Tuesday 31 December 2013

नया साल

आ गया एक और नया साल
फैलाएगा ये भी नयी
उम्मीदों और आशाओं का जाल
फिर से कुछ सपने बुने जायेंगे
कुछ टूटे सपने जोड़े जायेंगे
कभी निराश ,कभी हताश
कभी जोश से तैयार
नए मुकाम को पायेंगे.......
          गुजरे पल
कभी हसाएंगे, कभी रुलायेंगे
कई हसीन लम्हें बनकर यादें
हमारे दिलों को सह्लायेंगे
गुजरे पल से बड़ा कोई सबक नहीं
वक़्त से बड़ा कोई मरहम नहीं
            इन्हीं पलों को
समेटकर -सम्भाल कर
आगे बढ़ते जायेंगे
हम इस सुन्दर जीवन को
सदियों तक यूँ ही
जीये जायेंगे............

Saturday 21 December 2013

कुछ --दूरी

एक नभ और दोस्त इसके इतने सारे ,
अटल ,अडिग दोस्त सच्चे
सूरज , चाँद , सितारे,......
सोचती हूँ मन मे
बात ये हमेशा
जब संग रहते हैं ये सारे
तो क्यूँ दिखते हैं
कुछ अलग- अलग
कुछ दूर -दूर ?
      फिर भी
क्या है इसमें ऐसा
जो ये हरपल रह पाता
 ऐसा सच्चा!
न दोस्तों से कभी
टूटी इसकी दोस्ती
न हुई कभी लड़ाई
वाह रे दोस्ती !
 मैं भरपाई........
असमंजस में देख मुझे , शायद
उसने कौतूहल को मेरे समझ लिया था ,
और हौले से उसने मुझे कहा था
               देख  मुझे गौर से
तू खुद समझ जाएगी
अपने इस "सोच-जाल " से मुक्ति पाएगी
नभ को फिर देखा मैंने
नए सिरे से फिर
दोस्तों को परखा मैंने ,
  और सहसा
हुआ मुझे ज्ञान जैसे
"सोच -जाल " से मुक्ति
मिला कोई वरदान ऐसे
               दूरी
हाँ बस कुछ दूरी
यही है प्रगाढ़, सुदृढ़ ,अटल
    मैत्री का राज
जैसे दूर होकर भी एक
      दिन और रात
ये हैं ऐसे मित्र
जो न पाते  कभी मिल
इसलिए शायद इनकी मैत्री
  है चिर नवीन.......
  अगर आ जाये
ये भी पास
तो हो जाये बासी
इनके भी एहसास
इसलिए दूर हैं ये
अपने में मसरूफ हैं ये
और देते हैं
चिर मैत्री का
मूलमंत्र ये
      दूरी
हाँ बस कुछ दूरी .............




प्रश्न- उत्तर

पूछा एक दिन मैंने चाँद से
कहते हैं तुम शीतल हो
तो क्यूँ भर जाते हैं लोग
देख तुम्हें उष्णता से ?
विहंस उसने कहा मुझसे
शीतलता में है,जीवन की उष्णता निहित
उष्णता में है निहित शीतलता
न हो अगर शीतलता
तो ,चाह हो कैसे उष्णता की ?
हो न  अगर उष्णता तो
एहसास कैसे हो शीतलता  की?

देख शांत भाव से बहती नदी को
 पूछा मैंने उससे
क्यूँ  शांति की बाहों में बैठकर भी
में हो रही हूँ अशांत?
कहा नदी ने शांत भाव से
क्या चंचल जीवन में
कभी पाई है किसी ने शांति ?
है अशांति जीवन में व्याप्त ,
नहीं मन की शांति पर्याप्त,
हो अगर जीवन में शांति
कैसे हो नित नूतन क्रांति ?

जा एक पेड़ के सम्मुख
पूछा मैंने उससे
तुम करते हो ,अपने सर्वस्व का होम,
पर ,  तुम्हें क्या मिलता है इससे ?
धीर ,गंभीर मुद्रा में कहा पेड़ ने
ओ! ओछे मानव
क्या तू प्रतिदान ही ढूंढेगा?
क्या तू देता है प्रतिदान ?
          सूर्य को .......
जो देता है तुझे अपनी रौशनी
रौशनी जो है , तेरी ज़िन्दगी
पर तू उसे क्या देता है ?
            चाँद को ........
जो लुटाता है अपनी समस्त चांदनी
पर तू उसे क्या लौटाता है ?
               बादल को .........
जो देता है बूँद-बूँद  पानी
क्या करेगा तू उसकी सानी ?
ओ मानव ! सोच तू अपने मन में
क्या देगा तू प्रकृति को प्रतिदान ?
निरुत्तरित रह गयी मैं !
उलझी दान -प्रतिदान  के जाल में
आज समझ गयी एक राज़
जीवन में ,प्रतिदान की रखो न इच्छा,
कर्त्तव्य पथ  में नहीं होती ,अपनी स्वेच्छा..........