Sunday 23 April 2017

कलम एक जरिया

अपने कलम के जरिये कुछ लिखती हूँ
कुछ तलाशती हूँ, कुछ तराशती हूँ
अपने ही मन मष्तिष्क में
उथल पुथल मचाती हूँ,
कल्पनाओं से खेलती हूँ
उनमे रंग भरती हूँ,
बन जाते हैं शब्द रंगोली से
सृजन का एहसास कर
मातृत्व का सुख पाती हूँ.....

सागर

न जाने क्यूँ ,किसके लिए
व्याकुल रहता है सागर?
विकल,विह्वल सा,
चट्टानों से टकराता रहता !
शांत,निश्छल मोतीयों को
समाये अपने में
फिर मन क्यूँ
इसका बेकल रहता ?
असंख्य नदियाँ हैं समाहित इसमें
क्या इसका है इसको अभिमान?
या कोई अधूरी प्रेम कथा
छुपाकर रखा है
सागर के मन तल में,
जिसका नहीं हमें है भान!
पत्थरों से टकराता रहता
क्या लेता है खुद से प्रतिशोध!
क्यूँ नहीं करता ये किसी से प्रतिरोध?
आँसुओं सा खारा पानी
चीख चीख कह रहा
इसने नहीं की प्रेम में मनमानी
बस व्याकुल है,
शायद प्रतीक्षाकुल है
चट्टानों से टकराता है
लहरों की ओट में
अंतर्मन का शोर छुपाता है......

Friday 21 April 2017

विराम

अविराम चले हुए है,ज़िन्दगी की दौड़ में
कुछ और कुछ और पाने की होड़ में
पूर्ण विराम है अंत सबका
इसलिए कुछ अर्धविराम,कुछ अल्पविराम
जरूरी है ज़िन्दगी की ठौर में

ख़्वाहिश

हो सारी ख्वाहिशें मुक़म्मल
   जरूरी तो नहीं
पूरा चाँद भी रात का कहाँ होता??

फ़ोन

माचिस की डिब्बी से बनाया फोन से लेकर
iPhone तक का सफर तय किया है मैंने
फोन तेरे हर बढ़ते,बदलते रूप
को देखा है मैंने
पहले मोहल्ले में एक दो फोन
हुआ करता था
सबका PP No
वही हुआ करता था
फोन के बहाने सबका
आना जाना लगा रहता था,
घर में रौनक बना रहता था
फिर हर घर फोन बजने लगा
दायरा सिमटने लगा।
जबसे तू मोबाइल बन
सबके हाथों में आया है
खुशियों के साथ
गम भी बहुत लाया है
प्यार और शिकायत
 दोनों है तुमसे
क्या कहूँ, क्या न कहूँ तुमसे
हर घर पर कर लिया कब्ज़ा
सब रिश्तों की जगह कर ली है
इख्तियार तुमने......

कारवाँ

सफर-ए -ज़िन्दगी में
ख्वाहिशों का कारवाँ जुड़ता रहा
जोड़ते रहे,बटोरते रहे
गर्द उम्र का उड़ता रहा....

गुफ़्तगू

अल्फाज़ो से बात करती हूँ
सब कहते है,लिखती हूँ
इनसे ही हँसती बतियाती हूँ
कुछ शिकायत भी करती हूँ
बातें, शिकायतें अख्तियार
कर लेती हैं शक्लें
कुछ बिखेरती सी
कुछ उकेरती सी
भावनाएँ पिघलती है
नज़्म सी दिखती हैं
पर मैं नहीं उन्हें लिखती हूँ
मैं तो बस अपने
जज़्बात बिखेरती हूँ
कुछ ख्यालात समेटती हूँ
कोरे कागज से
कुछ गुफ़्तगू कर लेती हूँ...

तेरी ख़ामोशी

तेरी ख़ामोशी से ही
बात करती हूँ,
शिकवा उनसे ही तेरी
दिन रात करती हूँ।
एक तरफा ही
सवाल और जवाब करती हूँ,
कभी तुमसे लड़ती और झगड़ती हूँ
कभी बाँहो में भरकर
तुम्हे एहसास कर लेती हूँ।
कभी मनाकर खुद को
अपने को खुश कर लेती हूँ
चाहकर भी तुम्हे
न चाहने का दिखावा कर लेती हूँ
अपनी चाहत का मनगढंत
क़िस्सा रच लेती हूँ।
तुम्हारे हिस्से का भी
किरदार निभा लेती हूँ
खुद को थोड़ा प्यार,कर लेती हूँ
तेरी कल्पना से अपनी
दुनिया रच लेती हूँ
मैं भी जरा औरों की
तरह बस लेती हूँ।
तेरी ख़ामोशियों से ही
बात करती हूँ
शिकवा उनसे ही तेरी
दिन रात करती हूँ
और बस
तेरे होने का एहसास करती हूँ......

गुल्लक यादों का

कुछ यादें हैं जमा गुल्लक में
बरसों से उन्हें छेड़ा नहीं
इकट्ठी हो रहीं हैं
आहिस्ता आहिस्ता,
आज उनको उठाकर
 टटोल रही हूँ,
और भी भारी हो चला है
कुछ  तुम्हारा हिस्सा
कुछ मेरा हिस्सा है
सब जमा हो ,घुलमिल गया है
एक दूसरे से,हमारी तरह
अब कैसे करूँ बँटवारा
कौन सा तुम्हारा,कौन सा मेरा
बहुत मुश्किल है यह सवाल
सोच रही हूँ न तोड़ू कभी
इस गुल्लक को
मिटटी ही तो है
कुछ और होता तो
लग चुका होता अबतक जंग
नहीं बचता कुछ
हमारी यादों का अंग
पर मिटटी का ये गुल्लक
गर टूटा भी तो
टूट मिटटी में ,मिल जायेगा
और मिल मिट्टी में,संग अपने
सौंधी सौंधी  यादो की खूशबू फैलायेगा

Monday 10 April 2017

इत्र

अलमारी में कपड़ो के बीच
एक जानी पहचानी खुशबू छाई
कुछ पुरानी बातें, कुछ पुरानी यादें
जेहन में उभर आई
रखा दिखा वो रुमाल भी
छिडककर जिसपर तुमने दिया था इत्र
लिखा उसके कोने पर था मित्र
हमदोनो का था ऐसा संग
हों जैसे अभिन्न अंग
दोस्ती हमारी इत्र सी महक रही थी
पर कुछ लोगों को खल रही थी!
कैसे हो सकते स्त्री पुरुष सिर्फ मित्र
अच्छा नहीं था उनकी नज़रों में हमारा चरित्र
हमारी पवित्रता से भरी
मित्रता की शीशी तोड़ने में जुड़े थे
टूटे कैसे मित्रता इसपर अड़े थे
विश्वास की खुश्बू वाले
इत्र से हम भरे थे
फैलाकर अपनी खुश्बू दोस्ती की
हम और भी घुल मिल रहे थे
फिर परिस्थितियाँ हमारी अलग हुई
पर नहीं दोस्ती विवश हुई
जुदा होकर भी एक दूजे से
बन खुश्बू हम इत्र
तेरी याद में महक रहे
ए मित्र....

Friday 7 April 2017

पदचिन्ह

महावर की थाल में डालकर पैरों को
अपने पदचिन्हों को छोड़ा उसने
सिर्फ दिल ही नहीं
कई रिश्ता जोड़ा उसने
कुछ सहमी कुछ घबराई सी थी
कुछ अपनी कल्पनाओं से
शर्मायी लजायी सी थी
सुबह सवेरे उठकर अपने
लाल महावर के निशान देख रही थी
अपनी जिम्मेदारी के एहसास
को संजो रही थी
कुछ बिखरे सामानों को उठाया उसने
बड़े हक़ से ,अपनी मर्ज़ी से उन्हें सजाया उसने
तभी पीछे आई कहीं
एक ताने की आवाज़
देवी जी इस घर का ,ये नहीं रिवाज़
घर अभी ये मेरा है
नहीं इसपर हक़ तेरा है
सुन इसे वो रो पड़ी
मन ही मन सोच पड़ी
कौन सा पदचिन्ह अपना है
जहाँ पड़े महावर या
जहाँ पड़े थे धमा चौकड़ी के निशान?
कुछ प्रश्न चिन्ह लेकर पदचिन्ह वो
छोड़ आयी जहाँ न मिला उसे मान
कौन सा घर उसका है
और कहाँ है उसका स्थान!