Wednesday 30 October 2013

कर्म

डलती है नींव, बचपन में,
सच- झूठ की
 फिर ऊम्र के साथ
बढता है हमारा दायरा
             और
बातें करते हैं हम
 पाप- पुण्य की
धर्म -अधर्म की
कर्म -अकर्म की
          पर
क्या करने से बातें
मिलती है शांति मन की?
क्या धर्म क्या अधर्म है ?
जीवन में कई
अनसुलझे मर्म हैं
जिसे करने से हो
मन हर्षित ,पुलकित
मेरे लिए तो बस
वही सच्चा कर्म है ......... 

Saturday 26 October 2013

अंतर्सुर


अक्सर हम
अनसुनी कर देते हैं
अपनी अंदरुनी  आवाज़ को ,
बना लेते हैं ,अपना संगीत
दुनियादारी के राग को .........
मिलाते रहते हैं अपना सुर
सबके सुरों के साथ ,
और बजाते रहते हैं
उनके ही साज़  को .....
देते हैं तसल्ली खुद को ,गाकर
"यही है ज़िन्दगी ,यही है दुनियादारी
जिसे निभाने में ही है समझदारी "
और बस आलापते रहते हैं
इसी आलाप को ......
डूबे रहते हैं हम
रोज़मर्रा के रियाज़ो में
और भूल बैठते हैं
अपने ही उद्गार को ,
कभी निकल जाती है
उम्र कभी सदियाँ
सुनने में अपने ही
दिल की आवाज़ को
सुन लेते हैं जिस दिन
अपनी अंदरुनी आवाज़ को
निकल पड़ती है सरगम
और समझ जाते हैं हम
अपने अंतर्मन के सुर- ताल को
और चल पड़ते हैं
एक नए आग़ाज़ को .........

Tuesday 22 October 2013

ख़त

पुराने खतों को निकाल कर बैठी हूँ ,
यादों के अम्बार पर बैठी हूँ,
तब्दील हो गया है
अतीत  वर्तमान  में,
मैं उसकी रौशनी मे
नहा कर बैठी हूँ..
हर ख़त का अपना किस्सा है
हम दोनों का अपना हिस्सा है ,
आज उन किस्सों को ,
सुनने बैठी हूँ
पुराने खतों को निकाल कर बैठी हूँ ...
हर एक बात लिखा करती थी ,
हर अफसाना बयां करती थी ,
जुदाई के छण हो या
मिलने की आकुलता,
सबको शब्दों मे, उतारा करती थी
अपनी परेशानियां, अपनी नादानिया
सब तुम तक पहुंचाया करती थी
बिन सोचे -समझे ,कुछ भी लिख जाया करती थी
मन के भावों को ,ख़त से ही
तुमसे बाटां करती थी,
बेटे के बढ़ते पहले कदम की ,
उसके पहले बोले शब्द की,
उसकी किलकारी, उसकी शैतानी
सब तुमसे ऐसे ही तो, बांटी थी
उसकी सारी बातें ऐसे ही
तुम तक पहुंचाया करती थी,
तुम्हारे खतों से ,तुम्हारे शब्दों से
कितने ही अनदेखे जगह
अपने -अपने से हैं
कितने ही पहाड़ों और पगडण्डीयों
की राह, जाने पहचाने से हैं.
हजारों मिलों की दूरियाँ
मिटा देती थी ये ख़त, जिन्हें
आज फिर निकाल कर बैठी हूँ........
खतों से जीवंत हो गए हैं
जैसे गुजरे पल
कई अवसादों के पल
कई उन्मादों के पल
आज सभी पलों को कुरेदने बैठी हूँ
भूले-बिसरे पलों को
पन्नों मे संभाल कर बैठी हूँ
नए आज में, नए साधन में
ख़त हो गया है गुजरा कल
बस उन्ही गुजरे कल को
सजीव कर बैठी हूँ
पुराने खतों को निकाल कर बैठी हूँ
यादों के अम्बार पर बैठी हूँ .................
 


Friday 18 October 2013

रिश्ता -एक ज़ेवर

होते हैं रिश्ते जेवर  की तरह
जिन्हें हम सँभालते हैं
धरोहर की तरह
कभी पहनते ज्यादा
किसी जेवर को ,
कभी सम्भाल कर रख देते हैं ,
बस कभी नज़र भर देख
उसे संजो  कर रख लेते हैं ,
लद जाते हैं कभी ,
जेवरों के बोझ तले
फिर भी पहनते रहते हैं ,
दिखाते हैं अपनी संपूर्णता
और उसे झेलते रहते हैं ,
कभी असली ,कभी नक़ली
जेवरों को ढ़ोते फिरते हैं
कभी किसी मनपसन्द जेवर से
खुद को सँवारकर
ज़िन्दगी सजा लेते हैं,
कभी किसी जेवर को
बंद कर तिजोरी मे
ऊम्र गुजार देते हैं.......

Monday 14 October 2013

मौन

मौन की  अपनी एक भाषा है ,
एक अपनी परिभाषा है ,
कुछ न  कहकर भी
बहुत कुछ कह जाती है ,
सिर्फ दिल ही नहीं
कई रिश्तो को भी
जोड़ जाती है,
मौन एक साधना है,
मौन एक भावना है ,
कभी प्रभु की
कभी खुद  के भावो की
 अराधना है ...........

पतंग और हम

आसमान मे उड़ते रंग बिरंगे पतंग
आज की युग की साम्यता लिए
स्वतंत्र, निर्भय, उन्मुक्त
सब एक दुसरे से
आगे  बढ़ने को तत्पर
हर घडी, हर पल
बस ऊंचाई की चाह लिए
आगे बढ़ने की राह किये
कटकर या काटकर
मरकर या मारकर
यही एक धेय लिए
यही एक उद्देश्य लिए .......
ऊँची उडान मे कोई बुराई नहीं
पर ,किसी की डोर काटना
अच्छाई नहीँ,
कुछ पतंग पीछे उड़ रहे हैं
          इंतज़ार मे
हवाओं के रुख के बदलने का
दिशा दशा पलटने का
आगे पीछे होड़ लगी है
बस सबकी दौड़ लगी है .......
         सच है
है आकाश असीम
पर हमें अपनी सीमितता समझना है
है डोर का भी ओर छोर
ये समझना ओर समझाना है ............

Friday 4 October 2013

मेरा चेहरा

मैं हर रोज एक नया चेहरा लगा लेती हूँ ,
दिल पर पाबंदियाँ और पहरे लगा लेती हूँ,

एक चेहरा जो झूमता है, गाता है
ज़िन्दगी मे हर कदम पर कहकहे लगता है
एक चेहरा उदास रहा करता है ,
ज़िन्दगी मे हर गम चुपचाप सहा करता है ,

एक चेहरा  ख्वाब देखा करता करता है
कांटे  नहीं बस गुलाब देखा करता है
एक चेहरा हकीकत की खबर रखता है
फूलों के साथ काँटों पर नज़र रखता है

एक चेहरा ,जिसे संस्कारों ने पाला है
उसके इर्दगिर्द आदर्शो का जाला है
उसूलों और ईमान की बाते किया करता है
हर वक्त ज्ञान की बातें किया करता है,
 विद्रोह पनपता है एक चेहरे मे
एक आग सुलगती है कहीं गहरे मे
जो सारी परम्पराओ को तोडना चाहती है
हवाओ का रुख मोड़ना चाहती है

यदि इनमे से कोई चेहरा
तुम्हें भाया है
तो वो मैं नहीं सिर्फ  मेरा साया है
मैं तो हर रोज़
नया चेहरा लगा लेती हूँ
दिल पर पाबन्दियाँ और पहरे लगा लेती हूँ.........

Tuesday 1 October 2013

मुक्तिबोध

हमारी इन्द्रिय,
हमारा मन,
हमारी बुद्धि,
हमारी आत्मा,
और ,सर्वोपरि परमात्मा,
चक्रव्यूह मे इनके
पूरी विश्व है लिप्त,
किसकी है आत्मा तृप्त?
हर सतहों पर
प्रश्नों का अथाह समुद्र
जिसे पार करने मे लगा
      हर मनुष्य.
होड़ लगी है
आगे-पीछे
जन्म-जन्मान्तर सुधारने को ,
कितनो ने ही पढ़ी गीता ,
और गाया रामायण को ,
पर उसे ही मिली मुक्ति
जिसने नर मे देखा
   नारायण को ........