Thursday 7 December 2017

सवाल

एक हादसा हुआ था
पर चटपटी खबर बन गयी
हर छोटे बड़े अखबारों की
मैं सुर्खियाँ बन गयी

हादसे से किसी को
नही सरोकार
क्या थी मेरी गलती
सब थे जानने को बेकरार
क्या था मैंने पहना
अकेली थी या
संग था कोई अपना?
कपड़े कितने बड़े मेरे थे
क्या दिखा ,क्या छुपा रहे थे
क्या उभार मेरे किसी को
उकसा रहे थे?
क्यूँ रात को अकेली
घर जा रही थी
क्या पी कर भी
कहीं से आ रही थी?
चरित्र पर मेरे सब
अँगुली उठा रहे थे
सवालों के पत्थर
उछाल रहे थे
सब कुछ बन तमाशा
मौन बन सोच रही थी
कैसे आदिवासियों के
कस्बों में
इन्ही छोटे कपड़ो में
महफूज़ रहती हैं लड़कियाँ
रात को सुनसान सड़कों पर भी
चलती हैं लड़कियाँ
पर फिर भी
कोई तमाशा कोई ख़बर
नहीं बनती है लड़कियाँ
सोच के फ़र्क में
शायद पलती हैं
ये लड़कियाँ.....

Sunday 3 December 2017

डायरी और कैलेंडर

चमकते दमकते सामानों में
रंग बिरंगे बिकते फोन की दुकानों में
अब हमारी अहमियत
है नगण्य ,गौण
अब हमें पहचाने कौन?
उदास ,हताश सी
कुछ कैलेंडर ,कुछ डायरियाँ
याद कर बीते दिन
हो रही थी गुमसुम मौन

कहता मिला कैलेंडर
क्या ज़माना था
जब सालान्त हुआ करता था
ऑफिस से लेकर घरों तक
हर जगह मैं
टंगा मिलता था
हर कोई मुझे पाकर
खुश हुआ करता था
कैलेंडरों के लेन देन
की होड़ लगी रहती थी
मुझसे घरों की दिवारें
सजी मिलती थी!
लोग मुझे निहारते
दिन- महीनों का हिसाब
रखा करते थे
महीने के अंत मे
प्यार से पलटा करते थे!
स्वरूप मेरा अब
मोबाइल में सिमट गया है
अस्तित्व वो पुराना
कहीं खो सा गया है
तरसता अब
उस स्पर्श उस नज़र को
जब कितने ही हाथों गुजरता
नए साल की शुभकामनाओं के साथ
लोगों के घर ,आया जाया करता था
मुस्कानों के साथ,स्वीकारा जाता था!

सब व्यथा सुन रही थी
डायरी हो गुमसुम
कहा ओ कैलेंडर अब मेरी सुन
मैं भी तो सबके
कितनी अजीज हुआ करती थी
लोगो के दिल के करीब रहा करती थी
लोगों के दिनचर्या का
 हिसाब हुआ करती थी
दिल मे उठते बातों की
किताब हुआ करती थी
बड़े जतन से मुझे संभालते थे
सीने से अपनी लगाते थे!
कितनों की हमराज़ ,हुआ करती थी
लोगों के जज़्बात ,सुना करती थी
पर अब
मेरी भी अहमियत खो गयी है
सब ज़ज़्बातों की ठेकेदार
ये मुई मोबाइल हो गयी है
हम दोनों
एक विगत गीत बन रह जायेंगें
यूँ ही एक दूजे को
अपनी व्यथा सुनायेंगे
"कागज़ बचाओ अभियान" में
कुछ सालों बाद
हम छपने भी
बंद हो जायेंगे!!!!!!!!

चूड़ियाँ

#चूड़ियाँ

चूड़ियों की तरह संभाला है यादों को
पहनती ,उतारती
 जतन से संभालती
कभी लाल,कभी पीली
कभी नीली, कभी हरी
रंगों में ढली हुई यादें
एक ,एक कर सब पहनती
छन छन छन छन!!
मीठी आवाज़ सी
सब मीठी यादों
खनकती एहसासों
को अपनी उँगलियों से सहलाती
मानो चूड़ियाँ नहीं
ये यादें नहीं
ये तुम हो तुम!
फिर पहनते ,उतारते
टूट जाती,चुभ जाती
कभी ये चूड़ियाँ
उसी विश्वास जैसे
उसी आस जैसे
छन से
और बिखर जाती
रंग बिरंगे टुकड़ो में
बस काँच सी
चुभन देती
यादों की....