Friday 29 September 2017

रावण

मैं रावण
"न भूतो न भविष्यति"
यह मेरा अभिमान
सार्वकालिक पंडित महान
वेदों का विद्वान प्रकांड
आयुर्वेद का ज्ञान अपरिमित
चिकित्सा ज्ञान भी असीमित
पद्य में पारंगत
संगीत,वाद्य में नही
कोई कर सकता था
मेरी संगत
सोने की लंका का अधीश्वर
मानते जिसका गुण सर्वेश्वर
मैं दशानन
मैं लंकापति रावण।

युगों से मुझे जलाते हो
बुराई का पर्याय मानते हो
मानता हूँ मैं
हुआ मुझसे
मर्यादा का हनन
क्रोध में था
मैं दशानन!
 बहन की इज़्ज़त का
करना था सम्मान
चूर्ण हुआ था
एक राजा का स्वाभिमान।
बस क्रुद्ध था मैं
        हाँ
हरा था सीता को मैंने
          किन्तु
नही किया सीमा उल्लंघन
नही किया चीर हरण
मुझमें अभिमान था
अपने स्वर्ण नगरी का
गुमान था!!

पर इस युग के मानव
तुम ये बताओ
युगों से करके
मेरा दहन
किया क्या तुमने ग्रहण??
साल में एक रावण जलाते हो
पर सौ रक्त बीज पालते हो
सब देखता हूँ मैं
और हँसता हूँ मैं
छोटी छोटी कन्याओं के साथ
होते देख बलात्कार
रोता भी हूँ मैं
अपने बुजुर्गों को भी
तड़पाते हो
अपने मन मे
कितने रावण छुपाते हो
मैं पर्याय हूँ
बुराई का
फिर क्यों नहीं
अपने अंदर के
रावण को ,मारते हो?
क्यों नही उसे जलाते हो?
मैं बहुत बुरा था
 यही सदियों से
चिल्लाते हो!

कितनी बुराइयाँ
गिनवाऊँ तुम्हारी?
तुम्हारे अवगुण हो गए हैं
तुम्हारे गुणों से भारी!
नहीं था मैं अत्याचारी
नही था मैं व्यभिचारी
तुम मनुष्य पहले
अपने अवगुणों को मारो
फिर मेरा पुतला जलाओ


Thursday 21 September 2017

दीवानगी

रात है,कुछ उमड़ते से जज्बात हैं
चाँद संग चल रही गुफ़्तगू
बस आपकी ही शिकायत
आपकी ही बात है

सोने सी दुपहरी में भी
आप का ही ताब है
ये दिल न जाने क्यूँ
बस यूँ ही बेताब है!

सिर्फ ख़्वाबों में ही बहार है
न मिलने का मलाल है
सितारों से टिमटिमाते ख्याल
यही रकीब यही मेरा यार है

मिलना आपसे कहाँ आसान है
कितने ही हिज्र की रातों के बाद
 आता आपका पैगाम है

दीवानगी मेरी दिख रही सरे आम
चाँद ने कहा हौले से
यही दीवानगी ही तो
मुहब्बत का नाम है

कलम और करछी

कलम और करछी
में हुई लड़ाई
कलम ने ललकारा
करछी को
करछी भी जोर से चिल्लाई!
कहना कलम का था
क्यूँ तेज़ आँच पर
अपने तेवर दिखाती हो
हिलती डुलती
अपने में ही
व्यस्त मन को रखती हो
पकती रहती सारी कल्पनाये
गल जाते सारे शब्द
करछी हिला थक जाते हाथ
फिर कैसे दे वो मेरा साथ?
फिर हो जाता हूँ
मैं भी मौन ,निशब्द
जब नहीं मिल पाता
किसी की भावनाओं
को शब्द

करछी धीरे से मुस्काई
कहा -वाह कलम
क्या यही सोच
मन में आयी!
कलम पकड़ने से किसी का
परिवार नहीं चलता
भूखे पेट तो शब्द भी
नहीं मचलता
कलम से हैं
शब्द ज़िन्दा
पर करछी चलाकर
जठराग्नि जलता
क्या कर सकता है
तू इंकार इससे
निकाल अपनी महत्ता का
वहम दिल से!

नीन्द से उठी
मैं कुछ घबराई
कुछ सकपकाई
ये थी किसकी आवाज़
क्या मैं ही थी चिल्लाई?
ये सपना था
या सत्य वाकई?

मन ही मन
कलम और करछी
की लड़ाई से
जूझ रही थी
दोनों के पहलू
बूझ रही थी!

यही निकाला निष्कर्ष
जो था मन का संघर्ष
कलम और करछी
का होना होगा संतुलन
तभी तृप्त होगा ये मन
न कलम पर करछी भारी
न करछी कलम पर हावी
दोनों के संतुलन से ही
चलेगी मेरी जीवन गाड़ी.....

एक ख्याल

कभी कविता
कभी कहानी सी
बनाना चाहती हूँ
शब्दों की तरह बिखेरकर
तुम्हें एक किताब सा
पढ़ना चाहती हूँ!

सर्दियों की गुनगुनी धूप में
हाथों में लेकर तुम्हे
एक कहानी सी
समझना चाहती हूँ
अपनी मन मर्ज़ी
हर्फ़ से सजाकर
अलग अलग पात्रों में
ढालना चाहती हूँ
अपने हाथों से
तुम्हे लिखना चाहती हूँ!

कभी कोहनी ,बिस्तर पर जमाए
हाथों को,गालों पर टिकाए
अपलक तुम्हें देखना चाहती हूँ
कविता सी तुम्हें
महसूस करना चाहती हूँ!

कभी सीने पर
यूँ ही रख
अपनी धड़कन
सुनाना चाहती हूँ!
आँखे बंद हो मेरी
पर तुम्हारे शब्दों पर
मुस्कुराना चाहती हूँ!

न किसी आहट पर
तकिये के नीचे, तुम्हे
छुपाना चाहती हूँ
न जिल्द लगाकर
दुनियाँ की नज़रों से
बचाना चाहती हूँ
तुम शब्द मेरे
तुम्हे दुनियाँ के सामने
लाना चाहती हूँ!

नहीं रखना चाहती
कोई फूल
उस किताब में
जो सूख मुरझा जाये
पुरानी बातों का
एहसास कराए
मैं तो नित नूतन
तुम्हें, कागज़ की खुश्बू सी
महसूस करना चाहती हूँ!

लिख जाना चाहती हूँ
हर एहसास
हर लम्हा
में तुम्हे
कभी छंद बनाकर
गुनगुनाना चाहती हूँ
कभी कहानी में
खो जाना चाहती हूँ
किताब सी तुम्हे
संभालना चाहती हूँ
अपना प्रेम मुखरित
करना चाहती हूँ!!!!



हिन्दी

लहज़ा हूँ,ज़ुबान हूँ मैं
प्राकृत-संस्कृत ज़े निकली
मिटटी की गुमान हूँ मैं
गंग-यमुनी सभ्यता से बहती
लिपि देवनागरी जिसकी
वो हिंदुस्तान की पहचान हूँ मैं!
न तुम मुझे एक विषय से बांधो
बस,मेरी मूल्य तुम आंको!
विद्वानों की विद्वता हूँ मैं
व्याकरण की संचिता हूँ मैं!
राष्ट्र भाषा हूँ मैं
करोड़ो की मातृ भाषा हूँ मैं
अपने वजूद को न
होते देखूँ लुप्त
वो अभिलाषा हूँ मैं!
सजे जो भाल पर हिन्द के
वो बिंदी हूँ मैं
हिंदुस्तान की हिंदी
हूँ मैं!
संभालो मुझे किसी धरोहर सी
भाषा की विनती हूँ मैं
हिन्दी हूँ मैं
हिंदी हूँ मैं!!!!

Wednesday 20 September 2017

खामोश कविता

शब्द नहीं मिल रहे
कुछ लिखने को
शायद आज कविता
आराम करना चाहती है
कुछ विश्राम करना चाहती है

थक गयी है लिखकर
चाँद, तारों, फूल,पत्तियों पर
कुछ अनकहे को
कहने की कोशिश पर
संजो कर बस भावों को
उनमें खोना चाहती है
आज शायद कविता
आराम करना चाहती है।

कोई गाता ,कोई उसे गुनगुनाता है
कोई उससे सुख,दर्द बताता है
आँसुओं को शब्दों में लिखता कोई
कोई प्रणय गीत सुनाता है
सब दुःख सुख को
अपने में जज्ब करना चाहती है
आज कविता खामोश रहना चाहती है।

होती होंगी उसको भी
परेशानियाँ कितनी
मन में हैरानियाँ कितनी
नपे-तुले शब्दों में
बंधकर रहती है
नहीं कहानी की तरह
बहुत से पात्रों में बसती है
बंधनों से कुछ देर
उन्मुक्त होना चाहती है!
आज कविता शायद
कहानी सी बन
 जाना चाहती है
कल्पना से हटकर शायद
अपना कोई कोना चाहती है!
चुप है,खामोश है
बस शब्दों को परखना चाहती है
आज कविता बस
 आराम करना चाहती है
कुछ खामोश रहना चाहती है......


Monday 18 September 2017

बिहार

बिहार हूँ मैं
बिहार हूँ मैं
जन्म सीता का हुआ जहाँ
वो पावन पहचान हूँ मैं
हाँ ,बिहार हूँ मैं!

महावीर,गौतम का जन्म स्थान
जैन,बौद्ध धर्म का गहरा निशान हूँ मैं
गुरु गोविंद सिंह की जन्मभूमि
वो स्थान हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

मेरी मिट्टी से निकला
खगोल,गणित का ज्ञान
विद्वानों का अनुसंधान
दिया आर्यभट्ट ने ये
उनका ऋणी हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

पाणिनि का व्याकरण
सबने किया जिसका
अनुकरण,अनुसरण
वो महेश्वर का सूत्र हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं

वात्सायन का कामसूत्र
अश्वघोष का दर्शन हूँ मैं
कवि मन का गीत
उन्मुक्त छंद हूँ मैं
गौरवमय इतिहास हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

अशोक का शौर्य हूँ मैं
चंद्रगुप्त मौर्य हूँ मैं
चाणक्य की नीति
दे रहा गवाही
 विश्व जिसकी
वो राजनीति हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

वैशाली,नालंदा का इतिहास हूँ मैं
वैभव,ज्ञान,संस्कृति का प्रमाण हूँ मैं
कोसी,सोन,गंगा,गंडक
की निनाद हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

गौरव हूँ मैं
गौरवान्वित हूँ
पहला राष्ट्रपति बना
इस माटी से
इस सम्मान से
सम्मानित हूँ
एक नहीं कई लाल हैं
चमकते जो मेरे भाल हैँ
सबके यश,कीर्ति का
मिसाल हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

विद्यापति का गीत
दिनकर की कविता हूँ
नागार्जुन,रेणु, बेनीपुरी
जैसे विद्वानों की विद्वता हूँ
एक अद्भुत गान हूँ मैं
गुणमय पुरखों का
सम्मान हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

बनाये रखो सम्मान मेरा
न टूटने पाये अभिमान मेरा
बीते दिनों की शान केवल,
ऐसा नहीं,
राष्ट्र का वर्तमान हूँ मैं

श्रम बने सम्मान मेरा
प्रगति हो अभिमान मेरा,
जन-जनों के मन की आशा
बस इतनी सी मेरी अभिलाषा
इन्द्रधनुष विशाल हूँ मैं
आपका बिहार हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!


Friday 8 September 2017

तर्पण

दो साल हो गए
आप के बिन
आपकी यादों के संग
लिये कुछ आपकी
इच्छाओ को पूरा
न कर पाने का रंज!

बस इतना ही तो
चाहा था आपने
न छोड़ू मैं
मैं अपनी लेखनी का साथ
पर "लिख रही हूँ"
कहकर टालती गयी
आपकी ये बात।

वक़्त ने ली करवट
लेखनी मेरी हुई मुखर
शब्द रहे कुछ निखर
 भाव नहीं रहे बिखर
सब आपके आशीष का
ही तो है असर।

मिलती जब प्रशंशा कभी
यही लगता है सुनकर
आप होते तो
कितने खुश होते
आप क्या कहते
जब मेरा लिखा पढ़ते!

पर मेरी ये कल्पना
बस कल्पना रह जायेगी
लेखनी मेरी आपकी
मुस्कान देख न पायेगी।

चल रहा अपनों का श्राद्ध तर्पण
बिन जल,तिल, कुश
कर रही मैं
अपनी लेखनी आपको अर्पण
अश्रु पूरित आँखों से
यही मेरा तर्पण !!!
यही मेरा तर्पण !!!

Saturday 2 September 2017

प्रियतम ( picture prompt आगमन)

प्रियतम
यूँ न देखो मुझे
वाचाल से मूक बन जाऊँगी
फिर रह जायेंगी सारी बातें
व्यक्त्त कहाँ मैं कर पाऊँगी !
न बनो तुम कान्हा से चंचल
मैं राधा नहीं बन पाऊँगी
नहीं मैं तुम संग हँस हँस
अपना प्रेम छुपा पाऊँगी!
नयन गर मिले नयन से
सारी अनकही ,कह जायेंगे
नहीं अधरों की तरह
नयन मेरे शर्मायेंगे!
छुपाया था  बड़े जतन से
सब यूँ ही कह जाऊँगी
फिर न कहना
प्रियतम कुछ मुझसे
मैं भावों के रंग,रंग जाऊँगी
मीरा जैसी दीवानी फिर
शायद मैं भी बन जाऊँगी!
धड़कन में मेरी
प्रिय नाम तुम्हारा
कैसे मैं साँसों में
छुपा पाऊँगी !
प्रियतम यूँ न देखो मुझे
मैं बेबस हो जाऊँगी
तुम्ही कहो कैसे मैं
तप्त ह्रदय को समझाऊँगी!
मधुर बंधन ये तुम्हारा मेरा
बंधकर भी है नहीं बंधा
 बात किस किस को
मैं ये बतलाऊँगी!
प्रियतम यूँ न देखो मुझे
मैं नहीं "मैं" रह पाऊँगी

©अनुपमा झा