Saturday 22 September 2018

यादों का मर्तबान

मर्तबान सा बना लिया है
दिल को अपने
भर लिया है इसे
तुम्हारी यादों से!

नहीं लगने दिया है
वक़्त का फफूंद मैंने,
पसार कर,फैला देती हूँ
दिखा नेह का धूप
फिर संभाल रख देती हूँ।

पूनम की रात में
खोल मर्तबान का ढक्कन
बैठ जाती हूँ
खुश्बू में खो जाती हूँ
हो जाती हूँ
यादों की चाँदनी में सराबोर
पोर पोर में बसी सी
तुम्हारी यादों में
आकंठ डूब जाती हूँ

अमावस में भी
हाँ अमावस में भी
सालों से मर्तबान खोलती आयी हूँ
 नीम अन्धेरे में भी
जुगनुओं की रौशनी में
उन यादों को,संभालती आयी हूँ!

नहीं चाहती कोई देखे
मुझे तुम्हारी यादों के साथ
हो बस तुम और मैं वाली बात
याद है न
होती थी ऐसी ही
हमारी कई मुलाकात!

कुछ हसरतें, कुछ चुराये पल
सब इकट्ठे है
इस दिल के मर्तबान में
जब चाहा, खोल इसे
यादों को चख लेती हूँ
कभी नीम,कभी शहद सा
स्वाद इसका
बिल्कुल इश्क़ सा.....




चाँद

रतजगा था मेरा,चाँद परवाह मेरी करता रहा
सिरहाने बैठ मेरे,मेरी दास्ताँ सुनता रहा।

बहलाता, फुसलाता,मुझसे गुफ़्तगु करता रहा
आहिस्ता आहिस्ता ,ज़ख्मों को मेरे सहलाता रहा।

नम आँखो को मेरे,चाँदनी से चूमता रहा
घास जैसे ओस को,खुद में जज़्ब करता रहा।

सुनकर दास्ताँ मेरे अधूरेपन की,बस खामोश रहा
कहाँ रह पाता वह भी पूरे रात का,यह मुझे समझाता रहा।

सोलह कलाओं को लेकर बैठा था,साथ मेरे
दाग की बात पूछने पर टालता रहा।

स्लेटी बादलों में छुपता रहा,दाग को अपने छुपाता रहा
न दिखाओ सरे आम दाग अपने,इशारों में यह बतलाता रहा।


Monday 20 August 2018

कलम, कलाम, कूची

कलम से कलम की हुई मुहब्बत
कलम कलाम लिखता रहा
मौसिकी में होती थीं बातें
इश्क़ साहिर अमृता का
परवान चढ़ता रहा

वो अधजले सिगरेटों को सम्भालती रही
पीकर उन्हें, एहसास नज़दीकी का पालती रही
वो चाय के जूठे प्याले संभालता रहा
एहसास से उसके,खुद को भरमाता रहा!

मुहब्ब्त बयानी लफ़्ज़ों की थी
ख़तों में मुहब्बत लिखता रहा
मिलते,ख़ामोशियों के साये तले
इश्क़ उनका आँखों से बरसता रहा!

वो बंधनो में न बंध सका
अपना न उसको कर सका
अंजाम तक अफ़साना लाना था मुश्किल
एक खूबसूरत मोड़ देकर उसे देखता रहा!

वक़्त फिर यूँ ही गुज़रता रहा......


कूची पर कलम की हुई इनायत
हुई एक दूजे से सोहबत
वो नज़्मों में किसी को उकेरती रही
वो कैनवास पर उसको रंगता रहा

एक दुनिया की परवाह करता रहा
एक साये सा साथ उसके चलता रहा
देर रात वो लफ़्ज़ों से थी उलझती
आधी रात वो चाय की प्याली पिलाता रहा!

बैठ इमरोज़ संग, पीठ पर उसके साहिर लिख जाती थी
वो मुहब्बत के उन एहसासो को संभालता रहा
"मैं फिर आऊँगी" वादे को
रसीदी टिकट सा संभालता रहा!

अधूरा इश्क़ तीनों का
फिर भी कितना मुकम्मल रहा
कुछ यूँ नशा इस इश्क़ का
आज तलक सबको मदहोश करता रहा......

तुम्हारे लफ्ज़

तुम्हारे लफ़्ज़ों से
मेरा इश्क़ वैसा ही है
जैसा था,तुम्हारा
साहिर के अधजले सिगरेटों के टुकड़ों से

एक कश सा लगा लेती हूँ
लफ़्ज़ों का
फैल जाती है
सिगरेट के धुएँ सी
दिल और दिमाग में!
घूमते रहते हैं अल्फ़ाज़
फिर जम जाते हैं
उसी धुएँ के मानिंद

कैसे लिख जाती थी
सबकुछ इतनी सहजता से?
बिल्कुल वैसे ही सहज
जैसे इमरोज़..
तुम्हारे लफ़्ज़ों को कैनवास पर उतारता हुआ
तुम्हारे ख़्यालों को रंगता हुआ
तुम्हारे इश्क़ में डूबा हुआ
सहज!

कई दफ़ा पढ़ा है तुम्हे
महसूस किया है
दर्द एक स्त्री का
कभी जंगली बूटी खाकर
कभी पिंजर में बंधकर
नीम भी बताशे बांटती
यह कहानी कहकर!

क़िस्सागोई करते तुम्हारे लफ्ज़
गीली लकड़ियों से सुलगते लफ्ज़
आसमां की ओर उड़ते लफ्ज़
बारिश की बूंदों संग
छत पर फिर उतरते लफ्ज़

एक को आसमां
दूसरे को छत बनाकर
रूह में बसते लफ्ज़
अधूरे इश्क़ को
मुकम्मल करते लफ्ज़
अमृता के प्रीत के लफ्ज़
दुनिया के रीत के लफ्ज़
कुछ अधजले सिगरेट और
कुछ चाय के जूठे प्यालों
की तरह संभाले हुए
बसते रचते ये  तुम्हारे लफ्ज़...







Friday 10 August 2018

जाग कविता

तू जाग कविता,
इस भारत का कर दे कुछ उद्धार
निकाल कवियों की लेखनी से
तू ही कुछ उदगार,
सुसुप्त पड़े भावों में
शब्दों से भर दे तू झनकार
तू जाग कविता
इस भारत का कर दे कुछ उद्धार।
न लिख अभी तू सौंदर्य श्रृंगार
न बातें कर मीठी चार
बन लेखनी "दिनकर" सी
फूँक राष्ट्र प्रेम अपार!
जीवित हो "गुप्त जी"  की रचना सी
फूँक जन- जन में नव संचार।
तू जाग कविता
इस भारत का कर दे कुछ उद्धार।
देख मचा चहुँ ओर देश में
कहीँ हाहाकार, कहीँ चित्कार
कहीं हत्या,कहीं बलात्कार
कलम की ताकत में होती धार
बन कलाम से तू हथियार
कर विसंगतियों पर अपना वार!
तू जाग कविता
अब भारत का कर दे कुछ उद्धार।
"वसुधैव कुटुम्बकम" की धरती भारत
नहीं चाहिए यहाँ घृणा, द्वेष प्रसारक
गीत- वंदेमातरम हो यहाँ
जन जन का उद्गार!
तू जाग कविता
इस भारत का कर दे कुछ उद्धार।
लिख जा कुछ स्वर्णिम
सूर्य सा तेज़,रक्तिम
चिड़ियों की कलरव सा मधुर गान
हो जिससे इस भारत का सम्मान
कलम को बना अब तलवार
शब्दों से पैदा कर दुर्गा,चंडी का अवतार
कविता तू अपने शब्दों से फैला प्यार
नई चेतना,नव संचार
नूतन युग का कर विस्तार
तू जाग कविता
इस भारत का कर दे कुछ  उद्धार
कर दे कुछ उद्धार!!







Monday 6 August 2018

कर्ण व्यथा

( 1)
आओ सुनाऊँ अपनी कथा
 क्या सोची किसी ने मेरी व्यथा?
 माता ने मेरा परित्याग किया
गंगा में मुझे प्रवाह किया
किन्तु,भाग्य था मेरा बहुत बलवान
हुआ काल का नव निर्माण
अधिरथ से मिला,पुत्र सम्मान
कौन मात, पिता कौन
नहीं था मुझे,इसका भान!
हाँ,मैं *कर्ण* सब कहते योद्धा महान।
(2)
सूर्य सा तेज,था मैं प्रखर
सम्पूर्ण विद्याओं में,रहा था निखर
था अपने पौरुष से भिज्ञ
कुल,गोत्र से अनभिज्ञ
जाति से दीन-हीन
नहीं था मैं कुलीन
मैं सूत पुत्र मलीन।
(3)
धनुर्धर बना मैं महान
यह विद्या थी मेरी पहचान
राज्य-ध्रुपद धनु कौशल दिखलायी
स्नेह,प्रतिष्ठा नृप संग,द्रौपदी की पायी
मोहित हुआ रूप ,विद्वत्ता पर उसकी
थी प्रेम की ये अद्भुत अनुभूति !

(4)
प्रेम मेरा हुआ अंकुरित
उसकी कथा से,था मैं विचलित
मैं था त्यागित,अभिशापित
द्रौपदी यज्ञाग्नि से निःसृत
स्वार्थ के लिए,उसे उत्पन्न किया
यज्ञ की पूर्णाहुति से सम्पन्न किया।
(5)
थी वो सुंदर,विदुषी,चपला, कामिनी
दीप्ति से उसके भय खाती दामिनी
हृदय ने उसे कर लिया था वरण
नहीं था कल्पनाओं का संवरण
भावनाएँ अंकुरित,हो रहीं थी पुष्पित
अनजान था क्या होना था घटित।
(6)
स्वयंवर का हुआ आह्वान
प्रतिष्ठा पर थी धनुर्धरों की बाण
थे निश्चिंत मेरी प्रत्यंचा  और स्वाभिमान
मैं ही था योग्य धनुर्धर महान
पर हुआ तार-तार मेरा मान
शौर्य का किया गया अपमान
भरी सभा में सूत पुत्र कहकर
बेधे गए शब्द रूपी बाण
नहीं था मैं योग्य,क्षत्रिय महान!
(7)
आए थे कई योद्धा वीर
हुआ विजयी अर्जुन धनुर्वीर
गले पड़ी उसकी जयमाल
चहुँ ओर उसकी जय जयकार
हुआ बहुत मैं अपमानित, लज्जित
पर नहीं था मेरा प्रेम विस्मित
धर्म,लाज,लोक लिहाज
क्या ये सब थी,मन की भीत?
(8)
क्रोध ने मुझपर अधिकार किया
मेरे अंतर्मन ने धिक्कार किया
प्रतिशोध की अग्नि बनी दावानल
मैत्री दुर्योधन की थी सबल
वह था मेरा सच्चा बल
समय चलता रहा प्रबल।
(9)
समय ने अपना चाल दिखाया
चौपड़ रूपी जाल बिछाया
हार चुके जब पांडव सब कुछ
फिर पांचाली पर दांव लगाया!
काल बना उस क्षण निर्मम
पथ बने सब दुर्गम!
(10)
हार पांचाली,पांडवों ने शीश झुकाया
कौरवों ने अट्टहास लगाया
भरे दरबार में प्रिय तुम्हें गया बुलाया
खींच केश से,रजस्वला स्त्री को गया था लाया।
(11)
मेरी मति गयी थी मारी
निर्वस्त्र करने मैंने,कही थी एक नारी
मैंने भरी थी हुंकारी
भूल गया था,मैं पौरुष मर्यादा
क्षत विक्षत हो गया प्रेम अगाध।
(12)
विनाशकाले विपरीत बुद्धि
खो बैठा था, मैं अपनी सुधि
जिसे हृदय सिंघासन विराजमान किया
पूजिता का सम्मान दिया
उसी का क्यूँ मैंने अपमान किया?
सिर्फ पांडवो पर नहीं ये कलंक
मैं भी सहूँगा ये विष डंक।
(13)
क्यूँ अपमान हुआ प्रेम पर भारी
क्या मान मेरा करेगी नारी?
इससे अच्छा तो शिखंडी, वृहन्नला बन आता
सबसे कुछ प्रेम तो पाता
क्यूँ रचा ऐसा मेरा भाग्य,हे विधाता??
मित्रता मेरी मिसाल बनेगी
पर मेरा प्रेम??
सदा एक सवाल करेगी
सदा एक सवाल करेगी.....




Tuesday 6 March 2018

होली

क्या खेलूँ मैं होली
हो ली मैं तो कान्हा की
रंगी हूँ उसके प्रेम रंग
चढ़े न मोहे कोई दूजा रंग
कौन सा रंग लगाऊँ अंग?
सखी सहेली हैं सब संग
हँसी, ठिठोली करे है सब
चित्त न कुछ लगे है अब
पीत का प्रीत लगे है जब
मन है रंगा श्याम रंग
भाव हो रहे सतरंग
ओ अली, अलि सी गुंजन करे है मन
फ़ाग का रंग जलाए तन
क्या खेलूँ मैं होली?
मैं तो मन मोहन की हो ली
मैं तो साँवरे की हो ली.....

लकीर

फँसी हूँ हाथ में खींचे
लकीरों के गणित में
पता नहीं, दो समानान्तर रेखा
क्या कहना चाहती है
कोने में बना त्रिकोण
क्या समझाना चाहता है
एक सीधी सपाट रेखा भी है
उसे छूती एक वक्र रेखा भी
कुछ काटती,कुछ सितारों सा बनाती
क्या सच मे
करती है बयाँ
ज़िन्दगी के उतार- चढ़ाव
जोड़ -घटाव?
ज़िन्दगी में आते -जाते बदलाव?
ये लकीरें, रिश्तों की
ये लकीरें ज़िन्दगी की
क्यूँकर जुड़ते टूटने को
होते विभक्त, गुणित होते कभी
क्या दर्शन समझा जाते?
समीकरण ज़िन्दगी का सारा
क्या सच मे
इस छोटी सी हथेली में समा जाते?
कभी समझ नहीं आया हिसाब
ज़िन्दगी का,दिल का
या इस छोटी सी हथेली में
फैले गहरी लकीरों का !
जहाँ जुड़कर भी सब
घटता, बढ़ता रहता है
कुछ नया बनता
कुछ पुराना मिटता रहता है
और भाग का भागफल
तकदीर के नाम,होता है!!