Tuesday 6 March 2018

होली

क्या खेलूँ मैं होली
हो ली मैं तो कान्हा की
रंगी हूँ उसके प्रेम रंग
चढ़े न मोहे कोई दूजा रंग
कौन सा रंग लगाऊँ अंग?
सखी सहेली हैं सब संग
हँसी, ठिठोली करे है सब
चित्त न कुछ लगे है अब
पीत का प्रीत लगे है जब
मन है रंगा श्याम रंग
भाव हो रहे सतरंग
ओ अली, अलि सी गुंजन करे है मन
फ़ाग का रंग जलाए तन
क्या खेलूँ मैं होली?
मैं तो मन मोहन की हो ली
मैं तो साँवरे की हो ली.....

लकीर

फँसी हूँ हाथ में खींचे
लकीरों के गणित में
पता नहीं, दो समानान्तर रेखा
क्या कहना चाहती है
कोने में बना त्रिकोण
क्या समझाना चाहता है
एक सीधी सपाट रेखा भी है
उसे छूती एक वक्र रेखा भी
कुछ काटती,कुछ सितारों सा बनाती
क्या सच मे
करती है बयाँ
ज़िन्दगी के उतार- चढ़ाव
जोड़ -घटाव?
ज़िन्दगी में आते -जाते बदलाव?
ये लकीरें, रिश्तों की
ये लकीरें ज़िन्दगी की
क्यूँकर जुड़ते टूटने को
होते विभक्त, गुणित होते कभी
क्या दर्शन समझा जाते?
समीकरण ज़िन्दगी का सारा
क्या सच मे
इस छोटी सी हथेली में समा जाते?
कभी समझ नहीं आया हिसाब
ज़िन्दगी का,दिल का
या इस छोटी सी हथेली में
फैले गहरी लकीरों का !
जहाँ जुड़कर भी सब
घटता, बढ़ता रहता है
कुछ नया बनता
कुछ पुराना मिटता रहता है
और भाग का भागफल
तकदीर के नाम,होता है!!