गिनना,

ग्रह,नक्षत्र और वर्षा के आसार!

इस सपने की वसीयत भी मेरी 

सारे गाँव की स्त्रियों के नाम।


सुनो सब दबे स्वर वालियों

अपने सुंदर स्वर को,खोलना तुम

अपनी धुन,अपनी राग के लिए।

सिर्फ सोहर,लोरी,विदाई, भजन गीत

से न करना संतोष!

गाना, अपने मन के राग भी

झूम झूम कर बेहिचक!

इस "बेहिचक" वाली आदत की

लगाना गाँठ दिल में।


और सुनो एक आखरी दरख्वास्त

बना के जाना तुम सब एक नयी वसीयत

अपने देखे अपूर्ण सपनों को

साकार करने की।

और हाँ

उड़ने के लिए आँगन नहीं

देना पूरा आकाश...बहु,बेटियों को

फिर देखना विरासत कैसे संभलती है

बिन लिखे,पढ़े कोई वसीयत।

हिंदी

 हिन्दी

लहज़ा हूँ,ज़ुबान हूँ मैं

प्राकृत-संस्कृत ज़े निकली

मिटटी की गुमान हूँ मैं

गंग-यमुनी सभ्यता से बहती

लिपि देवनागरी जिसकी

वो हिंदुस्तान की पहचान हूँ मैं!

न तुम मुझे एक विषय से बांधो

बस,मेरी मूल्य तुम आंको!

विद्वानों की विद्वता हूँ मैं

व्याकरण की संचिता हूँ मैं!

राज्य भाषा नहीं बस 

करोड़ो की मातृ भाषा हूँ मैं

जन जन 

अपने वजूद को न

होते देखूँ लुप्त

वो अभिलाषा हूँ मैं!

सजे जो भाल पर हिन्द के

वो बिंदी हूँ मैं

हिंदुस्तान की हिंदी

हूँ मैं!

संभालो मुझे किसी धरोहर सी

भाषा की विनती हूँ मैं

हिन्दी हूँ मैं

हिंदी हूँ मैं!

शायद

 **शायद**


 कुछ अनकहे शब्दों में

कुछ अधूरे छन्दों में

कुछ अधूरे से सवाल में

कुछ उलझे से ख्याल में

तुम्हारे पुराने घर की दीवारों में

टिमटिमाते सितारों में

रतजगे के आलिंगन में

मासूम से चुम्बन में,

बंद पड़े लिफाफों में

खत के अल्फ़ाज़ों में,

किसी डायरी के पन्नों में

फँसी हूँ कुछ हर्फों में,

साथ सुने गीत में

यादों के मधुर संगीत में,

तुम्हारे अच्छे, बुरे ख़्वाबों में

तुम्हारी शहर की हवाओं में

तुम्हारी आस्था और विश्वास में

तुम्हारी चढ़ती, उतरती श्वास में

तुम्हारी दर्द भरी मुस्कान में

तुम्हारी अपनी पहचान में,

तुम्हारे नेह के गुमान में

शायद

मैं अब भी बाकी हूँ 

तुम में कहीं

शायद!!!


होली

 क्या खेलूँ मैं होली

हो ली मैं तो कान्हा की

रंगी हूँ उसके प्रेम रंग

चढे न मोहे कोई दूजा रंग

कौन सा रंग लगाऊँ अंग?

सखी सहेली हैं सब संग

हँसी, ठिठोली करे हैं सब

चित्त न कुछ लगे है अब

पीत की प्रीत लगे है जब

मन है रंगा ,श्याम रंग

भाव हो रहे सतरंग

ओ अली, अलि सी गुंजन करे है मन

फाग का रंग जलाए तन

क्या खेलूँ मैं होली?

मैं तो मन मोहन की हो ली

मैं तो साँवरे की हो ली......

भ्रम

 कभी हालात कभी जज़्बातों से

जुझते रहे हम

हँसते रहे कभी,

कभी घुटते रहे हम

कभी जुड़ते,कभी टूटते रहे हम

खुली,बंद आँखो से

बस सजाते रहे सपने

कहाँ चैन से सोते रहे हम!

समझौते करते रहे

कभी अपने, कभी अपनों से

जीतते और हारते रहे हम

दुनिया की भीड़ में

खुद को ढूँढते रहे हम

वज़ूद बनाने में 

खुद का वज़ूद भूलते रहे हम

बिखेरकर खुद को

खुद ही समेटते रहे हम

कांधे पर हमारे ही

टिकी है ये दुनियाँ 

बस इसी भ्रम में

जीते रहे हम.....

वो पुराना घर

 *वो पुराना घर*


ज़ेहन में आज भी

नींव उसी की पड़ी है

सालों बाद भी

सब यादें

वहीं की वहीं धरी है।

सालों से आज तक

सपने में दिखता आया

वही पुराना मकान है

जिसका हमारे पास 

सपनों के अलावा

न कोई नामों निशान है।।

बिक चुका है वो

फिर किसने दिया उसे अधिकार

जो कर लेता है

मेरे सपनों पर इख्तियार

क्यूँ देता है वो आज भी

मायके वाला प्यार?

आज भी नींद में

आराम से टाप जाती हूँ

वो घर की सत्रह सीढ़ियाँ

जहाँ देखी है हमने

 घर की चार पीढ़ियाँ

सुनी थी जहाँ

कभी सोहर कभी लोरियाँ।

छत पर जो सूखते थे

क़रीने से ढ़ेरों कपड़े

बन गयी हैं शायद

वो गीली लकड़ियां

यादों की आंच से सुलगती

वो लम्हों की कड़ियाँ

साफ दिखती जिसके धुएँ में

यूँ की यूँ गुज़रती सदियाँ।

फलों से लदे पेड़

पता नहीं हैं या नहीं

नहीं चाहती उन्हें याद करना

पर सपने में उग आता है

मुझमें फलों सा लद जाता है

उसकी मिठास में डूब जाती हूँ

फिर चाहकर भी 

आँखे नही खोल पाती हूँ।

शायद

पेड़ के साथ

जड़े भी मुझपर हावी हैं

आज भी वर्तमान से ज्यादा

भूत मुझमें बाकी है

नींद में ही सही

उस घर का हर कोना

घूम आती हूँ

अपना बचपन,अपना लड़कपन

फिर जी जाती हूँ

सपने में मायके का 

सूकून पाती हूँ।।



श्रृंगार

 नहीं करती मैं श्रृंगार

नहीं भाता मुझे फूल हार

नैनों के काजल

फैल नीर संग

पीर दिल की 

कह जाते हैं

व्यथा मन की मेरे

पूरे जग को सुनाते हैं।

नहीं लगाती कुमकुम,बिंदी

फैल तकिये पर जाती है

बेचैनी का मेरे वो

हाल सबको सुनाती है।

नहीं सुहाती खनकती चूड़ियाँ

रतजगे का मेरे

करती वो इज़हार

गिन गिन उनको करती मैं

प्रात का इंतज़ार

ये मुई पायल भी 

कहाँ मुझे भाती है

विरह वेदना मेरी

छम छम कर 

यह और बढ़ाती है

नहीं भाता मुझे

प्रिय तुम बिन 

कोई भी श्रृंगार

न ही भाते

फूल भी कोई 

गुलमोहर,गुलाब या कचनार

आवृत तुम्हारी नेह,से मैं

क्या करूँ कोई भी श्रृंगार

बस लेने से नाम,तुम्हारा

आती जो चेहरे पर लालिमा

रक्तिम आभा सी

 जाती है फैल

बस यही मेरा श्रृंगार

बस यही मेरा श्रृंगार

सुंदर काली स्त्री

 जरूरी नहीं

सब गोरी स्त्री सुंदर हो

कुछ काली भी होती है

मन के मिट्टी पर 

कल्पना के कपास उगाती है,

और

उड़ा देती है

अपने शब्दों को

फाहे में संभाल

आसमां की ओर

कभी 

संभाल लेता है आसमां

उन वजूदों को

कभी

 बरस भी जाता है

 आदतन

और फिर 

दब जाती हैं

हो जाती हैं भारी

वो सुंदर ,काली स्त्री.....



कलम का इनकार

 आज कलम ने 

कविता लिखने से किया इनकार

 कहा उसने 

आदत डाल लो

न लिखने की 

खत्म होते पेड़ो को संभाल लो

खत्म होते कागज़ों को संभाल लो

हर रोड पर पड़े कागज़ी इश्तेहार में

मेरे मरने की ही तो खबर है

रौंदे जाते हो जिन्हें ,बेरहमी से तुम

मेरे नए निर्माण की फिक्र है तुम्हें?

कहाँ से लाओगे कागज़ तुम?

मत लिखो कविता पेड़ों पर

क्यों लिख रहे विलुप्त होते धन पर?

कविता तो लिखी जाती है 

नव किसलयों पर

वसंत पर

पत्तियों की हरीतिमा पर

फूलों पर

फूलों पर आती 

तितलियों पर

पेड़ो की छांव पर

उससे बंधे झूलों पर

पेड़ो को साक्ष्य बनाकर

सुने गए अनगिनत 

प्रेम निवेदन पर!

जब पेड़ ही न रहने वाले तो

क्यों उगा रहे अपनी पंक्तियां इनपर?

उगाना ही है अगर,

 तो उगाओ

अपने शब्दों जितने पेड़

आने दो हवा।

नई नस्लों को दो,

साँस लेने वाला माहौल!

फलों को चखने दो,उन्हें

पेड़ से तोड़कर खाने दो,

खेलने दो उन्हें पेड़ो की छांव में

फिर उनकी हंसी में 

देखो कविता

लिखो कविता

गाओ कविता

ऐसे मुझो मिलो तुम

 उदास सर्दियों की,लंबी शाम में

अचानक से

पुरानी डायरियों के बीच

मिल जाती है,बरसों पहले लिखी,

 कोई कविता जैसे

वैसे मुझे मिलो तुम।


बरसों बाद किसी अनजान शहर में

मिल जाये बचपन का दोस्त कोई

उस पल में मिली  खुशी जैसे

वैसे मुझे मिलो तुम।


गर्मियों की ठहरी दोपहरी में

बंद कमरे में,गुलज़ार के नज़्म

पढ़ते सकूँ जैसे

वैसे मुझे मिलो तुम।


गोधूलि के सिंदूरी आभा में

सुरमई धड़कनों के संग

शाम,प्रतीक्षारत रहती है जैसे

वैसे मुझे मिलो तुम।


दिन,रात की बेचैनी को

अपने आगोश में

क्षितिज समेटता है जैसे

वैसे मुझे मिलो तुम।

आँखे बंद हो मेरी, और

तुम आ जाओ अचानक 

 पीछे से "धप्पा"

"ढूंढ़ लिया तुम्हें " कहते

ऐसे मुझे मिलो तुम

फिर कभी न बिछड़ने के लिए.......

रतजगा

 #रतजगा


क्यूँ आ जाती है

तुम्हारी यादें?

बिना कुछ बताए

दबे पाँव-बेखटक!

रतजगे का मेरे

जैसे करती,इंतज़ार वो

और आती है तो जाती नहीं

कुछ चिपकू रिश्तेदार जैसे,

मेरे गम,मेरे ख़ुशियों से

कोई सरोकार,नहीं उसे

बस,आ जाती है

चुपके से-बेखटक!

मेरी अधमुंदी सी आँखो में

पढ़ लेती है

मेरी,अनकही बात

और याद दिला देती है

कुछ अधूरी,कुछ पूरी मुलाक़ात!

उठ,बैठ जाती हूँ फिर

उकेरने लगती हूँ,अपने जज़्बात!

पर,ये कागज़,मसी भी

नहीं देते मेरा साथ

विरह,लिखना चाहती हूँ

पर,प्रेम लिख जाती हूँ

मौन,होकर भी

वाचाल हो जाती हूँ!

लफ़्ज़ों में मेरे

कुछ यादें ही

चादर ओढ़े होती है

कुछ,गुज़रे वक़्त का

एतबार लिए होती हैं।

रतजगे का मेरे वो

इंतज़ार करती मिलती हैं

अधमुंदी,अधसोयी, आँखो में

बेखटक, किसी के आने का

गुमान लिए फिरती हैं.....

शहर



भीड़ ही भीड़ हर जगह

फिर भी तन्हा सा ये शहर

इमारतों के पीछे छुपा चाँद,सूरज

पता नहीं, कब होती रात यहाँ

कब होती है सहर?


बेहतरी की तलाश में

ख़्वाहिशों का यहाँ, भागता घोड़ा बेलगाम

लम्बी सड़क सी,अन्तहीन

ख़्वाहिशों का सफर ये शहर


खुद की परेशानियों में उलझे सब

हाल गैरों के,पूछने की फुर्सत कब

अपनेपन को तरसता ये शहर

अकेलेपन में बसता ये शहर!


न चबूतरा न खलिहान

चारों ओर बस मकान ही मकान

चारदीवारों में अपने,कैद सा इंसान

एक उन्मुक्त कैद सा ये शहर!


गाँव छोड़ आते जो,सपनों की गठरी बाँध

अपने अन्तहीन जरूरतों से परेशान

कभी होते सफल,कभी नाकाम

उम्मीदों के दीये,जलाता ये शहर!


एक अधूरी पहचान सा

 नाम सबका गुमनाम सा

गुमनानी में खुद को तलाशता ये शहर

सबके दिलों में फिर भी,रचता, बसता सा ये शहर


कुछ ज़मीनी हक़ीक़तों से दूर भागता ये शहर

अधुनिकता के नक़ाब से खुद को छुपाता ये शहर

डूबते सपने रोज़ यहाँ

उम्मीदों के पुल, बाँधता ये शहर

भीड़ ही भीड़ हर जगह

फ़िर भी कितना तन्हा सा है ये शहर.....


©अनुपमा झा

साजिश

 #साज़िश


मिलती,जुलती इच्छाएँ

मिलती,जुलती भावनाएँ

कुछ आशाओं को देती जन्म।


कुछ परिभाषाएँ मिल जाती

जीवन से,जीवन में

फिर होता उत्पन्न

एक रिश्ता-रूहानी सा।


कुछ अनकहे को समझ लेना

कुछ अनलिखे को पढ़ लेना

और जाना जुड़

ऐसे ही नहीं होता।


तय होता है -सबकुछ

जन्म, परिणय, मृत्यु से परे

एक बंधन

जो बंधते हैं

हर जन्म में

कभी तारे बनकर

कभी हम-तुम बनकर।

सब साज़िश है

तयशुदा आसमानी साज़िश

सारे ग्रह-नक्षत्रों ने की है मिलकर

एक आसमानी साज़िश

आकाश गंगा को साक्ष्य बनाकर

हमे- तुम्हें मिलाकर

है ना??

(#दोस्तो के नाम)

©अनुपमा झा

🌷🌷🌷🌷🌷

वहम

 वहमी हूँ मैं

हाँ, वहम पाल रखा है,

तुम्हारे होने का,

होता है एहसास,

तुम्हारे शब्दों का,

तुम्हारे छुअन का,

जो कहा नहीं तुमने

उन बातों को सुनने का,

और खुद,मुस्कुराने का

पता है लाईलाज है यह मर्ज़

कल्पनाओं की अद्भुत दुनियाँ में 

एकांत में

तुमसे वो सब कह देना

जो कभी न कह पाई

सब कितना सहज हो जाता है

इस मर्ज़ में!

पर जानती हूँ

और मानती हूँ

कुछ भी अकारण नही होता

इस ब्रह्मांड में।

इस वहम में भी

प्रजनन का बीज 

 होता है छुपा।

प्रसव की पीड़ा लिए

पैदा हो जाती हैं कुछ कविताएँ

कुछ हँसती, खेलती हैं

कुछ छुप या मर जाती हैं....

किसी के पढ़े जाने के डर से...

©अनुपमा झा

पर्यावरण संवाद

 #पर्यावरण #पर्यावरणदिवस


1*पेड़*


मत काटो मुझे

मत काटो मेरी बाहें

मेरी डालो को,

जटा बन आये

मेरे जड़ बालों को

बैठो,खेलो,कूदो

बाहों पर मेरे लगा लो झूले

बैठ जिसमे आसमाँ तू छू ले

ताज़ी हवा के घूँट कुछ भर ले

जी ले,बचपन,लड़कपन, जवानी

बुढापा,सब मेरे संग

लगने दो चौपाल

मेरे छाँव तले

देखो, न यहाँ

किसी का तन जले!

बनने दो घोंसला

सुनो तुम भी कलरव

न बनने दो,

वृक्ष बिन,यह जग नीरव


2 *हवा*

सुवासित बयार था मैं

स्वतंत्र, स्वछंद

अल्हड़,मगन,मस्त

खुश्बू लेकर आता था

मौसम का हाल सुनाता था

हर मौसम की 

अपनी खुशबू थी

हर मौसम की

अपनी मौसिकी थी।

जाने कहाँ खो गयी

कंक्रीट जंगलों में

वसंत भी कहीं छुप गयी


3*नदियाँ*

सदियों से बहती आयी हूँ

युगों युगों से प्यास बुझाती आयी हूँ

पूजिता रही सदैव

पीड़िता बन बैठा हूँ।

बना दिया मुझे

गंदे निष्कासन का गर्भ

बस होती हैं बातें

बड़ी बड़ी इस संदर्भ

खत्म होने के कगार पर हूँ

माँग रही सबसे भिक्षा

कर लो जल संरक्षण 

बस यही मेरी छोटी सी

तुम मनुष्यों से अपेक्षा।


4*पहाड़*

ऊँचा, महान,विशाल

यही थी मेरी पहचान

आधुनिकता की होड़ में

गुम हो रहा अस्तित्व मेरा

न कोई कर रहा मेरा सम्मान।

काट ,गिरा,ध्वस्त 

दिखा रहे,प्रगति का ज्ञान

दुखी है तुम सबसे 

ये पर्यावरण

सुन ले ए इंसान।


5*इंसान*

मूर्त बना सब देख रहा

पर्यावरण का हाल

एक दूजे को देकर दोष

आधुनिकता की होड़ में

हो रहा खुशहाल।

प्रेम

 प्रेम


वो नहीं जानती

किसी गुलज़ार या अमृता को

ना ही सुने, पढ़े हैं उसने

ग़ालिब या मीर के शेर

नहीं जानती वो बयाँ करना

मुहब्बत को किसी अल्फ़ाज़ में

वो बस चाहती है जीना

मुहब्बत से मुहब्बत के लिए।


देखा है उसने सिनेमा में

मुहब्बत के कई रंगों को

पर कल्पना की उड़ान भर

ईंट, पत्थरों को ढोते उसके हाथ

बस देखते हैं उन

ईंटो से घर बनाते उन हाथों को 

और हो जाती है

वो आश्वस्त अपनी 

छत के लिए।


उसकी बड़ी-बड़ी निश्छल आँखें

ढूँढती हैं बहाने

ईंटो के लेन देन में

छूने को उसके हाथ

और छूकर उन्हें

वो ढूंढ लेती है

प्रेम के लिए एक ठोस सतह।


हरे-भरे खेतों से गुज़रते

पतली सी पगडंडी में

अठरंगी सपने देखती

वो लड़की करती है 

उस मजबूत हाथ वाले लड़के का इंतज़ार

जिसने कोई वादा नहीं किया

न दिया तोहफे में कुछ

अपनी मुस्कानों के आश्वासन के सिवा....

पर वो लड़की जानती है

और करती है, उन आँखों का भरोसा

जो उस लड़के के हाथ के 

पकड़ सी मजबूत है।

और यकीन है उसे 

प्रेम में यही,

सबसे ज्यादा ज़रूरी है.....

किसी लिखित अनुबंध से ज्यादा....


समीकरण

 प्रेम में पड़ी लडक़ी

नहीं देखना चाहती जीवन में

किसी तरह की विषमता।

ज़िन्दगी को जीना चाहती है

कविताओं के समीकरण से।

भागती हैं दूर गणित से,

नहीं भाता उसे

घटाव,भाग करना प्रेम में।

दो समानांतर रेखाओ के बीच

चलती दो ज़िन्दगियों को भी

समझ लेती है एक!

और कर बैठती हैं उम्मीद 

एक बिंदु पर,मिलने की।

चार हथेलियों की रेखाओं को

गिनती हैं एक

और,करने लगती है

अपने प्रेम को गुणित - एक से।

ज्यामितिय आकारों में भी

ढूंढ लेती हैं, प्रेम के आकार

और घूमती रहती हैं

 वृत की परिधि पर,

कुछ सपने संजोकर।

पर घूमती परिस्थितियों की परिधि पर

यथार्थ का जीवन प्रश्न देख

गणित से भागने वाली लड़की

सारे असमानताओं वाले

समीकरण सुलझा लेती है

आरे,तिरछे रिश्तों की रेखाओं को

जोड़,घटाव,गुणा,भाग से

हल कर जीवन का

शेषफल निकाल लेती है....

© अनुपमा झा

मज़दूर

 जिसे किया जा रहा अनदेखा 

बस वही अदना मजदूर, हूँ मैं

चुनाव की आन,बान शान 

संसद का मुद्दा,महान हूँ मैं।


ज़िन्दगी और मौत कंधे पर ढोए हमने

खून से सड़कों पर निशान बनाया है

नंगे पाँव, नाप गए राज्यों के सरहदों को

हमें न किसी ने अपनाया है,

हिम्मत और जुनून का ज़िंदा मिसाल हूँ मैं

पर,बस अदना मजदूर हूँ मैं।


राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं का

खुशबुदार पुष्पमाल हूँ मैं

विधानसभा,संसद में गूंजती

गरीबी की जयकार हूँ मैं

पैकेजों की घोषणाओं में होता

अग्रणी नाम जिसका

वो पहचान हूँ मैं

पर,बस अदना मजदूर हूँ मैं।


मारा न था,अबतक बीमारी ने

पर मारा बेरोजगारी ने

अंधकारमय भविष्य की लाचारी ने!

सूझा फिर एक छाँव अपना,

याद आया फिर गाँव अपना,

दो जून रोटी की खातिर

मैं भी तुम सब जैसे,शहर गया

क्या मैंने कोई गुनाह किया?

तुम सब जैसे बस,इंसान हूँ मैं!

बस अदना मजदूर हूँ मैं।


ज़ेहन में कौंधता

 एक सवाल पूछता हूँ मैं,

क्या बस प्रवासी हूँ मैं?

प्रान्तों गाँवो में बंटा

बिहारी,गुजराती, उड़ीया, राजस्थानी हूँ मैं?

जानता हूँ,गरीब,लाचार हूँ मैं

आपकी नज़रों में बेमानी हूँ मैं

 पर क्या नहीं हिंदुस्तानी हूँ मैं?

क्या नहीं हिंदुस्तानी हूँ मैं?

©अनुपमा झा



सावन

 सावन


आसमान में छाए बदरिया

मोहे गरज,गरज डराए बिजुरिया,

अब तो ,आजा मोरे साँवरिया,

यह सावन मुझे ,सताए है।


सूनी सेज डंसे हैं मोहे

पीर हिया की

कैसे समझाऊँ तोहे

राह तकत, नैन यह कैसे

देखो गए पथराए हैं।


ताकूँ हर राह,डगरिया

पूछू पता हर बाट, बटोहिया

प्रेम रंग है यह साँवरिया,

न कहना तू,मोहे बावरिया

कोयल,मोर,पपीहा सब

देखो मुझे चिढ़ाए है।


आसमान में छाए बदरिया

मोहे गरज,गरज डराए बिजुरिया

अब तो आजा मोरे साँवरिया

यह सावन मुझे सताए है…

यह सावन मुझे सताए है…

©अनुपमा झा

Monday 7 September 2020

इंतज़ार

 मन का आँगन ,लीपे बैठी हूँ

देहरी पर दीप जलाये बैठी हूँ।


उम्मीद वाली जुगनुओं को

आँखों में सजाए बैठी हूँ।


उमस भरे दिवस के अवसान पर

बावली हवाओं को संभाले बैठी हूँ।


नेह सागर से कितने ही

यादों के सीप बटोरे बैठी हूँ।


आ जाओ अब कि मरु में

गुलमोहर,अमलतास के रंग लिए बैठी हूँ।

©Anupama Jha


नमक वाला प्यार

 विदा हो रही

बेटी के साथ

माँ बाँधती है

सब मीठा,

ताकि बनी रहे, मिठास

ज़िन्दगी में भी

मायके से भी!

पर बेटियाँ

बाँध लेती हैं

कुछ नमक ,

बिना कुछ कहे,किसी से,

समेट लेती हैं उनको आँखो में

चुपके से….


घुलता रहता है

मीठी ज़िन्दगी के बीच वो नमक

जिसे संजोती हैं बेटियाँ

बड़े जतन से,छुटपन से ही

जब से सुनी थी उसने

एक राजा और उसकी राजकुमारी वाली कहानी

"पिताजी मैं आपको नमक से भी 

ज्यादा प्यार करती हूँ"


आँखों में छुपाये नमक

गालों को छूकर

जब होंठ तक पहुँचते हैं

कर लेती हैं बेटियाँ, महसूस 

नमक वाला प्यार

अपने पिता के लिए

मीठी मीठी ज़िन्दगी में…

कभी भी,कहीं भी...

©Anupama Jha

मेघदूत

 मेघाच्छन्न नभ को देख

न जाने क्यूँ

हमेशा याद आता है

मेघदूत के श्लोक

और फिर उभरते हैं

बरसों से उमड़ते घुमड़ते

वही ख़्याल


क्या कोई कर सकता है

इतनी शिद्दत से इतना प्रेम?

बस,कवि की कल्पना मात्र 

ही तो है यह प्रेम !


पर सच कहूँ?

ढूंढती हूँ आज भी

घुमड़ते बादलों में

कोई प्रेषित संदेश

मुझे ढूँढती हुई

तुम्हारा संदेश लेकर!


तुम्हारे उस अंतिम खत 

का इंतज़ार आज भी है

जिसमें शायद कोई तो

जिक्र हो, तुम्हारी मजबूरियों का

या शायद, मुझे अंतर्यामी समझा तुमने!


कहीं पढ़ा है

हर स्त्री में एक शिव बसता है

सो,पी गयी गरल,!

गौतम में भी कहाँ थी हिम्मत

कुछ बता कर जाने की यशोधरा को!


पर दौड़ता, भागता, छुपता मेघ

शायद तुम्हारी याद दिलाता है

इसलिए लगा बैठती हूँ 

एक उम्मीद किसी संदेश की!


पर कल्पना की सोच पर

हकीकत की चमकती बिजली

अपने ज़ोरदार गरज से 

अपनी मीठी बूंदों के साथ

जज़्ब कर लेती है

कुछ नमकीन बूंदे भी,

प्यासी धरती में।

और मेघदूत की कल्पना

दब जाती है,मिट्टी में

होने को मिट्टी

मेरे प्रेम की तरह

तुम्हारे लिखे कुछ खतों की तरह….

मछलियाँ

 #मछलियाँ


नहीं रहती,

पानी में कुछ मछलियाँ

कहीं घर नहीं होता उनका,

न झील, न नदियाँ

न पोखर, न समंदर,

हर जगह ,

मछुआरों की मौज़ूदगी,का डर


और इसलिए सदियों से

ढूंढ रही है मछलियाँ

अपने लिए ,महफूज़ जगह

पर

पकड़ी जाती हैं

कभी किसी के बनाये 

कांटे में

कभी ,बिछाए जाल में।


कभी कोई हिम्मती मछली

वज़ूद की तलाश में 

पहुँच जाती है

धरती की सतह के असपास

तो पकड़ ली जाती है

यूँ ही,किसी हाथ से।


कभी मार दी जाती हैं

कभी छोड़ दी जाती हैं,

एक सुंदर से,

एक्वेरियम के अंदर

स्वतंत्रता से विचरने को।

और सोचने को मछलियों को

पानी और मछली पर्याय है

तो फिर

कौन सा पानी अपना है?

कौन सा पानी अपना है?

साहित्याकाश

 * साहित्याकाश *


साहित्याकाश में चमक रहे 

असंख्य सितारे हैं

काव्यों को नमन इनके

ये गौरव हमारे हैं

रश्मियाँ निकलती हैं "रश्मिरथी" से

"उर्वशी" से होता सौंदर्य श्रृंगार है

फूँका राष्ट्रीय चेतना जिनकी कलम ने

वो "दिनकर" की किताब है।


"खड़ी बोली" से सजी जो कविता

वो "गुप्त जी" की रचना है

करते अलग रूपों में जो

"उर्मिला""शकुंतला" की कल्पना हैं।


"छायावादी""निराला" का लेखन निराला

कथा,काव्य,नाट्य, जीवनी

सब था इन्होंने लिख डाला

"मैं" की शैली अपनाकर इन्होंने

कविता को छंदो से मुक्त किया

अपनी लेखनी अपनी कल्पना को जीवंत किया


सहज,सरल शब्दों में "बच्चन" ने

जीवन दर्शन कह डाला

"मधुशाला" के ज़रिए घूँट जीवन का पिला डाला

लहरों, छन्दों संग हुआ "हालावाद" का प्रवेश

फिर निकलीं कविताएँ अनेक।


मनु और श्रद्धा के पात्र में

सृष्टि का सार लिख डाला

चिन्ता से आनंद तक

बस पंद्रह सर्गों में

"जयशंकर जी" ने महा काव्य रच डाला

मानव सृष्टि दर्शन कि अद्भुत

ग्रंथ यह "कामायनी" है

कृति यह उनकी,अंतिम लेखनी है।


मानव और प्रकृति के सौंदर्य को

"पंत जी" ने क्या खूब किया है बयान

सारे उपमाओं, अलंकारों को

अपनी कविताओं में दिया स्थान।


"महादेवी" वेदनामय काव्य की जननी

हैं वियोग और श्रृंगार जिनकी लेखनी

काव्यों से इनकी 

फूटती भावों की धार ऐसी

जैसे बहे कोई निर्झरिणी।


हिंदाकाश में चमकते सारे

तारों को कहाँ मैं गिन पाऊँगी

उम्र गुजर जाएगी

सारों को न लिख पाऊँगी।

नमन साहित्याकाश के सब तारो को

जगमगाते उनके काव्य सितारों को।।।।

©अनुपमा झा

नहीं आसान बुद्ध होना



तुमसे मिलना मानो,

यादों की मिट्टी पर

उग आए विशाल दरख़्त की 

छाँव के नीचे बैठना।

अपनी नेह वृष्टि से भी जिसे

कहाँ भिगो पाती हूँ मैं!

बूंदे इधर उधर बिखर जाती हैं,

हर बार लगता है

तुम्हारे मन का कोई कोना

फिर रह गया सूखा....


कई बार अपने शब्दों से

तूफान सी बनकर

झंझोड़ने की कोशिश करती हूँ,

बस झड़ जाते हैं

इक्का, दुक्का शब्द तुम्हारे

पीत वर्णी पत्तों जैसे....

सारी कोशिशें हो जाती हैं नाकाम

जब तुम बस मुस्कुरा कर 

टाल जाते हो - सबकुछ


कई बार

एक छोटी सी चिड़िया बनकर

फुदकती हूँ, तुम्हारे दरख्तों पर

जो अपना घोंसला तो न बना पाई

इस वृक्ष पर 

पर बैठ जाती है

इसपर, आकर पता नही 

किस अधिपत्य से?


दिल करता है 

सच बहुत दिल करता है

वज़ूद में तुम्हारे

हो जाऊँ एकाकार 

ओस की बूंदों जैसी

जिसे कोई देख भी न पाए

पर फिर याद आते हैं

तुम्हारे  कहे शब्द


दिल का क्या है?

न मरती हैं न भरती हैं

इसकी अनंत इच्छाएं!

पर कैसे कहूँ तुम्हे 

बुद्ध बनना इतना आसान है क्या?


©Anupama jha

Friday 4 September 2020

तर्पण

 मृत्यु,

एक शाश्वत सत्य है,

समय रुकता नहीं,

वक्त थमता नहीं,

सब जानती हूँ!

पर खुद को

समझा नहीं पायी 

आजतक!


पाँच साल  होने को आ रहा

पर आज भी, आपको याद कर

दिल रोज़ कुम्हलाता है।

"नही हो आप"

कितनी बार खुद को

समझाती हूँ

पर नहीं समझ पाती हूँ।


सुना यही है बचपन से

अपनों से मिलने पितर हमारे

स्वर्गलोक से आते हैं,

अपनों से श्राद्ध ग्रहण कर 

आशीष हमें दे जाते हैं!

आदित्य,रुद्र,वसु यह तीन

श्राद्ध के देव कहलाते हैं!

हुए संतुष्ट अगर वो

फिर पितर मुक्ति पाते हैं!


नहीं विरोध इन बातों से

पर ,आना आपका 

बस एक बार?

नहीं स्वीकार पाती हूँ।

हर वक़्त इर्दगिर्द आपको, 

मैं संग अपने, पाती हूँ।

हर  रचना अपनी

समर्पित आपको कर जाती हूँ।

प्रतिक्रिया पहली, आपकी चाहती हूँ।

पर

गलतियों और शाबाशी 

के प्रतीक्षा में 

अब बस

शून्य ताका करती हूँ।

स्पर्श आपका माथे पर

अब भी महसूस 

किया करती हूँ!


चल रहा पितरों का,

हमारे अपनों का

श्राद्ध - तर्पण,

बिन जल,कुश तिल

कर रही मैं

अपनी संवेदनाये,

अपनी लेखनी

आपको अर्पण!

बेटी का आपके

बस यही तर्पण

बस यही तर्पण......







Tuesday 1 September 2020

ज़िंदगी

 खुशियों से बस नहीं चलती है ज़िन्दगी

 ज़िन्दा रहने के लिए चाहिए ग़मो का दौर भी!


भाग भाग कर न जियो अपनी ज़िन्दगी

खुशियों को पनपने के लिए चाहिये, एक ठौर भी


फेंकने से पहले, खाने को देख लो

लाखों  हैं जिन्हें मिलता नहीं, एक कौर भी


चलती नहीँ ज़िंदगी, बस प्यार के सहारे

चाहिए जीने के लिए, ज़ुनून कुछ और भी!


क्या खोया ? क्या पाया, ज़िंदगी की शाम में

 करना कभी ,इन बातों पर गौर भी!