Friday 21 July 2017

इज़हार

दबा सा था,
दिल के अंदर कहीं
                अब
अंकुरित, प्रस्फुटित हो
प्रेम  पुष्पित होने लगा
दबी दबी जो थी अधरों पर
अब मुखरित होने लगा

आँखों में काजल सा फैलने लगा
माथे पर बिंदी सा उभरने लगा
पायल की रुमझुम में
संगीत सा बजने लगा
लब गीतों को गुनगुनाने लगा
दिल मेरा प्रेम प्रदर्शित करने लगा !

होते ही शाम सितारों सा
एहसास मेरा जगमगाने लगा
चाँद में सूरत तेरी देखने लगा
सुबह फ़ैल धूप  सा आँगन में
मेरे हर कोने को रोशन करने लगा
कैसे न हो इज़हार
प्यार मेरा सूरज सा चमकने लगा !

लिखने बैठूँ तो लिख जाती हूँ तुम्हें
मेरा कलम भी मुझसे
 बगावत करने लगा,
कटाक्ष लिखूँ तो
कलम प्रेम-श्रृंगार लिखने लगा
मेरे भावों का इज़हार करने लगा !

मेरे प्रेम के खुमार से
कवितायें मेरी तुमसे जलने लगी
मेरी धड़कनों में सिर्फ नाम तुम्हारा
शायद इन्हें कुछ खलने लगीं

कर दिया इज़हार प्रेम का
कर दिया अभिव्यक्त खुद को
न कराओ अब इंतज़ार
पल भी अब तुम बिन
 सदियों सा लगने लगा

पुष्पित प्रेम कुसुम
अब बगिया सा महकने लगा
इज़हारे प्यार क्या किया
देखो कलम भी बहकने लगा
चहुँ ओर बस प्रेम दिखने लगा
दे दो बस एक इशारा इकरार का
मन बावरा ये होने लगा !!!


Tuesday 18 July 2017

कब तक

कब तक
कविता में सजती रहेगी
चूड़ियाँ सिर्फ गोरी कलाई में
कब तक
गोरा मुखरा ही बसेगा
चाँद की सुंदरता और अंगड़ाई में
कब तक
दूधिया सफेदी
रंगेगी सुंदरता की कल्पना
 कब तक
रंग- भेद की
चलती रहेगी ये विडंबना
कब तक??

कई बार

कई बार चाहा
कितना कुछ कहना
पर नहीं कह पाती
शब्द,जुबाँ तक आते नहीं,
पता नहीं ,क्यूँकर
बेजुबान हो जाते हैं।
ठहर से जाते हैं,
आँखों से भी
बयाँ कहाँ हो पाते हैं!
झिझकते हैं
पता नहीं किससे
शब्द शायद
बन न जाए किस्से
धड़कन के आरोह अवरोह
में बजता संगीत
अंदर ही अंदर
सुनती हूँ
नहीं गा पाती
नहीं कर पाती लयबद्ध
कुछ अकथ बात
एक नारी के जज्बात
दब जाते हैं,
अपने ही
धड़कनों के आरोह अवरोह में
सुरबद्ध होने को
लयबद्ध होने को.......

Monday 17 July 2017

होती अगर

होती अगर
बदली सी यादें तो
घूम घूम घुमड़ घुमड़
बारिश बन बरस जाती
बरस कर फिर थम भी जाती।

होती गर चाँद सी
ये यादें
बस रहती, रहते अमावस के
पूनम के आते ही
कहीं गुम हो जाती।

 होती गर फूल सी यादें
खिल ,मुरझा,झड़ जाती
सब बातों को
दफ़न कर जाती।

होती गर ओस सी यादें
गीली,नम होकर
सूख भी जाती
फिर न आती

पर यादें लगती मुझे
विशाल हिमखंड सी
जमी रहती है
कतरा कतरा
कतरा कतरा
पिघलती है
कतरा कतरा
पिघलती हैं........

Thursday 13 July 2017

जन्नत

अनुपम सुंदरता लिए
अपने रूप यौवन पर हर्षित
इस सुन्दर वादी को
किसकी नज़र लग गयी
लम्बे ,गगनचुम्बी
चीर, देवदार, चिनार
सब की सुंदरता
किस को खल गयी!

झेलम की कलकल निनाद
है आज भयाक्रांत
पता नहीं धार इसकी भी
बाँट न ले,कोई कहीं
हलचल इसके सीने में भी मच गयी
पता नहीं इस वादी को
किसकी नज़र लग गयी!

श्वेत हिम आच्छादित पर्वत
लाल से दिखने लगे
शहीदों के  खून संग
ये भी जमने लगे
कौन अपने कौन पराये
नज़र सबकी तंग हो गयी
पता नहीं इस वादी को
किसकी नज़र लग गयी

रब ने बनाकर यह जन्नत
कुछ इंसान बसाया था
मजहब का पाठ पढ़
नफरत की लहर बह गई
इंसानियत वहशियत में बदल गयी
पता नहीं इस वादी को
किसकी नज़र लग गयी

लालसा ,राजस्व ,लोभ ,पिपासा
चिनार,देवदार से भी ऊँची हो गयी
जन्नत बनी ये घाटी
आहिस्ता आहिस्ता
जहन्नुम में परिवर्तित हो गयी
पता नहीं इस वादी को
किसकी नज़र लग गयी

खिले मनोरम फूल जहाँ
फलों और केसर की महक वहाँ
उस केसरिया रंग में
रंग कुछ नफरत की भी है घुल गयी
पता नहीं इस वादी को
किसकी नज़र लग गयी!

मुलायम बर्फ सी, निष्कपट सी
थी यहाँ की सर जमीं
अखरोट भी जहाँ मुलायम और कागज़ी
वहाँ बर्बरता, पाखंडता, लालच है मची
कौन है महफूज़ यहाँ
कहाँ है सबकी ख़ुशी
बस इसी बहस में
चलती जायेगी ये ज़िन्दगी
यूँ ही बन जायेगी जहन्नुम
ये हमारी जन्नत दिलकशी.....

Sunday 9 July 2017

विरह

लो आई रिमझिम फुहार
क्या सुन ली
बादलों ने मेरी मनुहार?
तभी शायद गा रहा
मेघ ये मधुर मल्हार।

दूर कहीं सीमा पर बैठे
मेरे साजन को
क्या ये बादल छूकर आए!
इन बूँदों में खुश्बू उनकी
जो मन मेरा महका जाए!
सौंधी मिट्टी की खुशबू
बिल्कुल तेरी यादो सी
ये मनमोहक फुहार
बिलकुल तेरी बातों सी
देखो न कैसे
दोनों घुलमिल गाए
आओ साजन न इन पलों को
यूँ व्यर्थ गवाएँ!

हूँ तुम्हारी वामा, वीरांगना
सीख लिया है
घर की सीमा को संभालना
पर दर्द विरह का न अब सहा जाए
ऐसी प्यारी बरसात में
तुम ही कहो
कैसे अब रहा जाए।

इन बूँदों ने बस भिगोया मेरा तन
तुम बिन यूँ ही
बंजर पड़ा ये मन।
बारिश की बूँदों से
अश्कों को अपने छिपा रही
बहुत खुश हूँ मैं
सबको यूँ बहला रही ।

श्रापित यक्ष ,यक्षिणी के विरह को
महसूस कर रही
इन मेघों को मैं भी
दूत बना पास तुम्हारे
भेज रही।
अगली बारिश में
चाहिए बस मुझे
अपने साजन के बाँहों का गलहार
और न हो कोई मेरा श्रृंगार
ओ मेघ
 बस इतनी सी मेरी
 लगा दे गुहार
यही मेरा तुमसे मनुहार
बन प्रेम बूँद
बरसू मैं भी
और बरसाऊँ
साजन पर
अपना प्यार!!!!!!

अनुपमा झा
(नई दिल्ली)
स्वरचित