Thursday 7 December 2017

सवाल

एक हादसा हुआ था
पर चटपटी खबर बन गयी
हर छोटे बड़े अखबारों की
मैं सुर्खियाँ बन गयी

हादसे से किसी को
नही सरोकार
क्या थी मेरी गलती
सब थे जानने को बेकरार
क्या था मैंने पहना
अकेली थी या
संग था कोई अपना?
कपड़े कितने बड़े मेरे थे
क्या दिखा ,क्या छुपा रहे थे
क्या उभार मेरे किसी को
उकसा रहे थे?
क्यूँ रात को अकेली
घर जा रही थी
क्या पी कर भी
कहीं से आ रही थी?
चरित्र पर मेरे सब
अँगुली उठा रहे थे
सवालों के पत्थर
उछाल रहे थे
सब कुछ बन तमाशा
मौन बन सोच रही थी
कैसे आदिवासियों के
कस्बों में
इन्ही छोटे कपड़ो में
महफूज़ रहती हैं लड़कियाँ
रात को सुनसान सड़कों पर भी
चलती हैं लड़कियाँ
पर फिर भी
कोई तमाशा कोई ख़बर
नहीं बनती है लड़कियाँ
सोच के फ़र्क में
शायद पलती हैं
ये लड़कियाँ.....

Sunday 3 December 2017

डायरी और कैलेंडर

चमकते दमकते सामानों में
रंग बिरंगे बिकते फोन की दुकानों में
अब हमारी अहमियत
है नगण्य ,गौण
अब हमें पहचाने कौन?
उदास ,हताश सी
कुछ कैलेंडर ,कुछ डायरियाँ
याद कर बीते दिन
हो रही थी गुमसुम मौन

कहता मिला कैलेंडर
क्या ज़माना था
जब सालान्त हुआ करता था
ऑफिस से लेकर घरों तक
हर जगह मैं
टंगा मिलता था
हर कोई मुझे पाकर
खुश हुआ करता था
कैलेंडरों के लेन देन
की होड़ लगी रहती थी
मुझसे घरों की दिवारें
सजी मिलती थी!
लोग मुझे निहारते
दिन- महीनों का हिसाब
रखा करते थे
महीने के अंत मे
प्यार से पलटा करते थे!
स्वरूप मेरा अब
मोबाइल में सिमट गया है
अस्तित्व वो पुराना
कहीं खो सा गया है
तरसता अब
उस स्पर्श उस नज़र को
जब कितने ही हाथों गुजरता
नए साल की शुभकामनाओं के साथ
लोगों के घर ,आया जाया करता था
मुस्कानों के साथ,स्वीकारा जाता था!

सब व्यथा सुन रही थी
डायरी हो गुमसुम
कहा ओ कैलेंडर अब मेरी सुन
मैं भी तो सबके
कितनी अजीज हुआ करती थी
लोगो के दिल के करीब रहा करती थी
लोगों के दिनचर्या का
 हिसाब हुआ करती थी
दिल मे उठते बातों की
किताब हुआ करती थी
बड़े जतन से मुझे संभालते थे
सीने से अपनी लगाते थे!
कितनों की हमराज़ ,हुआ करती थी
लोगों के जज़्बात ,सुना करती थी
पर अब
मेरी भी अहमियत खो गयी है
सब ज़ज़्बातों की ठेकेदार
ये मुई मोबाइल हो गयी है
हम दोनों
एक विगत गीत बन रह जायेंगें
यूँ ही एक दूजे को
अपनी व्यथा सुनायेंगे
"कागज़ बचाओ अभियान" में
कुछ सालों बाद
हम छपने भी
बंद हो जायेंगे!!!!!!!!

चूड़ियाँ

#चूड़ियाँ

चूड़ियों की तरह संभाला है यादों को
पहनती ,उतारती
 जतन से संभालती
कभी लाल,कभी पीली
कभी नीली, कभी हरी
रंगों में ढली हुई यादें
एक ,एक कर सब पहनती
छन छन छन छन!!
मीठी आवाज़ सी
सब मीठी यादों
खनकती एहसासों
को अपनी उँगलियों से सहलाती
मानो चूड़ियाँ नहीं
ये यादें नहीं
ये तुम हो तुम!
फिर पहनते ,उतारते
टूट जाती,चुभ जाती
कभी ये चूड़ियाँ
उसी विश्वास जैसे
उसी आस जैसे
छन से
और बिखर जाती
रंग बिरंगे टुकड़ो में
बस काँच सी
चुभन देती
यादों की....

Tuesday 28 November 2017

बच्चनशाला एक श्रद्धांजलि

*क्या भूलूँ क्या याद करूँ*
कैसे *नीड़ का निर्माण* किया
फिर जा * बसेरे से दूर*
तुम्हें शब्दों में आह्वान किया
यादों को बना *मधुशाला*
मैंने उनका मदिरापान किया।

"याद तुम्हारी लेकर सोया
याद तुम्हारी लेकर जागा"
भावों को उकेरकर, शब्दों में
लिख *प्रणय पत्रिका*
दे *मधुबाला * को आया
"और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ
क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती है"
गुजरा जो तुम तक पहुँचने में
*अग्निपथ* में भी झुलसा नही
पर"बुझ नहीं पाया अभी तक
उस समय जो
रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने"

*मधु कलश* सी भरी थीं यादें
*सतरंगिनी*इंद्रधनुषी सौगातें
होता जब *आकुल अंतर*
खुद को पाता * धार के इधर उधर*
*एकांत संगीत* में लीन
याद आता * वो तेरा हार*
*सूत की माला* *खादी के फूल * वाला
और ताकता तुम्हें मैं मतवाला ।

कभी याद करता
वो तुम्हारी * त्रिभंगिमा*
लाचार * चार खेमे चौंसठ खूँटे* से बंधे
महसूसता * कटती प्रतिमाओं की आवाज़*
तुम्हारे * उभरते प्रतिमानों के रूप*
हर बार एक नया भाव लिए
*आरती और अंगारे* सी तुम
हो जैसे *बुद्ध और नाचघर*
बताओ न * क्या भूलूँ क्या याद करूँ* मैं
इस * निशा निमंत्रण* में
कोई * एक गीत* नहीं यादें
बस आती है तो चढ़ती जाती है
*दशद्वार से सोपान तक*...........


Monday 6 November 2017

सैनिक की पत्नी

मैं सैनिक की पत्नी हूँ
मैं सबकुछ संभालती हूँ
सम, विषम हर परिस्थितियों में
मैं मुस्काती हूँ।
देश की सीमा 'ये' संभाले
मैं घर की सीमा संभालती हूँ
माँ के संग, पिता की भी
भूमिका बखूबी निभाती हूँ।
सास ,ससुर को न खले
कमी बेटे की
हर पल ये ध्यान रखती हूँ
बहु संग बेटा बन
सारे कर्तव्य निभाती हूँ।

रहते जब सीमा पर 'ये'
सब कुशल है
सब कुशल होगा
की कामना से
उम्मीदों की दीप जलाती हूँ
पर नारी मन जब घबराता
एक अनजाने भय से डरता
नमी अपनी आँखों की छुपा सबसे
एक मुस्कुराहट ओढ़ लेती हूँ
सैनिक की पत्नी
वामा उनकी,मैं उनकी अर्धांगनी
कैसे मैं कायर बन सकती हूँ?
सोच से ऐसे
खुद की हिम्मत बनती हूँ
'उनको' हिम्मत देती हूँ।
घर बाहर दोनों सम्भालती
'मेरी चिन्ता छोड़ो'
ऐसा कहकर 'उनको'
सारी घर की परेशानियों से मुक्त रखती हूँ
मैं सैनिक की पत्नी
मैं सब सम्भाल लेती हूँ।

नहीं होता आसान
सैनिक का खानाबदोशी जीवन
संग उनके बन सहगामिनी,सहचरी
पहाड़,जंगल, रेगिस्तान
सब मैं भी भटकती हूँ
नहीं ढूंढती मैं
भोग विलासिता
जंगल मे मंगल कर लेती हूँ!
कच्चे-पक्के, टूटे- फूटे
मकान को भी
घर बना लेती हूँ
मैं सैनिक की पत्नी हूँ
मैं सब कुछ सम्भालती हूँ
इसलिए अपने वीर पति की
वीरांगना गर्व से कहलाती हूँ।।।।

Monday 9 October 2017

धनक (चित्र प्रतियोगिता)

सुंदर धरा, सुंदर गगन
महसूस कर रही
ये निश्छल पवन
प्रभाकर की प्रभा निराली
मुझ संग
हर्षित,प्रकृति सारी
शिक्षा के है अब पंख लगे
अरमान बन अब खग
चहुँ ओर हैं ,उड़ने लगे
नही बँधे अब बस
घर से डोर मेरे
नही जीवन का मतलब
बस सात फेरे
अब उन्मुक्त मेरे स्वर
उन्मुक्त डगर!
सूरज सी मैं रही चमक
आत्मविश्वास से मैं रही दमक
चौके से चाँद तक
कहाँ नही है मेरी पहुँच?
धरा से व्योम तक
मेरी आवाज रही खनक
छा रही हूँ मैं
हर दिशा में बनकर
    धनक
बनकर धनक.....
 (धनक -इंद्रधनुष)

©अनुपमा झा
(नई दिल्ली)



Thursday 5 October 2017

शरद ऋतु

शरद ऋतु का आगमन
हर्षित धरा, हर्षित गगन
चारु चंद्र है मुस्काई
पादपों ने भी ली अंगड़ाई
 कुछ अलग मौसम में
है खुमारी छाई।

हौले हौले पवन चले
खेतों में फसल पके
न तन पसीना
घाम बहे
ऐसी मधुबेला आई।

दीपों की रंगोली सजे
मेहेंदी, महावर लगने रचे
त्यौहारों की खुशियों
की आहट ,संग लाई
है सबके मन को भाई।

चहुँ ओर है
आनंद, उमंग
लगे प्रकृति में
बजे ढोल ,मृदंग
मनमोहन,मनभावन
शरद ऋतु का आगमन
इसलिए हर्षित,पुलकित
ये धरा और गगन!!!!

Wednesday 4 October 2017

युद्ध

देश की सीमा पर डटे थे "वो"
मैं घर की सीमा संभाल रही थी
लड़ रहे थे "वो" दुश्मनों से
मैं खुद से लड़ रही थी
अखबार पढ़ने से डरने लगी थी
हर घड़ी कुछ हो न बुरा
बस यही सोचने लगी थी
एक अजीब सी दहशत
मुझमे भर गई थी
"युद्ध" एक चल रहा था सीमा पर
दिल और दिमाग की लड़ाई से
मैं भी जूझ रही थी!

पाक के नापाक
इरादों से बेखबर
युद्ध ये हुआ था अचानक
धोखे से दुश्मनों ने
पहाड़ की चोटियों पर
कब्ज़ा किया था
बिन सोचे समझे
की अंजाम क्या होगा भयानक!
ज़मीन की सतह से
आसमान सी ऊंची
पहाड़ो की चोटियों पर
पहुँचना था
अपने हौंसले तले
दुश्मनों को रौंदना था
भारतीय सेना भी थी क्रुद्ध
चलता रहा भारत पाक का
ये युद्ध!
कब्ज़े में वापस
अपनी ही जमीं को
ले रहे थे
अपने अजीजों को भी
साथ साथ खो रहे थे
बस न खोया
हौंसला और हिम्मत
"ये दिल मांगे मोर"
अंतिम सांस तक
शहीद कैप्टेन बत्रा
बोल रहे थे!
खोये भारत ने भी
अपने कई वीर सपूतों को
युद्ध ने न जाने
तोड़े कितने परिवारों को
चला जो दो महीनों तक
युद्ध अविराम
पाकर विजय ही
भारत ने इसे दिया विराम।

नहीं कुछ शब्दों में
कर सकती मैं बयाँ
युद्ध में हम
क्या खोते क्या पाते है
कुछ अपनों की
यादों के दीपक
उम्र भर जलाते हैं .....


Friday 29 September 2017

रावण

मैं रावण
"न भूतो न भविष्यति"
यह मेरा अभिमान
सार्वकालिक पंडित महान
वेदों का विद्वान प्रकांड
आयुर्वेद का ज्ञान अपरिमित
चिकित्सा ज्ञान भी असीमित
पद्य में पारंगत
संगीत,वाद्य में नही
कोई कर सकता था
मेरी संगत
सोने की लंका का अधीश्वर
मानते जिसका गुण सर्वेश्वर
मैं दशानन
मैं लंकापति रावण।

युगों से मुझे जलाते हो
बुराई का पर्याय मानते हो
मानता हूँ मैं
हुआ मुझसे
मर्यादा का हनन
क्रोध में था
मैं दशानन!
 बहन की इज़्ज़त का
करना था सम्मान
चूर्ण हुआ था
एक राजा का स्वाभिमान।
बस क्रुद्ध था मैं
        हाँ
हरा था सीता को मैंने
          किन्तु
नही किया सीमा उल्लंघन
नही किया चीर हरण
मुझमें अभिमान था
अपने स्वर्ण नगरी का
गुमान था!!

पर इस युग के मानव
तुम ये बताओ
युगों से करके
मेरा दहन
किया क्या तुमने ग्रहण??
साल में एक रावण जलाते हो
पर सौ रक्त बीज पालते हो
सब देखता हूँ मैं
और हँसता हूँ मैं
छोटी छोटी कन्याओं के साथ
होते देख बलात्कार
रोता भी हूँ मैं
अपने बुजुर्गों को भी
तड़पाते हो
अपने मन मे
कितने रावण छुपाते हो
मैं पर्याय हूँ
बुराई का
फिर क्यों नहीं
अपने अंदर के
रावण को ,मारते हो?
क्यों नही उसे जलाते हो?
मैं बहुत बुरा था
 यही सदियों से
चिल्लाते हो!

कितनी बुराइयाँ
गिनवाऊँ तुम्हारी?
तुम्हारे अवगुण हो गए हैं
तुम्हारे गुणों से भारी!
नहीं था मैं अत्याचारी
नही था मैं व्यभिचारी
तुम मनुष्य पहले
अपने अवगुणों को मारो
फिर मेरा पुतला जलाओ


Thursday 21 September 2017

दीवानगी

रात है,कुछ उमड़ते से जज्बात हैं
चाँद संग चल रही गुफ़्तगू
बस आपकी ही शिकायत
आपकी ही बात है

सोने सी दुपहरी में भी
आप का ही ताब है
ये दिल न जाने क्यूँ
बस यूँ ही बेताब है!

सिर्फ ख़्वाबों में ही बहार है
न मिलने का मलाल है
सितारों से टिमटिमाते ख्याल
यही रकीब यही मेरा यार है

मिलना आपसे कहाँ आसान है
कितने ही हिज्र की रातों के बाद
 आता आपका पैगाम है

दीवानगी मेरी दिख रही सरे आम
चाँद ने कहा हौले से
यही दीवानगी ही तो
मुहब्बत का नाम है

कलम और करछी

कलम और करछी
में हुई लड़ाई
कलम ने ललकारा
करछी को
करछी भी जोर से चिल्लाई!
कहना कलम का था
क्यूँ तेज़ आँच पर
अपने तेवर दिखाती हो
हिलती डुलती
अपने में ही
व्यस्त मन को रखती हो
पकती रहती सारी कल्पनाये
गल जाते सारे शब्द
करछी हिला थक जाते हाथ
फिर कैसे दे वो मेरा साथ?
फिर हो जाता हूँ
मैं भी मौन ,निशब्द
जब नहीं मिल पाता
किसी की भावनाओं
को शब्द

करछी धीरे से मुस्काई
कहा -वाह कलम
क्या यही सोच
मन में आयी!
कलम पकड़ने से किसी का
परिवार नहीं चलता
भूखे पेट तो शब्द भी
नहीं मचलता
कलम से हैं
शब्द ज़िन्दा
पर करछी चलाकर
जठराग्नि जलता
क्या कर सकता है
तू इंकार इससे
निकाल अपनी महत्ता का
वहम दिल से!

नीन्द से उठी
मैं कुछ घबराई
कुछ सकपकाई
ये थी किसकी आवाज़
क्या मैं ही थी चिल्लाई?
ये सपना था
या सत्य वाकई?

मन ही मन
कलम और करछी
की लड़ाई से
जूझ रही थी
दोनों के पहलू
बूझ रही थी!

यही निकाला निष्कर्ष
जो था मन का संघर्ष
कलम और करछी
का होना होगा संतुलन
तभी तृप्त होगा ये मन
न कलम पर करछी भारी
न करछी कलम पर हावी
दोनों के संतुलन से ही
चलेगी मेरी जीवन गाड़ी.....

एक ख्याल

कभी कविता
कभी कहानी सी
बनाना चाहती हूँ
शब्दों की तरह बिखेरकर
तुम्हें एक किताब सा
पढ़ना चाहती हूँ!

सर्दियों की गुनगुनी धूप में
हाथों में लेकर तुम्हे
एक कहानी सी
समझना चाहती हूँ
अपनी मन मर्ज़ी
हर्फ़ से सजाकर
अलग अलग पात्रों में
ढालना चाहती हूँ
अपने हाथों से
तुम्हे लिखना चाहती हूँ!

कभी कोहनी ,बिस्तर पर जमाए
हाथों को,गालों पर टिकाए
अपलक तुम्हें देखना चाहती हूँ
कविता सी तुम्हें
महसूस करना चाहती हूँ!

कभी सीने पर
यूँ ही रख
अपनी धड़कन
सुनाना चाहती हूँ!
आँखे बंद हो मेरी
पर तुम्हारे शब्दों पर
मुस्कुराना चाहती हूँ!

न किसी आहट पर
तकिये के नीचे, तुम्हे
छुपाना चाहती हूँ
न जिल्द लगाकर
दुनियाँ की नज़रों से
बचाना चाहती हूँ
तुम शब्द मेरे
तुम्हे दुनियाँ के सामने
लाना चाहती हूँ!

नहीं रखना चाहती
कोई फूल
उस किताब में
जो सूख मुरझा जाये
पुरानी बातों का
एहसास कराए
मैं तो नित नूतन
तुम्हें, कागज़ की खुश्बू सी
महसूस करना चाहती हूँ!

लिख जाना चाहती हूँ
हर एहसास
हर लम्हा
में तुम्हे
कभी छंद बनाकर
गुनगुनाना चाहती हूँ
कभी कहानी में
खो जाना चाहती हूँ
किताब सी तुम्हे
संभालना चाहती हूँ
अपना प्रेम मुखरित
करना चाहती हूँ!!!!



हिन्दी

लहज़ा हूँ,ज़ुबान हूँ मैं
प्राकृत-संस्कृत ज़े निकली
मिटटी की गुमान हूँ मैं
गंग-यमुनी सभ्यता से बहती
लिपि देवनागरी जिसकी
वो हिंदुस्तान की पहचान हूँ मैं!
न तुम मुझे एक विषय से बांधो
बस,मेरी मूल्य तुम आंको!
विद्वानों की विद्वता हूँ मैं
व्याकरण की संचिता हूँ मैं!
राष्ट्र भाषा हूँ मैं
करोड़ो की मातृ भाषा हूँ मैं
अपने वजूद को न
होते देखूँ लुप्त
वो अभिलाषा हूँ मैं!
सजे जो भाल पर हिन्द के
वो बिंदी हूँ मैं
हिंदुस्तान की हिंदी
हूँ मैं!
संभालो मुझे किसी धरोहर सी
भाषा की विनती हूँ मैं
हिन्दी हूँ मैं
हिंदी हूँ मैं!!!!

Wednesday 20 September 2017

खामोश कविता

शब्द नहीं मिल रहे
कुछ लिखने को
शायद आज कविता
आराम करना चाहती है
कुछ विश्राम करना चाहती है

थक गयी है लिखकर
चाँद, तारों, फूल,पत्तियों पर
कुछ अनकहे को
कहने की कोशिश पर
संजो कर बस भावों को
उनमें खोना चाहती है
आज शायद कविता
आराम करना चाहती है।

कोई गाता ,कोई उसे गुनगुनाता है
कोई उससे सुख,दर्द बताता है
आँसुओं को शब्दों में लिखता कोई
कोई प्रणय गीत सुनाता है
सब दुःख सुख को
अपने में जज्ब करना चाहती है
आज कविता खामोश रहना चाहती है।

होती होंगी उसको भी
परेशानियाँ कितनी
मन में हैरानियाँ कितनी
नपे-तुले शब्दों में
बंधकर रहती है
नहीं कहानी की तरह
बहुत से पात्रों में बसती है
बंधनों से कुछ देर
उन्मुक्त होना चाहती है!
आज कविता शायद
कहानी सी बन
 जाना चाहती है
कल्पना से हटकर शायद
अपना कोई कोना चाहती है!
चुप है,खामोश है
बस शब्दों को परखना चाहती है
आज कविता बस
 आराम करना चाहती है
कुछ खामोश रहना चाहती है......


Monday 18 September 2017

बिहार

बिहार हूँ मैं
बिहार हूँ मैं
जन्म सीता का हुआ जहाँ
वो पावन पहचान हूँ मैं
हाँ ,बिहार हूँ मैं!

महावीर,गौतम का जन्म स्थान
जैन,बौद्ध धर्म का गहरा निशान हूँ मैं
गुरु गोविंद सिंह की जन्मभूमि
वो स्थान हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

मेरी मिट्टी से निकला
खगोल,गणित का ज्ञान
विद्वानों का अनुसंधान
दिया आर्यभट्ट ने ये
उनका ऋणी हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

पाणिनि का व्याकरण
सबने किया जिसका
अनुकरण,अनुसरण
वो महेश्वर का सूत्र हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं

वात्सायन का कामसूत्र
अश्वघोष का दर्शन हूँ मैं
कवि मन का गीत
उन्मुक्त छंद हूँ मैं
गौरवमय इतिहास हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

अशोक का शौर्य हूँ मैं
चंद्रगुप्त मौर्य हूँ मैं
चाणक्य की नीति
दे रहा गवाही
 विश्व जिसकी
वो राजनीति हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

वैशाली,नालंदा का इतिहास हूँ मैं
वैभव,ज्ञान,संस्कृति का प्रमाण हूँ मैं
कोसी,सोन,गंगा,गंडक
की निनाद हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

गौरव हूँ मैं
गौरवान्वित हूँ
पहला राष्ट्रपति बना
इस माटी से
इस सम्मान से
सम्मानित हूँ
एक नहीं कई लाल हैं
चमकते जो मेरे भाल हैँ
सबके यश,कीर्ति का
मिसाल हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

विद्यापति का गीत
दिनकर की कविता हूँ
नागार्जुन,रेणु, बेनीपुरी
जैसे विद्वानों की विद्वता हूँ
एक अद्भुत गान हूँ मैं
गुणमय पुरखों का
सम्मान हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!

बनाये रखो सम्मान मेरा
न टूटने पाये अभिमान मेरा
बीते दिनों की शान केवल,
ऐसा नहीं,
राष्ट्र का वर्तमान हूँ मैं

श्रम बने सम्मान मेरा
प्रगति हो अभिमान मेरा,
जन-जनों के मन की आशा
बस इतनी सी मेरी अभिलाषा
इन्द्रधनुष विशाल हूँ मैं
आपका बिहार हूँ मैं
हाँ बिहार हूँ मैं!


Friday 8 September 2017

तर्पण

दो साल हो गए
आप के बिन
आपकी यादों के संग
लिये कुछ आपकी
इच्छाओ को पूरा
न कर पाने का रंज!

बस इतना ही तो
चाहा था आपने
न छोड़ू मैं
मैं अपनी लेखनी का साथ
पर "लिख रही हूँ"
कहकर टालती गयी
आपकी ये बात।

वक़्त ने ली करवट
लेखनी मेरी हुई मुखर
शब्द रहे कुछ निखर
 भाव नहीं रहे बिखर
सब आपके आशीष का
ही तो है असर।

मिलती जब प्रशंशा कभी
यही लगता है सुनकर
आप होते तो
कितने खुश होते
आप क्या कहते
जब मेरा लिखा पढ़ते!

पर मेरी ये कल्पना
बस कल्पना रह जायेगी
लेखनी मेरी आपकी
मुस्कान देख न पायेगी।

चल रहा अपनों का श्राद्ध तर्पण
बिन जल,तिल, कुश
कर रही मैं
अपनी लेखनी आपको अर्पण
अश्रु पूरित आँखों से
यही मेरा तर्पण !!!
यही मेरा तर्पण !!!

Saturday 2 September 2017

प्रियतम ( picture prompt आगमन)

प्रियतम
यूँ न देखो मुझे
वाचाल से मूक बन जाऊँगी
फिर रह जायेंगी सारी बातें
व्यक्त्त कहाँ मैं कर पाऊँगी !
न बनो तुम कान्हा से चंचल
मैं राधा नहीं बन पाऊँगी
नहीं मैं तुम संग हँस हँस
अपना प्रेम छुपा पाऊँगी!
नयन गर मिले नयन से
सारी अनकही ,कह जायेंगे
नहीं अधरों की तरह
नयन मेरे शर्मायेंगे!
छुपाया था  बड़े जतन से
सब यूँ ही कह जाऊँगी
फिर न कहना
प्रियतम कुछ मुझसे
मैं भावों के रंग,रंग जाऊँगी
मीरा जैसी दीवानी फिर
शायद मैं भी बन जाऊँगी!
धड़कन में मेरी
प्रिय नाम तुम्हारा
कैसे मैं साँसों में
छुपा पाऊँगी !
प्रियतम यूँ न देखो मुझे
मैं बेबस हो जाऊँगी
तुम्ही कहो कैसे मैं
तप्त ह्रदय को समझाऊँगी!
मधुर बंधन ये तुम्हारा मेरा
बंधकर भी है नहीं बंधा
 बात किस किस को
मैं ये बतलाऊँगी!
प्रियतम यूँ न देखो मुझे
मैं नहीं "मैं" रह पाऊँगी

©अनुपमा झा




Wednesday 30 August 2017

मैं

मैं रामायण की व्यथा
महाभारत का प्रपंच भी मैं
मैं गीता ,कुरान
भगवद पुराण भी मैं

सीता ,सती का स्वाभिमान भी मैं
रावण का अभिमान भी मैं
द्रौपदी का दाँव भी मैं
कृष्ण का छाँव भी मैं!
दुर्योधन का अहं भी मैं
कर्ण की दुविधा भी मैं
शकुनि का लालच 
भीष्म की प्रतिज्ञा भी मैं

मैं ही हिमालय की शीतलता
रेगिस्तान की आग भी मैं
सागर का शोर 
नदियों की  निनाद भी मैं

सिंधु की सभ्यता भी मैं
तक्षशिला की प्रखरता भी मैं
नालंदा की विद्वता भी मैं
चाणक्य की पटुता  भी मैं

संस्कृत सा दुर्लभ
हिंदी की सुगमता भी मैं
असंख्य भाषाओं की किताब
जाति, वर्ग,भेद का हिसाब भी मैं

बुद्ध का बोध भी मैं
इसरो का शोध भी मैं
ऋषि मुनियों का ज्ञान भी मैं
विश्व का सुन्दरतम स्थान भी मैं
युगों से टूटते ,बिखरते 
आर्यावर्त का साक्ष्य भी मैं
प्रमाण भी मैं

 सदियों से देखता न्याय भी मैं
सहता अन्याय भी मैं
पर मजबूर,लाचार भी मैं

विभक्त भी मैं
कभी विभोर,वीभत्स भी मैं
सत्यम ,शिवम्,सुंदरम सा
जो बसता सबके दिल में
वो आप सब का हिंदुस्तान हूँ मैं

आपका भूत ,भविष्य,वर्तमान हूँ मैं
जैसा भी हूँ ,संभालो मुझको
पुरखों की धरोहर ,आन हूँ मैं
आपका अपना हिंदुस्तान हूँ मैं
आपका अपना हिंदुस्तान हूँ मैं......

Thursday 24 August 2017

शब्द और तुम

मैं तो यूँ ही शब्दों को लिखती हूँ
क्यूँ बीच में आ जाते हो तुम?
फ़ैल जाते हो कागजों पर
बन कर एहसास
दिखने लगते हो,
धड़कनो की लय में
बजने लगते हो।
तुम्हारा मौन,तुम्हारी चुप्पी
भी तो वाचाल हैं
कितनी कहानियाँ सुना जाती हैं
कानों में धीरे से
तुम्हारा दर्द गुनगुना जाती है
और फिर फ़ैल जाती है
कागज़ पर
मेरी लेखनी फिर कहाँ
संभाल पाती है!!


ख्वाहिशें

कहीं से भी आ जाती है ख्वाहिशें
कोई सा भी रूप ले लेती ख़्वाहिशें
कभी बन तितली
खूबसूरत मीठे पराग चुराती
शहद सी मीठी,ख्वाब दिखाती ख़्वाहिशें।
कभी बन पँछी
किसी भी ओर उड़ती
कभी इस डाल, कभी उस डाल
 बैठती ये ख़्वाहिशें।
ऊँचे पेड़ सी बढ़ जाती
फैलाती रहती हैं शाखाएँ अपनी
फैलती,फूलती,टूटती रहती
लगती पेड़ो सी ये ख़्वाहिशें।
बादलों सी हल्की- फुल्की
इधर-उधर घूमती
बिन आकार,बिन रूप संवरती
फिर कभी बरसती सी ये ख़्वाहिशें।
कभी सागर सी मचलती
कभी शांत नदी सी
पर निरंतर पानी सी बहती, ये ख़्वाहिशे।
कभी बिंदी बन,तारों सी सजती
कभी काजल सी फैलती
स्याह सी ये ख़्वाहिशें।
हर एक के आँखों में सजती
बचपन से बुढ़ापे तक मचलती
बनकर बोन्साई भी
हर दिल में उगती ये ख़्वाहिशें।

Friday 11 August 2017

तिरंगे की व्यथा

हर नुक्कड़ ,हर चौराहे पर
दिखने और बिकने लगा हूँ
देशभक्ति के गानों में
खुद को सुनने लगा हूँ।
Tv पर हो रहे चर्चे मेरे
देशभक्ति की बातों से है
अख़बारों के पन्ने भरे,
Social sites मे
लोगो की छवि के ऊपर
मैं छाने लगा हूँ
इन दिनों मैं भी
Viral होने लगा हूँ।

आती है याद मेरी,लोगों को
स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस पर
छलकता है प्यार,मुझे नुमाइश बनाकर
लोगो के बालों और गालों पर सजने लगा हूँ
और सामानों के साथ दिखने और बिकने लगा हूँ
आज के युग पटल पर
एक नुमाइश का सामान बनकर रह गया हूँ।

I love my India
कहकर बस जागती देशभक्ति
क्रिकेट के match में मैं
सबसे ज्यादा दिखने और बिकने लगा हूँ।

शहीदों के देह से
 लिपटकर जब मैं आता हूँ
रोता हूँ फिर भी
 खुद को स्वाभिमानी पाता हूँ
बहुत व्यथित होता हूँ मैं
रोड पर पड़ा जब
खुद को देखता हूँ
कभी पैरों से भी
कुचला जाता हूँ
कभी कचड़े में पाया जाता हूँ।

केसरिया और हरे रंग से मिलकर बना हूँ
फिर भी धर्म के विवादों से मैं नहीं घिरा हूँ।
रंगों के विवाद पर
नदियों के निनाद पर
होती राजनीति रोज़ देखता हूँ
देशभक्ति की आड़ में
नेताओ को खुद से छलते देखता हूँ।

मेरी बस एक गुजारिश सबसे
रखो जज्बा देशभक्ति का दिल से
बस हाथ में तिरंगा लेना काफी नहीं
अहमियत इसकी पूछो खुद से
देश के अंदर न रौंदो न जलाओ मुझे
नहीं सही जाती ये पीड़ा मुझसे
सात दशकों से देख रहा हूँ
अब मैं भी बुज़ुर्ग हो चला हूँ।

Friday 4 August 2017

Three words

You never believed in saying
Miraculous three words
But I feel it
With your every touch.
In your arms
I feel so safe
Nothing between Us is fake
Your eyes tells me
You are there for me
No matter ,what may come
You'll be there to stay,everyday
Looking after my small small needs
Tells the tale of all your deeds.
I admit
Some times I crave to hear
Three magical words I love you dear
But you say
Always for you dear
I Am THERE

You and me

I was lost in this world
You have found me
Have given directions,to my thoughts,
Have restored my faith
Have given me reason,to endure,to feel
You have the power
To prise a smile out of me
Even in the days when I feel blue
You have the power, to make me feel wanted
At times when I feel lost,in an ocean of familiar faces
You have the power to make me feel Unique and intelligent
Whenever I feel,I cannot live up to my expectations
You have the power,to give me Courage and Hope
When I no longer have the strength
To believe in my convictions
You My Love
Have given reasons to restore memories to smile
And above all
TO LIVE TO LOVE...

Friday 21 July 2017

इज़हार

दबा सा था,
दिल के अंदर कहीं
                अब
अंकुरित, प्रस्फुटित हो
प्रेम  पुष्पित होने लगा
दबी दबी जो थी अधरों पर
अब मुखरित होने लगा

आँखों में काजल सा फैलने लगा
माथे पर बिंदी सा उभरने लगा
पायल की रुमझुम में
संगीत सा बजने लगा
लब गीतों को गुनगुनाने लगा
दिल मेरा प्रेम प्रदर्शित करने लगा !

होते ही शाम सितारों सा
एहसास मेरा जगमगाने लगा
चाँद में सूरत तेरी देखने लगा
सुबह फ़ैल धूप  सा आँगन में
मेरे हर कोने को रोशन करने लगा
कैसे न हो इज़हार
प्यार मेरा सूरज सा चमकने लगा !

लिखने बैठूँ तो लिख जाती हूँ तुम्हें
मेरा कलम भी मुझसे
 बगावत करने लगा,
कटाक्ष लिखूँ तो
कलम प्रेम-श्रृंगार लिखने लगा
मेरे भावों का इज़हार करने लगा !

मेरे प्रेम के खुमार से
कवितायें मेरी तुमसे जलने लगी
मेरी धड़कनों में सिर्फ नाम तुम्हारा
शायद इन्हें कुछ खलने लगीं

कर दिया इज़हार प्रेम का
कर दिया अभिव्यक्त खुद को
न कराओ अब इंतज़ार
पल भी अब तुम बिन
 सदियों सा लगने लगा

पुष्पित प्रेम कुसुम
अब बगिया सा महकने लगा
इज़हारे प्यार क्या किया
देखो कलम भी बहकने लगा
चहुँ ओर बस प्रेम दिखने लगा
दे दो बस एक इशारा इकरार का
मन बावरा ये होने लगा !!!


Tuesday 18 July 2017

कब तक

कब तक
कविता में सजती रहेगी
चूड़ियाँ सिर्फ गोरी कलाई में
कब तक
गोरा मुखरा ही बसेगा
चाँद की सुंदरता और अंगड़ाई में
कब तक
दूधिया सफेदी
रंगेगी सुंदरता की कल्पना
 कब तक
रंग- भेद की
चलती रहेगी ये विडंबना
कब तक??

कई बार

कई बार चाहा
कितना कुछ कहना
पर नहीं कह पाती
शब्द,जुबाँ तक आते नहीं,
पता नहीं ,क्यूँकर
बेजुबान हो जाते हैं।
ठहर से जाते हैं,
आँखों से भी
बयाँ कहाँ हो पाते हैं!
झिझकते हैं
पता नहीं किससे
शब्द शायद
बन न जाए किस्से
धड़कन के आरोह अवरोह
में बजता संगीत
अंदर ही अंदर
सुनती हूँ
नहीं गा पाती
नहीं कर पाती लयबद्ध
कुछ अकथ बात
एक नारी के जज्बात
दब जाते हैं,
अपने ही
धड़कनों के आरोह अवरोह में
सुरबद्ध होने को
लयबद्ध होने को.......

Monday 17 July 2017

होती अगर

होती अगर
बदली सी यादें तो
घूम घूम घुमड़ घुमड़
बारिश बन बरस जाती
बरस कर फिर थम भी जाती।

होती गर चाँद सी
ये यादें
बस रहती, रहते अमावस के
पूनम के आते ही
कहीं गुम हो जाती।

 होती गर फूल सी यादें
खिल ,मुरझा,झड़ जाती
सब बातों को
दफ़न कर जाती।

होती गर ओस सी यादें
गीली,नम होकर
सूख भी जाती
फिर न आती

पर यादें लगती मुझे
विशाल हिमखंड सी
जमी रहती है
कतरा कतरा
कतरा कतरा
पिघलती है
कतरा कतरा
पिघलती हैं........

Thursday 13 July 2017

जन्नत

अनुपम सुंदरता लिए
अपने रूप यौवन पर हर्षित
इस सुन्दर वादी को
किसकी नज़र लग गयी
लम्बे ,गगनचुम्बी
चीर, देवदार, चिनार
सब की सुंदरता
किस को खल गयी!

झेलम की कलकल निनाद
है आज भयाक्रांत
पता नहीं धार इसकी भी
बाँट न ले,कोई कहीं
हलचल इसके सीने में भी मच गयी
पता नहीं इस वादी को
किसकी नज़र लग गयी!

श्वेत हिम आच्छादित पर्वत
लाल से दिखने लगे
शहीदों के  खून संग
ये भी जमने लगे
कौन अपने कौन पराये
नज़र सबकी तंग हो गयी
पता नहीं इस वादी को
किसकी नज़र लग गयी

रब ने बनाकर यह जन्नत
कुछ इंसान बसाया था
मजहब का पाठ पढ़
नफरत की लहर बह गई
इंसानियत वहशियत में बदल गयी
पता नहीं इस वादी को
किसकी नज़र लग गयी

लालसा ,राजस्व ,लोभ ,पिपासा
चिनार,देवदार से भी ऊँची हो गयी
जन्नत बनी ये घाटी
आहिस्ता आहिस्ता
जहन्नुम में परिवर्तित हो गयी
पता नहीं इस वादी को
किसकी नज़र लग गयी

खिले मनोरम फूल जहाँ
फलों और केसर की महक वहाँ
उस केसरिया रंग में
रंग कुछ नफरत की भी है घुल गयी
पता नहीं इस वादी को
किसकी नज़र लग गयी!

मुलायम बर्फ सी, निष्कपट सी
थी यहाँ की सर जमीं
अखरोट भी जहाँ मुलायम और कागज़ी
वहाँ बर्बरता, पाखंडता, लालच है मची
कौन है महफूज़ यहाँ
कहाँ है सबकी ख़ुशी
बस इसी बहस में
चलती जायेगी ये ज़िन्दगी
यूँ ही बन जायेगी जहन्नुम
ये हमारी जन्नत दिलकशी.....

Sunday 9 July 2017

विरह

लो आई रिमझिम फुहार
क्या सुन ली
बादलों ने मेरी मनुहार?
तभी शायद गा रहा
मेघ ये मधुर मल्हार।

दूर कहीं सीमा पर बैठे
मेरे साजन को
क्या ये बादल छूकर आए!
इन बूँदों में खुश्बू उनकी
जो मन मेरा महका जाए!
सौंधी मिट्टी की खुशबू
बिल्कुल तेरी यादो सी
ये मनमोहक फुहार
बिलकुल तेरी बातों सी
देखो न कैसे
दोनों घुलमिल गाए
आओ साजन न इन पलों को
यूँ व्यर्थ गवाएँ!

हूँ तुम्हारी वामा, वीरांगना
सीख लिया है
घर की सीमा को संभालना
पर दर्द विरह का न अब सहा जाए
ऐसी प्यारी बरसात में
तुम ही कहो
कैसे अब रहा जाए।

इन बूँदों ने बस भिगोया मेरा तन
तुम बिन यूँ ही
बंजर पड़ा ये मन।
बारिश की बूँदों से
अश्कों को अपने छिपा रही
बहुत खुश हूँ मैं
सबको यूँ बहला रही ।

श्रापित यक्ष ,यक्षिणी के विरह को
महसूस कर रही
इन मेघों को मैं भी
दूत बना पास तुम्हारे
भेज रही।
अगली बारिश में
चाहिए बस मुझे
अपने साजन के बाँहों का गलहार
और न हो कोई मेरा श्रृंगार
ओ मेघ
 बस इतनी सी मेरी
 लगा दे गुहार
यही मेरा तुमसे मनुहार
बन प्रेम बूँद
बरसू मैं भी
और बरसाऊँ
साजन पर
अपना प्यार!!!!!!

अनुपमा झा
(नई दिल्ली)
स्वरचित



Friday 30 June 2017

माँ की तस्वीर

चलो एक कोशिश करती हूँ
माँ की तस्वीर बनाती हूँ
आकार तो बना लिया
पर भाव कहाँ से लाऊँ?
आँखों मे तस्वीर के
माँ का प्यार कहाँ से लाऊँ?
बनाती हूँ,मिटाती हूँ
पर कुछ है अधूरा सा
जो मैं रंग नहीं पाती हूँ
चलो एक कोशिश करती हूँ
माँ की तस्वीर बनाती हूँ।
तस्वीर में माँ को सजाती हूँ
बड़ी सी बिंदी भी लगाती हूँ
पर काम में लगे माँ के
हाथों से फैले ,बिंदी की सुंदरता
नहीं ,तस्वीर में उतार पाती हूँ।
लगती तस्वीर कुछ अधूरी सी
नहीं माँ तेरी जैसी पूरी सी
लाल रंग से होठों को सजाती हूँ
पर तुम्हारी स्मित
नहीं चित्र में उतार पाती हूँ
फिर भी कोशिश करती हूँ
माँ की तस्वीर बनाती हूँ।
प्रेम,समर्पण, निश्छलता, ममता
सारे गुण सिमटे माँ तुममे
नहीं ये सारे भाव
कैनवस पर अंकित कर पाती हूँ
फिर भी कोशिश करती हूँ
माँ की तस्वीर बनाती हूँ।
बन गयी तस्वीर अब जो
सब कोने से उसे निहारती हूँ
पर कुछ है अब भी
अधूरा सा
जो समझ मैं नहीं पाती हूँ।
सारे कृत्रिम रंगों को मिला जुलाकर
एक माँ की तस्वीर बनायी
पर अपनी कूची से
विधाता के बनाये "माँ" से
कहाँ मैं अच्छा चित्रित कर पायी!!







Tuesday 27 June 2017

डाकिया

खाकी वर्दी ,सर पर टोपी हुआ करती थी
उसकी साइकिल की ट्रिन ट्रिन की
एक अलग आवाज़ हुआ करती थी
चश्मे के नीचे से झाँकती
उसकी मुस्कान थी
कंधे पर टंगा झोला ,
उसकी पहचान थी।
इंतज़ार में उसके
पूरा घर रहा करता था
पैगाम वो खत के रूप में
लाया करता था
किसी ज़माने में
ऐसा डाकिया हुआ करता था।
जाने ,अनजाने लोगो के
दुःख सुख से जुड़ा होता था
खुशखबरी वो कुछ
नख़रे दिखाकर दिया करता था।
कभी पैसे तो कभी मिठाई
लिया करता था,
लोगों से भी रिश्ता जुड़ा रखता था
किसी ज़माने में
ऐसा डाकिया हुआ करता था।
समय ने ली करवट
स्वरुप सबका बदल गया
लिफाफा, डाक टिकट, डाकिया
सब मशीन बन गया
न होती ट्रिन ट्रिन की आवाज़ अब
न होती डाकिये की पदचाप अब
खत आना हुआ बंद अब
धड़कते दिलों से खत का लेना
हुआ ख़त्म अब
डाकिया भी गुमनाम अब
ड से डाकिया
शायद यही उसकी पहचान अब।
हाँ ,किसी ज़माने में
होता था ऐसा डाकिया
किताब और गूगल बताया करेगा
ऐसे पहचान डाकिये की
सबसे करवाया करेगा......


बरस ओ बादल

ओ बादल जमकर बरस
सूखी, तपती धरती
रही तेरे स्पर्श को तरस
करवा लेना मान मनुहार
दिखा लेना अपना रोष
गुस्सा तुम्हारा लोगों से
बेचारी धरती का क्या दोष?
प्रगति के नाम पर लोग
प्रकृति को रहे उजाड़
कर रहे सब धरती पर ही अत्याचार
देखो न
धरती कैसे कातर नयनों से रही निहार
लगा रही तुमसे गुहार!
बादल और धरती का रिश्ता बेजोड़
फिर ऐसे कैसे तुम
आहिस्ता आहिस्ता बंधन ये
दिए जा रहे हो तोड़?
इस विशाल धरती की
बस तुम्ही मिटा सकते प्यास
तुमसे ही बस अब
इसकी आस
ओ बादल अब तो खा तरस
जमकर बरस
खूब बरस
खूब बरस!!!!

शायद






 कुछ अनकहे शब्दों में
कुछ अधूरे छन्दों में
कुछ अधूरे से सवाल में
कुछ उलझे से ख्याल में
तुम्हारे पुराने घर की दीवारों में
टिमटिमाते सितारों में
रतजगे के आलिंगन में
मासूम से चुम्बन में,
बंद पड़े लिफाफों में
खत के अल्फ़ाज़ों में,
किसी डायरी के पन्नों में
फंसी हूँ कुछ हरफ़ो में
साथ सुने गीत में
यादों के मधुर संगीत में,
तुम्हारे अच्छे, बुरे ख़्वाबों में
तुम्हारी शहर की हवाओ में
तुम्हारी आस्था और विश्वास में
तुम्हारी चढ़ती, उतरती श्वास में
तुम्हारी दर्द भरी मुस्कान में
तुम्हारी अपनी पहचान में,
तुम्हारे नेह के गुमान में
शायद
मैं अब भी बाकी हूँ तुममे
शायद!!!


Sunday 25 June 2017

ख़ुशी

खुश रहने लगी हूँ,
चहकने लगी हूँ,
शब्दों के पंख क्या लगे
मैं तो उड़ने लगी हूँ।
कल्पना की उड़ान है,
असीम जहान है
बनाना अपनी पहचान है,
कुछ बुनने लगी हूँ
कुछ लिखने लगी हूँ
आजकल ,खुश रहने लगी हूँ।
लग रहा जैसे
नयी सी हो गयी हूँ,
लहरों,छन्दों के नए भाव
रोज़ पहनने लगी हूँ,
हर लफ़्ज़ों में ,हर पन्नो में
नयी आशाएँ देखने लगी हूँ
आजकल,खुश रहने लगी हूँ।
कविताओं के दिए जलाने लगी हूँ
कल्पनाओं की बाती से
रूह रोशन करने लगी हूँ।
चाहती हूँ फैले रौशनी
हो चहुँ ऒर उजियारा
अपनी लेखनी से
लौ प्रज्ज्वलित करने लगी हूँ
आजकल बहुत खुश रहने लगी हूँ।
भावों के रंगों से ओतप्रोत रहने लगी हूँ
शब्दों से होली खेलने लगी हूँ
देख बढ़ते ,घटते  चाँद को
सेवइयों की कल्पना करने लगी हूँ,
रोज़ ही ईद ,होली मनाने लगी हूँ,
आजकल बहुत खुश रहने लगी हूँ।
कभी तितली कभी भंवरा
कभी फूल बन जाती हूँ
कभी बादल, कभी बारिश बन
शब्दों को सींच जाती हूँ
सौंधी सौंधी मिटटी की
 खुश्बू सी कविता
को हरपल महसूस करने लगी हूँ
आजकल बहुत खुश रहने लगी हूँ
बहुत खुश रहने लगी हूँ....





Tuesday 13 June 2017

पुरुष

नहीं पुरुष होना आसान होता है!
तुम पुरुष हो,रो कैसे सकते हो
तुम पुरुष हो तुम सब झेल सकते हो!
बचपन से उसे ये सुनना पड़ता है
कोमल मन को भी
पाषाण बनाना पड़ता है
नहीं पुरुष होना आसान होता है!

यौवन की दहलीज पर आते ही उससे
उम्मीदों की झड़ी लग जाती है
सबकी उम्मीदों पर उसे
खड़ा उतरना पड़ता है,
अपने स्वप्नों को भूल
माँ बाप के देखे स्वप्नों को
पूरा करता रहता है
नहीं पुरुष होना आसान होता है!

सब बातों की जिम्मेवारी
कंधो पर आ जाती है
मुश्किल हालातों में भी
मुस्कुराता रहता है क्योंकि,
रोते नहीं पुरुष
वो खुद को ये समझाता है!
नहीं पुरुष होना आसान होता है!

माँ, बाप,घर,परिवार
सबके लिए जीता है
उनकी ख़्वाहिशों की खातिर
अपने को वो भूलता है
सबके नाज़ों नख़रे वो सहता है
नहीं पुरुष होना आसान होता है!

बच्चे उनके उनसे बेहतर जीए
पत्नी की मुस्कान न हो कम
माँ बाप की उम्मीदों पे हो खड़ा
न हों रिश्तेदार ख़फ़ा
सबका हिसाब उसे रखना पड़ता है
नहीं पुरुष होना आसान होता है!

स्त्री जीवन गर है मुश्किल
तो पुरुष का जीवन भी
आसान कहाँ होता है?
अपवादों की बातें छोड़ो
अपवाद कहाँ नहीं होता है?
नहीं, पुरुष होना भी
 आसान होता है!!!!






रेशमी एहसास

कभी नहीं भूल सकती
वो खूबसूरत एहसास
तेरी रेशम सी छुअन का
जब नन्हे नन्हे से हाथों ने
छुआ था मुझे पहली बार।
झंकृत कर गया था,
मेरे शरीर का एक एक तार।
बजा गया संगीत
ममत्व और वात्सल्य का
बस,तुम्हारी वो नन्ही सी
रेशम से भी रेशमी
छुअन करा गयी
एक पूर्णता का एहसास....

बाल मजदूर

छोटा सा छोटू
अचानक से बड़ा हो गया
पिता की मृत्यु के बाद
घर का पिता बन गया।
कभी ईंटे उठाई,
कभी किसी ढाबे पर चाय बनाई
कभी की बूट पॉलिश, कभी की पुताई
दो पैसे मिले जहाँ ,वहीँ की उसने कमाई।
छोटी सी मुन्नी ने भी
अपनी जिम्मेदारी है दिखाई
गुड्डा गुड़िया खेलने की उम्र में
छोटे भाई बहनों को संभालती,
कभी पत्थर ढोये
कभी घरों के जूठन धोए
उसने  भी हैं अपने सपने खोए।
ज़माने की गन्दी नज़रो की भी शिकार हुई
पर सुनता कौन उसकी
वो लाचार हुई।
ढोते ढोते जिम्मेदारी
कब बचपन इनका जवान हुआ
क्या होता है बचपन
उन्हें न कभी भान हुआ।
नाम के छोटू ,मुन्नी
मेहनत ,मजदूरी कर
घर के बड़े बन जाते हैं
सपने इनके पोटली में
धरे के धरे  रह जाते हैं।
गरीबी,विवशता,लाचारी
ये सब लाइलाज बीमारी
बाल मजदूरी से शुरू होता बचपन
मजदूरी की ही राह बिताते हैं
कहानी ये असंख्य
 छोटू मुन्नी की
जो न कंधों पर
बस्तों का बोझ उठाते हैं
गरीबी और जिम्मेवारियों के बोझ तले
स्वतः ही बाल से बुजुर्ग बन जाते हैं।

Thursday 8 June 2017

किसान

एक जिज्ञासु बच्चे का सवाल
क्या होता है किसान?
क्या वो mall जहाँ से
हम लाते खाने का सामान?
क्या दूँ मैं किसान की परिभाषा?
पर खत्म भी करनी है
बच्चे की जिज्ञास
     क से किसान
हल का जिसके
कंधे पर है निशान
दिन रात धरती पर,जो मेहनत करता
कभी धूप, कभी पानी को तरसता
जो अन्न हमारा है उपजाता
वही है किसान कहलाता।
दिन भर कड़ी मेहनत,भी उसकी
कभी बाढ़ कभी सूखा में
खाक हो जाता।
पसीने से उसकी सूखी धरती
भी न पसीजती
बारिश की बूँदों को
सिर्फ आँखें ही नहीं
उसकी आत्मा भी तरसती।
कभी बाढ़ की मार वो सहता
संग आँसू उसके
फसल का सपना बहता।
फसल उगे जो सोने से
व्यापारी उनको सही मोल न देता।
कृषि प्रधान देश में
हमारा किसान अपने हक़ के लिए
लड़ता ,मरता है
आत्महत्या तक करता है
घर परिवार को क़र्ज़ में
डूबो कर जो छोड़ जाता है
दर दर जो ठोकरें खाता है
"योजनाओं" के अंतर्गत जिसका
नाम सबसे पहले आता है
मेरे बच्चे
इस देश में किसान
वही कहलाता है......





Wednesday 7 June 2017

यादें

किस पन्ने से शुरू करूँ
यादों का किस्सा,
सब यादों की अपनी जगह
सब यादों का अपना हिस्सा।
कुछ यादें बचपन की
कुछ लड़कपन की यादें
कुछ कट्टी दोस्ती की
खट्टी मीठी सी यादें
कुछ यौवन के सपनो की
बंद और खुली आँखों वाली यादें
उफ्फ़फ़ ये यादें...
यादों की एल्बम से
कई भूले बिसरे दोस्त याद आ गए
जिन्हें वक़्त की दौड़ में न जाने
हम कब भूल भूला गए।
दोस्तों संग बेवजह खिलखिलाने की यादें
बेवजह बात पर शर्त लगाने की यादें
छेड़, छाड़, प्रेम मनुहार
उफ्फ़फ़ कितनी ही यादें।
कितनी सार्थक यादें,
कितनी निरर्थक यादें,
कितनी हँसाती यादें,
कितनी रुलाती यादें,
ज़िन्दगी के अनुभवों की यादें
उफ्फ़फ़ ये यादें।
यादों से कभी बढ़ता जीवन,
कभी जीवन से बढ़ती यादें,
 हो जाता है जीवन शेष ,
पर रह जाती यादें अशेष
हाँ ये यादें
उफ्फ़फ़ ये यादें....









Monday 5 June 2017

बाल विवाह

"अपनी गुड़िया की शादी रचनी है
मुझे नहीं शादी करनी है"
शब्द ये कहते कहते थक गयी
पर मुनिया की शादी रची गयी।
पति की उम्र अधेड़,
घर में कामो का ढेर
पति के पहले वाले दो
बेटियों की माँ बन गयी
छोटी मुनिया अचानक से
बड़ी बन गयी।
कभी इस आँगन ,कभी उस आँगन
जो चहकती थी,फुदकती थी
उसके पर दिए क़तर
आँगन में बंधी ,पल्लू के संग,
फूँक रही थी चूल्हा
या अपने अरमान?
कौन जाने,हे भगवान!
काला धुआँ फूंक रही थी
या अपने नसीब को
धूक रही थी!
क्या थी उसकी गलती
अपने नसीब से पूछ रही थी।
कुछ दिनों बाद
घर में मिठाई बंट रही थी
मुनिया माँ बन गयी थी
            पर
प्रसव की पीड़ा सह न पायी
एक और मुनिया दे
इस पीड़ा से उसने मुक्ति पाई।
बेटी जन्म के ताने सुनने को
वो नहीं बच पायी थी
जाते जाते चढ़ती सांसों से
बस इतना कह पायी थी
बाल विवाह न करवाना इसकी
नहीं तो भरती रहेगी
ये भी एक मुनिया बन सिसकी.......




Sunday 4 June 2017

चिड़ियाँ की व्यथा

 चिड़िया कुछ सोच रही है
कम होते पेड़ो को देख ,व्यथित हो रही है
कहाँ होगा हमारा घरबार
कहाँ बसेगा हमारा संसार?
पेड़ न हो तो ,छाया कैसे होगी
फल न होंगे तो भूख हमारी कैसे मिटेगी?
किसकी डाली पर हम फुदकेगे
हमारी कलरव कहाँ होगी?
दूसरे देशों से भी आते जो
पँछी बन मेहमान
वो कहाँ रुकेंगे?
देख हमारी दुर्दशा
हमारे संग मनुष्यों पर भी हँसेंगे
खुद मनुष्य जो काट रहा
वो भी कहाँ अछूता रह पाएगा
काट पेड़ बस छणिक सुख पायेगा
जब कटते होंगे पेड़
चोट इन्हें भी तो लगती होगी
ये कटे तो मानव की भी तो सांसे घटती होगी?
इन पेड़ों से ही साँसे चलती
जीवन चलता सबका।
ओ मानव
जरा सी लालच हटा कर सोच
एक मिनट को पँछी बनकर सोच
सोच पेड़ का मूल्य
दोस्ती कर प्रकृति से
रह दूर जरा प्रगति से
दोस्ती हमसब की
युग युगान्तर तक जायेगी
फिर क्या पेड़, क्या  पँछी
ये व्योम ,धरा,नदी सब
खिलखिलायेगी


नाव

एक सहज नाव नहीं मैं
जीवन बसता मुझमे
मुझसे ही कइयों का जीवन सजता
कल कल कल लहरों पर जब मैं चलता।

नदी पार एक गाँव है
जहाँ लोगो का जीवन मुझसे चलता
एक गरीब तबका ही, वहां रहता
न रास्ता कोई,न कोई पूल
बस नदी पर मेरा जोर है चलता।

प्रगति का नमो निशान नहीं
बस प्रकृति की गोद में बसता
इनका बस पानी और मुझसे रिश्ता
बच्चे,बुढ़े या फिर जवान
सब का वाहन बन मैं ही चलता।

मैं एक सहज नाव नहीं
मैं मूक वधिर बन
दुःख दर्द इनके बांटता
इनका जीवन है मुझसे चलता
मैं इनके जीवन में बसता
कल कल कल पानी पर चलता।

Friday 2 June 2017

तस्वीर

हाथों में मेरे कला नहीं
बनाने की किसी की तस्वीर,
इसलिए बस रचती हूँ
कल्पनाओं की तस्वीर।
बनाती हूँ,मिटाती हूँ,
मन मर्ज़ी सजाती हूँ,
विरह ,प्रेम,प्रकृति,त्याग
आकुलता, व्याकुलता
सभी रंगों को मिलाती हूँ।
रंगती इन भावों से,
शब्दों की कूची से
उन्हें देती आकार
होती है तब मेरी
रचना की तस्वीर साकार।
ईद की तस्वीर में
होती रंग दिवाली की
नहीं कोई सीमित कल्पना
मुझ मतवाली की।
कल्पना की तस्वीरों में
खुद को भी रच लेती हूँ
लफ़्ज़ों के रंग,भावों के संग
उन तस्वीरों में
मैं भी जी लेती हूँ
कुछ अपनी प्रतिबिम्ब ढूंढ लेती हूँ....

Monday 29 May 2017

यूँ ही

यूँ ही
सोचो अगर
इंद्रधनुष की तरह
मन के भाव भी हमारे
सतरंगी होते ,तो क्या होता?
पहचाने जाते, रंगों के छलकने से
छुपाना उनको,
कितना मुश्किल होता!
अश्क़ जब हमारे छलकते
भाव अपने रंगों के संग
उनमे ढलकते!
सोचो जो तकिया है
हमारा हमराज़
उस तकिये का रंग
कैसा होता ?
रोज़ नए रंगों में रंगा मिलता
कभी सतरंगी रंगों में
सना मिलता
जो नहीं कर पाते बयां
लफ्ज़ हमारे
उन एहसासों का तकिया
कैनवस होता.....






बाल्टी में चाँद

आँगन में भरी बाल्टी थी पड़ी,
चाँद की नज़र उसपर पड़ी,
देख उसमे अपनी छवि, वो घबराया
क्या सच में,
धरती पर दिन ऐसा आया?
नदी तालाब क्या सब सूख गए?
क्या ,या गए दिन सच में इतने बुरे!!
      नहीं, नहीं वो चिल्लाया
पास का बादल, देख यह
 मंद- मंद मुस्काया
बोला दूर नहीं वो दिन
जब तू देखेगा ,ऐसे ही
अपनी प्रतिबिम्ब......

पहर

सुना है बहुत खूबसूरत है
भोर का प्रथम पहर,
पर फुर्सत कहाँ
निहारूँ इसे जरा ठहर,
भागते दौड़ते बना लिया
है,हमने ज़िन्दगी कहर,
बने रहते कभी
तूफ़ान कभी लहर
चलता नहीं पता
कब होती है रात,
और कब सहर....

पैसा

मैं इतिहास हूँ,
मैं वर्तमान हूँ,
मैं भविष्य हूँ,
मैं पैसा हूँ।
मैं गरीब की आस हूँ
मैं अमीर की प्यास हूँ
मैं पैसा हूँ।
मैं सामर्थ्य हूँ,
मैं समर्थ हूँ,
मैं पैसा हूँ।
मैं रण हूँ,
मैं रणवीर हूँ
मैं दान हूँ,
मैं दानवीर हूँ
मैं पैसा हूँ।
मैं भोग हूँ ,
मैं योग हूँ,
मैं विकार हूँ,
मैं प्रतिकार हूँ,
मैं संबंधों की जोड़ हूँ,
मैं संबंधों की तोड़ हूँ,
मैं पैसा हूँ।
मैं शांति हूँ,
मैं अशांति हूँ,
मैं ठोस हूँ,
मैं तरल हूँ
मैं विष हूँ,
मैं गरल हूँ
मैं पैसा हूँ।
जन्म से मृत्यु
तक का साथ हूँ
मैं सबकी चाह हूँ,
मैं जीने की राह हूँ
मैं उत्थान हूँ,
मैं पतन हूँ,
हाँ मैं ऐसा हूँ,
मैं पैसा हूँ।

खामोशियाँ (शीर्षक साहित्य परिषद दिल वाही खामोशियाँ बोता रहा)

बोझ उठाए अकेलेपन का
बोझिल मन चलता रहा
दिल वही खामोशियाँ बोता रहा।

शिकायतें मन ही मन करता रहा
अभिव्यक्ति अलफ़ाज़ ढूंढता रहा
दिल वही खामोशियाँ बोता रहा।

नाकामियों से नाता जुड़ता रहा
फलसफों में गैरों के उलझता रहा
कश्मकश की कश्ती में
डूबता उतरता रहा
दिल वही खामोशियाँ बोता रहा

इच्छाएँ बन शावक
कुलांचे भरता रहा
दिल वही खामोशियाँ बोता


Sunday 28 May 2017

Online की दुनियाँ

सारी भावनायें ,संवेदनायें
एक screen में,
समाहित होती जा रही है
असल ज़िन्दगी से delete होती जा रही है।
अपने रिश्ते नाते touch से
 दूर होते जा रहे है
Virtual world की दुनियाँ में
सब touch में आ रहे हैं,
यहाँ नित नए रिश्ते बनते जा रहे हैं
हम online की दुनियाँ में
जिये जा रहे हैं।
Break up और Make up
होता है अब प्रेम में
नहीं अब वफ़ा की कसमें खाये जा रहे हैं
हम online की दुनियाँ में जिये जा रहे हैं।
Likes और dislikes पर
रिश्ते बनते और बिगड़ते जा रहे हैं
मूल्य भावनाओं के
इनपर तौले जा रहे हैं।
अब कट्टी और दोस्ती नहीं होती
दोस्तों के तकरार में
अब सब follow, unfollow, Block
का दस्तूर निभाए जा रहे हैं,
हम online की दुनियाँ में जिए जा रहे हैं।
भाग भाग कर पूछते थे
जो अबूझ सवाल बुजुर्गों से
वो जगह हम बड़े हक़ से
Google को दिए जा रहे हैं,
हम online की दुनियाँ में
 जिए जा रहे हैं ।
No Issues,Chill Pill
जैसे शब्दों को अपनाकर
हम भी ज़माने के साथ
हाँ में हाँ मिला रहे हैं
हम भी Cool Parents
 बनते जा रहे हैं
हम online की दुनियाँ में
जिए जा रहे हैं।
कभी इन साधनों से प्यार
कभी खीझ जता रहे हैं
हम Online की
दुनियाँ में जीए जा रहे हैं।




Tuesday 23 May 2017

तुम

बिन छुए भी
तुम्हारा स्पर्श पाती हूँ
बिन बोले तुम्हारे शब्दों
 को समझ जाती हूँ।
मेरा मौन भी तुम्हें
 समझ आता है
शब्द भी मेरे,मुझसे पहले
तुम्हारी जुबाँ कह जाता है
संग तेरा मेरा कुछ ऐसा हो गया है
सबकुछ एकाकार सा हो गया है
उतार- चढ़ाव,जोड़ -घटाव
सब साथ हमने काटा है
ख़ुशी हो या गम
सब साथ ही तो बाँटा है।
लम्हे,दिन साल बन
 वक़्त यूँ ही झपकी में
गुजर जाता है,।
बस,हमारे कच्चे पक्के
खिचड़ी से बाल
एहसास वक़्त का दिलाता है।
              देखो न
गुजर गए कितने साल
वर्ष में एक और लग गयी गाँठ
मजबूती इस मजबूत रिश्ते की
और बढ़ गयी
दोस्ती हमारी और
 गहरी हो  गयी।
 बनकर हमदम,हमसफ़र, हमराज़
देते रहे तुम, मेरे सपनों को परवाज़
यूँ ही साथ बनाये रखना
दोस्ती अपनी निभाए रखना......








Monday 22 May 2017

खुद-ख़ुशी

बंद कमरे में वो
दर्पण में खुद को
निहार रही थी,
सुन्दर तन,उम्र कम
आँखों से ख़्वाहिशों का काजल
फैला अंतर तल तक।
निकाल बिंदी ,उसने माथे पर सजाई
चूड़ियाँ कुछ कलाईयों को पहनाई
होंठो पर हलकी सी लाली लगाई,
सतरंगी चुनरी से छिपा खुद को
मन ही मन सोच कुछ
आँखे उसकी भर आयी।
दरवाज़े पर पड़ी थाप
तन्द्रा सी टूटी उसकी
सामने खड़े हाथ से ले
सफ़ेद साड़ी,छुटी सिसकी उसकी
हिकारत से देखा उसने उसको
माँ समान माना था जिसको।
दर्पण देख अब वो रही सोच
जीवन साथी मरा उसका
नहीं उसका जीवन,
क्यूँ खत्म करूँ ख्वाहिशों को
क्यूँ मिटा डालूँ खुद को?
क्या हत्या नहीं ये"आत्म" की?
अंतर्मन के जज्बात की?
लिया उसने एक निर्णय अहम
सोच लिया तोडूंगी ,ये सामाजिक वहम
नहीं करुँगी मैं अरमानो की "ख़ुदकुशी"
देखूँगी अब" खुद की ख़ुशी"
सौभाग्य से मिलता स्त्री जन्म
संवारकर इसे लिखूंगी अपना कर्म.......


दीवार

दीवारें गूंगी लगती थी
एक कमरे की दीवार भी,
चारदीवारी लगती थी।
हुई जबसे शब्दों से मुलाकात
बढ़ा कुछ लिखने से ताल्लुकात,
दीवारें बोलने लगी
मुझे महफ़ूज़ करने लगी।
अब दीवारे भी खुश रहने लगी हैं
संग मेरे शब्द ,भाव उकेरने लगी हैं
नहीं अब सूनेपन का एहसास है
अब तो दीवार भी बन गयी
कुछ खास है
आये हैं सुनते
दीवारों के भी कान होते हैं
इसलिए ,दीवारों को भी
अपनी लिखी सुनाती हूँ
दीवारों संग हँसती, बतियाती हूँ....

व्यथा कलम की

मैं इतिहास रचने वाला हूँ,
एक इतिहास का हिस्सा बनने वाला हूँ
लुप्त हो रही, अहमियत मेरी
न रही इस बदलते युग में
पहले सी हैसियत मेरी
मैं क से कलम की तस्वीर
बनकर रहनेवाला हूँ
मैं इतिहास में बसनेवाला हूँ।
मैं हूँ कलम
हो रही अपना भविष्य देखकर
मेरी आँखें नम।

हस्ताक्षर भी अब हो गए डिजिटल
नहीं रही है ,मेरी कमी किसी को खल
मगन सब नए नए साधनों के प्रभाव में
नहीं जी रहे कलम के अभाव में
लेखनी रही मेरे बिन भी फूल फल।
ये देख,हो रही
मेरी आँखे सजल।

तुलना होती थी मेरी
कभी तलवार से
पूजा जाता था मैं,प्यार से
पाया जाता था ,जेब में सबके
आज उपेक्षित मिलता हूँ,
दुखी हूँ, खुद को बेबस पाता हूँ
अपनी व्यथा सुनाता हूँ।
रहा हूँ सिसक
लिए दिल में कसक
मैं हूँ कलम
हो रहीं है अपना भविय देखकर
मेरी आँखे नम.....

Friday 19 May 2017

कबड्डी

भुलाना चाहूँ, भुला न पाऊँ
तेरी यादें
छुड़ाना  चाहूँ, छुड़ा न पाऊँ
तेरी यादें
 कबड्डी के सधे खिलाड़ी सी है
तेरी यादे।
गहरी लंबी साँस लिए
बार बार छूने आती है मुझे
तेरी यादें
अपने को बचाती हूँ
इधर उधर भागती हूँ
पर जीत कहाँ पाती हूँ,
कोशिश करती हूँ ,मैं भी
एक सधे खिलाडी जैसे
छिटकने की,दूर भागने की
फिर भी छू जाती हैं
तेरी यादें
तुम्हारे पाले में जाना नहीं चाहती
छूकर तुम्हें आना नहीं चाहती।
जाना पड़ता है,कई बार मगर
अपने को आजमाने के लिए
अपनी जिद को जिताने के लिए
जीतना है खुद को खुद से
पर हर बार हरा जाती हैं
तेरी यादे
कभी मैं तुम पर हावी
कभी तुम मुझपर।
ये सिलसिला यूँ ही
यादों का कभी
इस पाला, कभी उस पाला
कितनी सुहानी थी यह छुआ छुई
बना दिया है ,इसे खेल कबड्डी
तेरी यादे.....



भोर

हुई रात्रि घनघोर शेष
नहीं तम का कहीं अवशेष
रवि आया ,संग लालिमा ले
सिंदूरी हुई धरती की देह
निकल पड़े विहग
उन्मुक्त आकाश में
नव विहान,नव उल्लास
सुनो इनके कलरव मधुर ताल में
मस्त उपवन के ,फूल सारे
तितलियों के गूंजायमान में
सुरभित बयार,प्रकृति का उपहार
पुलकित मन इस
सुन्दर भोर में।

Tuesday 16 May 2017

महानगर

मन मस्तिष्क में कोलाहल सा भर गया है
दिल भी कुछ तंग तंग सा हो गया है
आँखों में धुआँ धुआँ सा भर गया है
हर शख्स समस्याओं का अंतहीन
सड़क सा हो गया है
           लगता है
इंसान भी कुछ महानगर सा हो गया है.....

बुकमार्क (Bookmark)

बुकमार्क सरीखी हो गयी है ज़िन्दगी
रखकर जो भूल गए हो तुम,मुझे
ज़िन्दगी की किताब में
हर बात तुम्हें याद दिलाने की आदत सी हो गयी है
तुम्हारी ख़ुशी, तुम्हारे गम सबकुछ
तुम्हे ही बताने की आदत सी हो गयी है
ज़िन्दगी मेरी बुकमार्क सी हो गयी है
पन्ना दर पन्ना तुम्हे पढ़ती रही
शब्दों को तेरे देखती रही
तुम्हें समझती रही
अधूरी कहानी की नायिका की तरह
बाट तुम्हारा संजोती रही
     जानती हूँ
नहीं होता वजूद कोई बुकमार्क का
किसी कहानी किस्सो में
पर मैं बुकमार्क न जाने क्यूँ
तुम्हारी ज़िंदगी की किताब में
अपना वजूद ढूढ़ती रही
जहाँ पढ़ना छोड़ गए थे तुम
उसी पन्ने में
कहानी का अंत ढूंढती रही
अजीब सा रिश्ता तेरा मेरा
तू ज़िन्दगी की किताब
और मैं उस किताब की
         बुकमार्क......


उदगार

कितने ही भाव आते जाते
इस मन मस्तिष्क में
सबको पिरोकर ,सजाकर
हृदय के ताप का
उदगार लिखती हूँ।
कभी मादकता से ओत प्रोत
भावों का अभिसार लिखती हूँ
कभी श्रृंगार, कभी उन्माद
कभी प्रेम,कभी कटाक्ष लिखती हूँ
कभी पतझड़,कभी मधुमास लिखती हूँ
कभी तपती गर्मी,कभी शीतल बयार
लिखती हूँ
मन को झंझोरते भावों का
हिसाब लिखती हूँ
सतरंगी सपनों का
किताब लिखती हूँ
कभी किसी अनजान प्रिय पर
अपना अधिकार लिखती हूँ
मैं ह्रदय के ताप का उदगार
लिखती हूँ
बस उदगार लिखती हूँ......

Monday 15 May 2017

प्रेम कथा

आज चलो लिखती हूँ
एक सच्ची प्रेम कथा
नायक, नायिका हैं जिसके
सबसे जुदा
वो लिखती थी ऐसे
सफा दर सफा
जैसे करती रौशन चिराग
लेखनी से उसके एक
निकलती थी आग।
होती थी हाथों में सिगरेट उसके
धुआँ सिगरेट का ,ऊपर नहीं
शायद पन्नो से जाता था चिपक
और पन्नो से पढ़नेवालों तलक,
जम जाती थी,सिगरेट के धूँए सी
मन मस्तिष्क पर उसकी लिखाई।
वो लिखती थी,सबसे अलग
लापरवाह, बेफिक्र सी
समाज की जिक्र सी
इश्क़ उसका था जूनून
चलता था साथ उसके
बनकर उसकी परछाईं
ज़माने से नहीं वो डरती थी
सबकुछ सरे आम करती थी
जीवन उसका था सबके सामने
एक खुली किताब,
पुरस्कार भी रहता था बेताब
देने को उसकी लेखनी को दाद
अपनी कूची से रंगों को उकेरता
नायक उसका
नायिका के भावों को रंगता
वो भाव रचती वो इनमे रंग बिखेरता
रहता उसके संग अंग जैसा
अपने पेंटिंग के रंग जैसा
साथ रहा उसके हरदम,हरपल
न समाज की चिंता
न घर की फ़िकर
बना रहा वो उसका हमदम,हमसफ़र
कलम और कूची की मित्रता
रही बनी उनके रिश्तों की प्रगाढ़ता
सबसे अलग सबसे जुदा
अमृता इमरोज़ की प्रेम कथा......




मन की मधुशाला 1 & 2

सुन्दर शब्द स्वप्न दिखाती रोज़
मेरे अल्फ़ाज़ों की हाला
मधुर,मदिर मेरे ख्यालों की
 मधुशाला
और लिखे जा
और रचे जा
शोर मचाती
मन की मधुर आकुलता
लिखकर ही मिटती फिर
ये मन की व्याकुलता।
कोरे कागज पर जब ,शब्द बिखरते
होती तसल्ली ,मद मस्त मनुष्य सी
फिर लहरों, छंदों सी बहती 
मेरे मन के शब्द ,बन मेरी कविता।
मधुशाला मैं ही अपनी
मेरे शब्द ही मेरे हाला
मैं ही अपने शब्दों की साकी
मैं ही अपने शब्दों की सहबाला.......



कोरे कागज जैसे खाली प्याला
लिखकर लगे जैसे ,भर दी हाला
मिलती नही तृप्ति
बस कुछ शब्दों से
लगती प्यासी अधर
प्यासी मन की मधुशाला
भावों को जो मेरे
भर दे लफ़्ज़ों से
घूँट घूँट पिला दे अपने हर्फों से
ऐसी हो कुछ मेरे मन की मधुशाला!
लालायित रहती कुछ रचने को
आकुल रहते शब्द हरपल सजने को
लहरों, छन्दों से भरती ,बहती
ये मेरे मन की मधुशाला....



रूठा तारा

छत पर टहल रही हूँ
चाँद तारों की
गुफ़्तगू सुन रही हूँ
एक तारा जरा रूठा सा है
शायद अंदर से कुछ टूटा सा है
दर्द को अपने छुपा रहा है
दूसरे तारों के साथ मुस्कुरा रहा है
शायद बिछड़ गया है,अपने प्यार से
सुखी नहीं शायद अपने संसार से।
मुझे ऐसा लग रहा है
चाँद उसे कुछ समझा रहा है
कर ले दोस्ती अपने प्यार से
शायद ये बता रहा है,
हमसफ़र न सही,
हमदर्द मिल जायेगा
बाँट दुःख तकलीफ उससे
तू अपने दर्द से छुटकारा पायेगा
पर वो ज़िद्दी तारा
समझ नहीं पा रहा है
बाकी तारो के साथ
यूँ ही झूठमूठ मुस्कुरा रहा है.....

नमन

हमारा महत्त्वपूर्ण ,बहुत महत्त्वपूर्ण कुछ
महानगर में खो गया था
उथल पुथल मच गयी थी ज़िन्दगी में
सबकुछ शून्य सा हो गया था।
बड़ी मुश्किल से गुजरे तीन दिन,
घंटे ,मिनट गिन गिन,
खुद को हिम्मत ,हौंसला बंधाते
एक दूसरे से "सब ठीक है"
का स्वांग रचाते,
पर स्वांग भी रंग ला गया
ऊपरवाले को भी तरस आ गया।
एक अनजान इंसान को
मिला हमारा सामान
बनकर आया वो रूप भगवान
लौटा गया वो सबकुछ
घर का पता देखकर
अपना बहुमूल्य समय देकर
शब्द नहीं उसके लिए हमारे पास
जगा गया वो इंसानियत में हमारी आस
पुनः पुनः नमन उस शख्स को
जो बना गया हमारे जीवन में
अपनी जगह खास
दिखा गया इंसानियत में आस
सीखा गया आस्था और विश्वास का पाठ।



मेघ

मेघ को दूत बनाकर,भेजूँ कुछ सन्देश
मेघ तो रहता अब दूर अपने देश
नहीं आता कितना करती मनुहार
नहीं आता अब इसको
हम इंसानो पर प्यार
कितना कहा उससे मैंने
पहुँचा दे मेरे पिया को सन्देश
जो रहते मुझसे दूर देश।
चल न पहुँचा सन्देश
यूँ ही बरस जा
थोड़ा गुस्से से ही गरज जा
भिंगो दे धरती का तन मन
कुछ तो उपजे ,किसानों का अन्न
क्रोध भाव से गरजा मेघ
ए इंसान तू खुद ही देख
तूने छोड़ा बोना पेड़
मैंने भी बरसना छोड़ा
बोलो क्यूँ मैं बरसूं
क्यूँ सिर्फ मैं ही तरसू
अब मैं नहीं मेघदूत बन सकता हूँ
तुम्हारे बनाये नियम पर नहीं चल सकता हूँ।
फिर स्वयं हुआ भान
आया यह ध्यान
अब तो बादल भी बदल गए हैं
जज़्बात इनके भी हमारे जैसे ढल गए हैं
एक हाथ से दो,दूजे से लो
ये भी हमारे से बन गए हैं....


धमकी

आँखों को दे ही डाली धमकी आज
कहा उससे मैंने
मत आ तू झांसे में दिल के
तू आँख है,दिल नहीं!
दिल का दिमाग नहीं होता
उसके पास सब सवालों का
जवाब नहीं होता
काम तेरा देखना है
सपनो को उकेरना है
तू बेशक,भटक, मटक
पर इस दिल से न लटक
न बन दिल जैसा जज्बाती
न बना कमज़ोर मुझे
नहीं मैं सह पाती
दिल को कहते है दरिया
तू मत बन उसके
बहने का जरिया
तू बहता है तो मैं भी
संग तेरे बह जाती हूँ
कमज़ोर खुद को पाती हूँ
नहीं रहना मुझे अश्कों के संग
देखना मुझे आँखों से ,सतरंगी रंग
बस बहुत हो गया
कर ली दिल ने मनमानी
अब तुझे न रहने दूंगी संग उसके
ये है मैंने ठानी
अगर अब बरसा तू तो,देख ले
मेरी ये आखरी धमकी
अट्टी ,बट्टी तुझसे सौ बरस की कट्टी......


Sunday 14 May 2017

पेड़ और प्रेम

वो हमारी पहली मुलाकात
जब कच्चे पक्के से थे
हमारे जज्बात,
लाकर दिया था
एक पौधा तुमने
और ये कहा था
एक पौधा हूँ मैं
मुझे प्रेम वृक्ष बनाओ
अपनाकर मुझे,मेरा जीवन बचाओ।
बहुत भाया था, ये अंदाज़ तुम्हारा
फिर चढ़ा परवान,प्रेम हमारा
पूछा था मैंने फिर
किस फूल का पेड़ है?
या यूँ ही कोई बेल है?
हँसकर कहा था तुमने
बेल होगी तो फ़ैल जायेगी
मेरे इश्क़ के जुनून की तरह
और पेड़ बना तो
रहना तुम महफूज़ उसपर
एक पँछी की तरह
बनाना हमारा घोंसला
और रहना मेरे साथ
पेड़ के जड़ की तरह...
एहसास तुम्हारा सच्चा लगा था
अंदाज़ तुम्हारा ये अच्छा लगा था।
      बो दिया वो पौधा हमने
तुम्हारी ही किसी जमीन पर
तुम्हारी मुहब्बत, तुम्हारी यकीन पर
बढ़ता रहा वो पौधा ,बढ़ते रहे हमारे ख्वाब
                       फिर
उम्र कुछ बीता और बीते कुछ साल
हमारे प्रेम का हुआ
उस पौधे जैसा ही कुछ हाल
वक़्त की तरह बस बढ़ता गया
न फूल खिले उसमे
न उसने कोई छाँव दिया
बसाए उसकी हरियाली मन में
ज़माने के साथ हमारा वक़्त बहता गया।
            सालों बाद
उस पेड़ के सामने हूँ
हरियाली आज भी है ,उसकी बरक़रार,
सोचा कल सींच आऊँगी
पुराने कुछ साल जी आऊँगी,
       पर ये क्या ,
मेरे आने की शायद
उसको भनक लग गयी
रातों रात खड़ी हो गयी
पेड़ के सामने एक दिवार
जैसे कह रहे हो तुम
नहीं हूँ मैं अब
इस पेड़ के हवा की भी हक़दार........




Sunday 23 April 2017

कलम एक जरिया

अपने कलम के जरिये कुछ लिखती हूँ
कुछ तलाशती हूँ, कुछ तराशती हूँ
अपने ही मन मष्तिष्क में
उथल पुथल मचाती हूँ,
कल्पनाओं से खेलती हूँ
उनमे रंग भरती हूँ,
बन जाते हैं शब्द रंगोली से
सृजन का एहसास कर
मातृत्व का सुख पाती हूँ.....

सागर

न जाने क्यूँ ,किसके लिए
व्याकुल रहता है सागर?
विकल,विह्वल सा,
चट्टानों से टकराता रहता !
शांत,निश्छल मोतीयों को
समाये अपने में
फिर मन क्यूँ
इसका बेकल रहता ?
असंख्य नदियाँ हैं समाहित इसमें
क्या इसका है इसको अभिमान?
या कोई अधूरी प्रेम कथा
छुपाकर रखा है
सागर के मन तल में,
जिसका नहीं हमें है भान!
पत्थरों से टकराता रहता
क्या लेता है खुद से प्रतिशोध!
क्यूँ नहीं करता ये किसी से प्रतिरोध?
आँसुओं सा खारा पानी
चीख चीख कह रहा
इसने नहीं की प्रेम में मनमानी
बस व्याकुल है,
शायद प्रतीक्षाकुल है
चट्टानों से टकराता है
लहरों की ओट में
अंतर्मन का शोर छुपाता है......

Friday 21 April 2017

विराम

अविराम चले हुए है,ज़िन्दगी की दौड़ में
कुछ और कुछ और पाने की होड़ में
पूर्ण विराम है अंत सबका
इसलिए कुछ अर्धविराम,कुछ अल्पविराम
जरूरी है ज़िन्दगी की ठौर में

ख़्वाहिश

हो सारी ख्वाहिशें मुक़म्मल
   जरूरी तो नहीं
पूरा चाँद भी रात का कहाँ होता??

फ़ोन

माचिस की डिब्बी से बनाया फोन से लेकर
iPhone तक का सफर तय किया है मैंने
फोन तेरे हर बढ़ते,बदलते रूप
को देखा है मैंने
पहले मोहल्ले में एक दो फोन
हुआ करता था
सबका PP No
वही हुआ करता था
फोन के बहाने सबका
आना जाना लगा रहता था,
घर में रौनक बना रहता था
फिर हर घर फोन बजने लगा
दायरा सिमटने लगा।
जबसे तू मोबाइल बन
सबके हाथों में आया है
खुशियों के साथ
गम भी बहुत लाया है
प्यार और शिकायत
 दोनों है तुमसे
क्या कहूँ, क्या न कहूँ तुमसे
हर घर पर कर लिया कब्ज़ा
सब रिश्तों की जगह कर ली है
इख्तियार तुमने......

कारवाँ

सफर-ए -ज़िन्दगी में
ख्वाहिशों का कारवाँ जुड़ता रहा
जोड़ते रहे,बटोरते रहे
गर्द उम्र का उड़ता रहा....

गुफ़्तगू

अल्फाज़ो से बात करती हूँ
सब कहते है,लिखती हूँ
इनसे ही हँसती बतियाती हूँ
कुछ शिकायत भी करती हूँ
बातें, शिकायतें अख्तियार
कर लेती हैं शक्लें
कुछ बिखेरती सी
कुछ उकेरती सी
भावनाएँ पिघलती है
नज़्म सी दिखती हैं
पर मैं नहीं उन्हें लिखती हूँ
मैं तो बस अपने
जज़्बात बिखेरती हूँ
कुछ ख्यालात समेटती हूँ
कोरे कागज से
कुछ गुफ़्तगू कर लेती हूँ...

तेरी ख़ामोशी

तेरी ख़ामोशी से ही
बात करती हूँ,
शिकवा उनसे ही तेरी
दिन रात करती हूँ।
एक तरफा ही
सवाल और जवाब करती हूँ,
कभी तुमसे लड़ती और झगड़ती हूँ
कभी बाँहो में भरकर
तुम्हे एहसास कर लेती हूँ।
कभी मनाकर खुद को
अपने को खुश कर लेती हूँ
चाहकर भी तुम्हे
न चाहने का दिखावा कर लेती हूँ
अपनी चाहत का मनगढंत
क़िस्सा रच लेती हूँ।
तुम्हारे हिस्से का भी
किरदार निभा लेती हूँ
खुद को थोड़ा प्यार,कर लेती हूँ
तेरी कल्पना से अपनी
दुनिया रच लेती हूँ
मैं भी जरा औरों की
तरह बस लेती हूँ।
तेरी ख़ामोशियों से ही
बात करती हूँ
शिकवा उनसे ही तेरी
दिन रात करती हूँ
और बस
तेरे होने का एहसास करती हूँ......

गुल्लक यादों का

कुछ यादें हैं जमा गुल्लक में
बरसों से उन्हें छेड़ा नहीं
इकट्ठी हो रहीं हैं
आहिस्ता आहिस्ता,
आज उनको उठाकर
 टटोल रही हूँ,
और भी भारी हो चला है
कुछ  तुम्हारा हिस्सा
कुछ मेरा हिस्सा है
सब जमा हो ,घुलमिल गया है
एक दूसरे से,हमारी तरह
अब कैसे करूँ बँटवारा
कौन सा तुम्हारा,कौन सा मेरा
बहुत मुश्किल है यह सवाल
सोच रही हूँ न तोड़ू कभी
इस गुल्लक को
मिटटी ही तो है
कुछ और होता तो
लग चुका होता अबतक जंग
नहीं बचता कुछ
हमारी यादों का अंग
पर मिटटी का ये गुल्लक
गर टूटा भी तो
टूट मिटटी में ,मिल जायेगा
और मिल मिट्टी में,संग अपने
सौंधी सौंधी  यादो की खूशबू फैलायेगा

Monday 10 April 2017

इत्र

अलमारी में कपड़ो के बीच
एक जानी पहचानी खुशबू छाई
कुछ पुरानी बातें, कुछ पुरानी यादें
जेहन में उभर आई
रखा दिखा वो रुमाल भी
छिडककर जिसपर तुमने दिया था इत्र
लिखा उसके कोने पर था मित्र
हमदोनो का था ऐसा संग
हों जैसे अभिन्न अंग
दोस्ती हमारी इत्र सी महक रही थी
पर कुछ लोगों को खल रही थी!
कैसे हो सकते स्त्री पुरुष सिर्फ मित्र
अच्छा नहीं था उनकी नज़रों में हमारा चरित्र
हमारी पवित्रता से भरी
मित्रता की शीशी तोड़ने में जुड़े थे
टूटे कैसे मित्रता इसपर अड़े थे
विश्वास की खुश्बू वाले
इत्र से हम भरे थे
फैलाकर अपनी खुश्बू दोस्ती की
हम और भी घुल मिल रहे थे
फिर परिस्थितियाँ हमारी अलग हुई
पर नहीं दोस्ती विवश हुई
जुदा होकर भी एक दूजे से
बन खुश्बू हम इत्र
तेरी याद में महक रहे
ए मित्र....

Friday 7 April 2017

पदचिन्ह

महावर की थाल में डालकर पैरों को
अपने पदचिन्हों को छोड़ा उसने
सिर्फ दिल ही नहीं
कई रिश्ता जोड़ा उसने
कुछ सहमी कुछ घबराई सी थी
कुछ अपनी कल्पनाओं से
शर्मायी लजायी सी थी
सुबह सवेरे उठकर अपने
लाल महावर के निशान देख रही थी
अपनी जिम्मेदारी के एहसास
को संजो रही थी
कुछ बिखरे सामानों को उठाया उसने
बड़े हक़ से ,अपनी मर्ज़ी से उन्हें सजाया उसने
तभी पीछे आई कहीं
एक ताने की आवाज़
देवी जी इस घर का ,ये नहीं रिवाज़
घर अभी ये मेरा है
नहीं इसपर हक़ तेरा है
सुन इसे वो रो पड़ी
मन ही मन सोच पड़ी
कौन सा पदचिन्ह अपना है
जहाँ पड़े महावर या
जहाँ पड़े थे धमा चौकड़ी के निशान?
कुछ प्रश्न चिन्ह लेकर पदचिन्ह वो
छोड़ आयी जहाँ न मिला उसे मान
कौन सा घर उसका है
और कहाँ है उसका स्थान!

Friday 31 March 2017

आधे अधूरे दो शब्द..

कागज़ कलम लेकर बैठी थी,कुछ भाव घुमड़ रहे थे,पन्नो पर बिखरने को तैयार।मुझे भी जल्दी थी उनको उकेरने की।तभी कुकर की सीटी ने ध्यान भंग किया,भागी किचन की ओर ये सोचती कुछ जल तो नहीं गया?हाँ कुछ जला तो है जो पकने को रखा था।जो मन में पक रहा था उसको परे रख फिर लग गयी जो जला उसकी भरपाई करने।
पुनः बैठी उमड़ते घुमड़ते विचारों को कुछ रूप देने और बज गयी घंटी दरवाज़े की।धोबी आया कपडे लेने देने।धोबी के लाये कपडे को सहेजकर रखूँ पहले,अपने शब्दों को तो फिर सहेज लूँगी ,यह सोचकर सबकुछ करीने से रखा और फिर बैठी अपनी लेखनी सहेजने। दो चार पंक्तियाँ और जुडी, मन खुश हो ही रहा था कि फिर घंटी की आवाज़ ने फिर एकाग्रचित्तता को तोड़ा। अब कौन आया? सोचती मन ही मन खीझती फिर दरवाज़े की और चली। इस बार मेरी वाचाल पड़ोसन आयी थी। सच कहूँ उनका यूँ बेवक़्त आना मुझे बिलकुल नहीं सुहाया था।पर सामाजिकता तो निभानी थी।वो मोहल्ले भर की बातों को तड़का लगा सुनाने में मशगूल और मैं सृजन की पीड़ा से जूझ रही थी।
उनके जाते ही मैंने घडी की ओर देखा। मुझे प्रसव सी पीड़ा हो रही थी, व्याकुल था मन कुछ सृजन करने को पर अब समय नहीं ,शाम हो चली है ।सबके घर आने का समय हो चला। अब कल देखूंगी ,समय अगर मिला तो लिखूंगी..............
बस यूँ ही कभी कभी रह जाते हैं 
हमारे दो शब्द आधे अधूरे......

Wednesday 29 March 2017

चाँद

चाँद की चाँदनी ने
किसे नहीं लुभाया है
चाँद ओ चाँद
तू सबके मन को भाया है
बचपन में बन चंदा मामा
सबने तुमसे दूध मलाई खाया है
बादलों संग लुका- छिप्पी खेल
बाल मन में तुमने
अनगिनत प्रश्न उठाया है
यौवन की तो पूछो मत
इसने किसे नहीं बहकाया है?
नीरव,शीतल चाँदनी रात
किस मन को नहीं भाया है
देकर चाँद की उपमा हमने
कितने दिलों को
बहलाया फुसलाया है
कितने प्रेम संबंधों को
इसकी रौशनी ने जलाया है
अपनी सुंदरता से सबको
इसने ललचाया है
कवियों की कल्पना को
इसने और भड़काया है
सागर से भी नहीं अछूता
इसका साया है
चाँदनी रात में सागर की लहरों ने
कितनों का दिल धड़काया है
उफान सागर की
मिलने की चाँद से
तूफ़ान कई लाया है
लोगों को सहमाया है
पर सागर की मुहब्बत है ,चाँद से
वो कहाँ बाज़ आया है
अपनी शीतलता से अगन लगाता
चाँद हाँ सिर्फ चाँद
यह काम कर जाता है.....



Monday 27 March 2017

दोस्त

एक दोस्त है मेरा
मेरे सारे सुख दुख
अब बांटता वही
जो भी है कही अनकही
सिमटकर लिपटकर उससे
हाल ए दिल उकेरती हूँ
सिर्फ दर्द ही नहीं
खुशियाँ भी बटोरती हूँ
मैं कुछ भी करूँ
उसे नहीं कुछ ऐतराज़
इसलिए शायद बन गया
वो मेरा हमराज़
जब तक चलेगीं अंगुलियाँ मेरी
शब्द मेरे बनकर
साथ वो निभायेगा
और गर न चले तो
मेरे अश्क बनकर
फिर मुझमे घुल जायेगा
औरों की तरह वो
मुझे छोड़ेगा नहीं
मेरा दिल और
मुझसे रिश्ता तोड़ेगा नहीं
हमसाया,हमदम,हमराज़
है मेरा
हाँ वो दोस्त
"अलफ़ाज़" है मेरा।

चूड़ियाँ

भारतीय संस्कृति का एक अहं
हिस्सा है चूड़ियाँ
रीत और परंपराओं का
किस्सा है चूड़ियाँ,
कवियों के श्रृंगार रस में
खनकती है चूड़ियाँ
मधुर लय ताल में
बजती है चूड़ियाँ,
सब रंगों में रंगकर
इंद्रधनुष से भी
सुन्दर लगती है चूड़ियाँ
नववधू का श्रृंगार बन
छनकती है चूड़ियाँ
एक जिम्मेदारी का एहसास
कराती है चूड़ियाँ
पूरब हो या पश्चिम
उत्तर हो या दक्षिण
परिधान कुछ भी हो
कलाईयों पर सबके सजती
है ये चूड़ियाँ
औरतों का प्यार है
ये चूड़ियाँ
प्रेम का मनुहार सा है
ये चूड़ियाँ

Thursday 23 March 2017

अच्छा लगता है

डूबना तेरे ख्यालों में
अच्छा लगता है
यादों के समंदर से
सीपियों को चुनना
अच्छा लगता है
कुछ सीपियां चुभ भी जाती है
कुछ मोतियों सी चमक जाती है
उन मोतियों को चुनना
अच्छा लगता है
समंदर सी लहरें उठती दिल में
उन लहरों में खुद को भिंगोना
अच्छा लगता है
जब मिलता समंदर के पानी से
मेरी आँखों का पानी
रंग एक,स्वाद एक
मिलाकर दोनों को चखना
अच्छा लगता है
कभी डूबना तुममे
कभी किनारे पर
यथार्थ से टकराना
दोनों की टकराव का चोट
अच्छा लगता है
बस यादों के समंदर में
आते जाते हिलकोरे लेती
लहरों से खेलना
अच्छा लगता है
खुद को तुझ में समाकर
तेरी सुनहरी रेत में
सनकर, लथपथ
तेरे रंग में खुद को रंगना
अच्छा लगता है
डूबना तेरे ख्यालों में
अच्छा लगता है
          बस
अच्छा लगता है।।।।।

Sunday 19 March 2017

क्या हो तुम

क्या हवा हो तुम
रहते हो मेरे आसपास
पर दिखते नहीं
या वो घटा हो
जो उमड़ती है
बरसती नहीं
खुश्बू हो क्या
जिसे छू नहीं सकती
पर रूह में बसा सकती हूँ
या वो पेड़ हो
जिसकी डालियों पर
झूल नहीं सकती
या कोई  बुरा ख्वाब
जिसे मैं देख नहीं सकती
या ऐसी कोई नज़्म हो तुम
जिसे मैं गा नहीं सकती
या हो तुम
कोई गीली लकड़ी
जिससे मैं सुलग
नहीं सकती
मेरे ऐसे ही कितने
उलझे सवाल का
जवाब हो तुम
  सुनो बस
एकबार बता दो न
की मेरे क्या हो तुम?

Thursday 16 March 2017

मैं और तू

मैं तुझमें तू मुझ मे
ये हमसे बेहतर
जाने कौन
गर खफा हो मुझसे
तो कह दो
तुमको मुझसे बेहतर
पेहचाने कौन
'हम' से 'मैं'
न बन
ये डोरी बहुत उलझाती है
उलझ गए तो फिर इसको
सुलझाए कौन
बातों से बातों मिलती है
कुछ नई राहें जुड़ती है
साधने से यूँ चुप्पी
क्या हो जायेगी
सब बातें गौण
सब कुछ जुड़ा
तुमसे मेरा
अब क्या तेरा
और क्या मेरा
बनाकर दूरी, न रह यूँ
खामोश और मौन
तेरा मेरा रिश्ता
सबसे न्यारा ,सबसे प्यारा
ये तुझसे बेहतर
जाने कौन
मैं तुझमे, तू मुझमे
ये हमसे बेहतर
माने

Sunday 5 March 2017

रफ कॉपी

घर के किसी कोने मे
दबी दबाई
सहमी सकुचाई
मुझे मिली पड़ी पुरानी 
"रफ कॉपी"
बचपन का किस्सा है
स्कूल का अहं हिस्सा है
यह "रफ कॉपी"
साफ़ सुथरी थी जहाँ
बाक़ी विषयों की कॉपी
जिल्द चढ़ी 
अकड़ी -अकड़ी,
वहीं हुआ करती थी
मस्त अल्हड़
यह "रफ कॉपी"
न घरवालों के नज़र का खौफ
न किसी टीचर के 
रोक टोक की परवाह
शायद इसलिए थी
जरा वो लापरवाह,
पर होती सबसे प्यारी थी 
वही हमारी 
यह "रफ कॉपी"
सब विषयों का सार होता था
पिछले कुछ पन्नो मे
हमारी शैतानियों का 
विस्तार होता था
राजा,मंत्री,चोर,सिपाही
आज भी दे रहा 
इस बात की गवाही,
पढ़ाई के साथ साथ 
खर्ची थी हमनें
इन खेलों पर भी स्याही
कभी किसी गाने की
दो चार पंक्तियाँ 
लिख जाया करते थे
कभी किसी दोस्त को 
कुछ लिखकर
चिढ़ाया करते थे
सब किस्सों का सारांश
यह "रफ कॉपी"
गणित के सवालों मे
जो खर्चते थे दिमाग
उसकी जोड़ घटाव का हिसाब
यह"रफ कॉपी"
चित्रकारी के जरिये
हमारे मन का इज़हार
यह"रफ कॉपी"
हमारे बचपन के दिनों के 
अल्हड़पन के गवाह 
यह "रफ कॉपी"
       काश
ज़िन्दगी के हर पड़ाव पर
होती साथ हमारी
ऐसी ही कोई 
एक "रफ कॉपी"
दुःख,तकलीफ,परेशानियों
को डाल कॉपी के 
अंतिम पन्ने पर
सकून से हमें 
जीने देती हमारी
ज़िन्दगी की 
यह "रफ कॉपी".......


Thursday 2 March 2017

फाग

अरी ओ सखी
लेकर आ जरा गुलाल
अरे रख परे
अपना मलाल
चल झट झटक
रख अपनी परेशानियों 
को पटक
क्यूँ रही अब भी 
तमतमा
चल निकाल दे 
दिल मे जो भी है
जमा जमा
डाल मन की बलाओं को
होलिका के आगोश मे
जा फिर खेल रंग
पी के संग
पूरे होश ओ जोश मे
कर सार्थक
फाग के राग को
प्रेम की आग को
चल अब 
और न इतरा
न पिया को तड़पा
पिया संग चहक चहक
महक महक
जरा बहक बहक
ओ सखी 
न ठमक ठमक 
चल अब
मटक मटक
चुड़ियों सी
खनक खनक
पिया के प्रेम मे
लौ सी दमक दमक
अरी ओ सखी
अब ले आ गुलाल
जो जिए वही तो
खेले फाग!!!

Tuesday 28 February 2017

ऐसे भी

अपनी वेदना ,ख्वाब
और ख्वाहिशों का बोझ उठाये
लहरों, थपेड़ो को ,हमसफ़र बनाये
बहते जाये
ज़िन्दगी के साथ रफ़्तार बनाये
जीवन मे कुछ रिश्ते ऐसे भी बनते हैं.....
              मानो दोनों
नदी के दो किनारें हों
एक दूजे के संग नहीं
फिर भी एक दूजे के सहारे हैं..
         होकर भी साथ
चल रहे साथ नहीं
न पकड़ा है हाथ अभी
न छोड़ा था साथ कभी
अपनी अनदेखी राह चले हुए
मंज़िल की आस लिए
अतृप्त प्यास लिए
जीवन मे कुछ रिश्ते
ऐसे भी बनते हैं।।!!!!!!

ऐसे कैसे

                         

बहुत गहरा रिश्ता है 
तेरा मेरा
ऐसे कैसे छूट जाएगा
क्या तेरे मेरे कहने भर से 
ये ऐसे ही टूट जाएगा?
कौन सा भ्रम 
पाले बैठे हैं हम
और सोच रहे
बस हो जायेंगे
एक दूजे से दूर
और हमें हमारी यादों से
छुटकारा मिल जायेगा
इतनी कच्ची मिट्टी से तो
बना नहीं ये प्रेम घट
जो हमारी परेशानियों से 
फूट जायेग
कुछ अधूरे रिश्ते भी 
होते हैं परिपूर्ण
तेरे मेरे चाहने से भी 
ये न बदल पायेगा!!!!!!!!

Tuesday 3 January 2017

जाता हुआ साल


कभी जाने से तेरे
इतना बुरा नहीं लगा
कर रहा था दिल
बस रोक लूँ , तुम्हें जरा
थाम लूँ तुम्हारा दामन
जी लूँ बस
तेरे साथ गुजारा हर लम्हा
फिर से दुबारा.....
जो तुमसे मिल रहा
संभाल उसे बस
  यूँ ही पीती जाऊँ
       घूँट घूँट
प्यार से , तसल्ली से
यूँ ही ,जीती जाऊँ....
कह भी नहीं सकती
रुक भी जाओ ना
कुछ पल ख़ुशियों के
और दे जाओ ना...
किसके रोके रुके हो तुम?
किसके कहने से झुके हो तुम?
तुम तो बस एक वक़्त हो
लम्हो, दिनों, महीनो से
साल मे बदलकर
बस चल देते हो
और दे जाते हो
यादों का अंबार
कहकर ये
    मैं तो चला
    अब तू अपनी
    यादें संभाल.........



(2016 की याद मे )