Tuesday 31 December 2013

नया साल

आ गया एक और नया साल
फैलाएगा ये भी नयी
उम्मीदों और आशाओं का जाल
फिर से कुछ सपने बुने जायेंगे
कुछ टूटे सपने जोड़े जायेंगे
कभी निराश ,कभी हताश
कभी जोश से तैयार
नए मुकाम को पायेंगे.......
          गुजरे पल
कभी हसाएंगे, कभी रुलायेंगे
कई हसीन लम्हें बनकर यादें
हमारे दिलों को सह्लायेंगे
गुजरे पल से बड़ा कोई सबक नहीं
वक़्त से बड़ा कोई मरहम नहीं
            इन्हीं पलों को
समेटकर -सम्भाल कर
आगे बढ़ते जायेंगे
हम इस सुन्दर जीवन को
सदियों तक यूँ ही
जीये जायेंगे............

Saturday 21 December 2013

कुछ --दूरी

एक नभ और दोस्त इसके इतने सारे ,
अटल ,अडिग दोस्त सच्चे
सूरज , चाँद , सितारे,......
सोचती हूँ मन मे
बात ये हमेशा
जब संग रहते हैं ये सारे
तो क्यूँ दिखते हैं
कुछ अलग- अलग
कुछ दूर -दूर ?
      फिर भी
क्या है इसमें ऐसा
जो ये हरपल रह पाता
 ऐसा सच्चा!
न दोस्तों से कभी
टूटी इसकी दोस्ती
न हुई कभी लड़ाई
वाह रे दोस्ती !
 मैं भरपाई........
असमंजस में देख मुझे , शायद
उसने कौतूहल को मेरे समझ लिया था ,
और हौले से उसने मुझे कहा था
               देख  मुझे गौर से
तू खुद समझ जाएगी
अपने इस "सोच-जाल " से मुक्ति पाएगी
नभ को फिर देखा मैंने
नए सिरे से फिर
दोस्तों को परखा मैंने ,
  और सहसा
हुआ मुझे ज्ञान जैसे
"सोच -जाल " से मुक्ति
मिला कोई वरदान ऐसे
               दूरी
हाँ बस कुछ दूरी
यही है प्रगाढ़, सुदृढ़ ,अटल
    मैत्री का राज
जैसे दूर होकर भी एक
      दिन और रात
ये हैं ऐसे मित्र
जो न पाते  कभी मिल
इसलिए शायद इनकी मैत्री
  है चिर नवीन.......
  अगर आ जाये
ये भी पास
तो हो जाये बासी
इनके भी एहसास
इसलिए दूर हैं ये
अपने में मसरूफ हैं ये
और देते हैं
चिर मैत्री का
मूलमंत्र ये
      दूरी
हाँ बस कुछ दूरी .............




प्रश्न- उत्तर

पूछा एक दिन मैंने चाँद से
कहते हैं तुम शीतल हो
तो क्यूँ भर जाते हैं लोग
देख तुम्हें उष्णता से ?
विहंस उसने कहा मुझसे
शीतलता में है,जीवन की उष्णता निहित
उष्णता में है निहित शीतलता
न हो अगर शीतलता
तो ,चाह हो कैसे उष्णता की ?
हो न  अगर उष्णता तो
एहसास कैसे हो शीतलता  की?

देख शांत भाव से बहती नदी को
 पूछा मैंने उससे
क्यूँ  शांति की बाहों में बैठकर भी
में हो रही हूँ अशांत?
कहा नदी ने शांत भाव से
क्या चंचल जीवन में
कभी पाई है किसी ने शांति ?
है अशांति जीवन में व्याप्त ,
नहीं मन की शांति पर्याप्त,
हो अगर जीवन में शांति
कैसे हो नित नूतन क्रांति ?

जा एक पेड़ के सम्मुख
पूछा मैंने उससे
तुम करते हो ,अपने सर्वस्व का होम,
पर ,  तुम्हें क्या मिलता है इससे ?
धीर ,गंभीर मुद्रा में कहा पेड़ ने
ओ! ओछे मानव
क्या तू प्रतिदान ही ढूंढेगा?
क्या तू देता है प्रतिदान ?
          सूर्य को .......
जो देता है तुझे अपनी रौशनी
रौशनी जो है , तेरी ज़िन्दगी
पर तू उसे क्या देता है ?
            चाँद को ........
जो लुटाता है अपनी समस्त चांदनी
पर तू उसे क्या लौटाता है ?
               बादल को .........
जो देता है बूँद-बूँद  पानी
क्या करेगा तू उसकी सानी ?
ओ मानव ! सोच तू अपने मन में
क्या देगा तू प्रकृति को प्रतिदान ?
निरुत्तरित रह गयी मैं !
उलझी दान -प्रतिदान  के जाल में
आज समझ गयी एक राज़
जीवन में ,प्रतिदान की रखो न इच्छा,
कर्त्तव्य पथ  में नहीं होती ,अपनी स्वेच्छा..........

Friday 22 November 2013

उडान

पंखहीन मैं उड़ रही थी
कल्पना की उडान
शब्दहीन मैं उड़ रही थी
कल्पना की उडान
आह, कितना सुन्दर अनुभव था
सिर्फ ,मैं थी
और मेरा दर्शन था ,
बस, अपने भावों का प्रदर्शन था .....
कल्पना की कूची से
शब्दों का रंग बिखेरती
जो न जाना किसी ने
उन भावों को कुरेदती,.....
न कोई संकोच ,
न कोई दुविधा,
अपने शब्दों से लिपटती.........
दबे -दबाए, गड़े- गड़ाए
कई भावों को समेटती
न किसी का भय
न किसी की चिंता
भारहीन मैं उड़ रही थी
कल्पना की उडान
शब्दहीन मैं उड़ रही थी
कल्पना की उडान
   सोचती हूँ
न होती ये कल्पना
तो जीवन कितना नीरस होता
खाली दिल , खाली मन
कितना बेरंग होता !
कहाँ जाकर इंसा अपने
खवाबों का पंख फ़ैलाता?
कहाँ अपने इन्द्रधनुषी
सपनों को सजाता?
बहुत सुख है उड़ने में
दूर -दूर तक उन्मुक्त उडान
हाँ, पंखहीन मैं उड़ रही थी
कल्पना की उडान
असीम नभ ,असीम जग
बस तान-वितान ............
                

Monday 18 November 2013

परछाईं

हैं हमारे सुख -दुःख
हमारी परछाइयों की तरह
हमेशा साथ हमारे चलते
कभी बढ़ते-कभी घटते
सूरज की ओट लिए
कभी हमसे आगे
कभी पीछे रहते
जैसे हो , आँख-मिचौली खेलते .......
कभी जैसे खुद की परछाईं डराती है
कभी बन अजीबोगरीब हंसाती है
वैसे ही हम डर जाते दुःख में
और कभी हँसते सुख में..............
हो नहीं सकता दूर जैसे
हमसे हमारा साया
वैसे ही है ये
सुख -दुःख की माया
बढ़ते- घटते चाँद की तरह
कभी बढ़ेंगे, कभी घटेंगे
पर हमेशा साथ रहेंगे............
बस नहीं हमारा
हमारी बनती बिगरती परछाइयों पर
सुख दुःख की बहती पुरवाइयो पर ...............

Wednesday 13 November 2013

मनमंदिर

सारे संत,ग्रंथ कहते यही
अपने अन्दर ही है ईश्वर,
उसे ढूंढो तो सही.
पर हममें से इसपर
है कितनों को यकीं?
ढूंढते हैं उसे
जो है कण-कण में
हर जगह  हर कहीं.......
कभी हम ढूंढते उसे
मंदिर,मस्जिद, गुरुद्वारों में
कभी गिरजा कभी मजारों में,
है किसकी कितनी आसक्ति?
है किसकी कितनी भक्ति?
तय यह होता नहीं
चंदा -चढ़ावों से
ना पाखंडी पंडितों के बहकावे से ,
ना ही दान -दिखावे से .........
हजारों भूखे मर रहे हैं
पैसे पैसे को तरस रहे हैं
पर, मंदिरों में नोट बरस रहे हैं
लोगों के पास खाने को नहीं
मंदिरों में दूध बह रहे हैं...........
जिस ईश्वर ने दिया सबकुछ
उसे क्या दिखाना है ?
पर ये समझे कौन?
और किसे समझाना है ?
बुद्ध ने जो मार्ग दिखाया
उसमे नहीं मूर्ति का अस्तित्व बताया ,
पर, लोगों ने बनाकर उनकी ही मूर्ति
उनको ही पूजनीय बनाया ...........
क्या नहीं यह विरोधाभास ?
पर है किसे यह आभास?
ऐसे एक नहीं कई किस्से हैं,
जिस इतिहास के हम हिस्से हैं.
पर , सच -सच यह बताना
किस ग्रंथ में ऐसा लिखा नहीं ?
है अन्दर हमारे ही ईश्वर
क्या सब विद्वानों ने यह कहा नहीं?
है विधाता की शक्ति
हम सब के अन्दर ,
चाहे वो रेत हो या समंदर,
वह है बनकर विश्वास
हमारी साँसों में
हमारे अंतर्मन में
हमारे अन्दर ................


Friday 8 November 2013

उलझन

कई उत्तर कई बार
स्वयं प्रश्न बन जाते हैं,
हमें शब्दों में उलझाते हैं,
हम उत्तर वही ढूँढ़ते हैं
जो हमारे मन को भाते हैं,
कभी ज़िन्दगी के प्रश्नों को
अनदेखा किया करते हैं ,
कभी सुलझे उत्तरों से
कई सवाल बनाये जाते हैं,
चाहत क्या है अपनी ?
कभी अपने दिल कभी दिमाग
से पूछते रहते हैं.
क्या जायज़ क्या नाजायज़
यही पृष्ठ पलटते रहते हैं....
निष्कर्ष कभी हमेंसुलझा
कभी और उलझा जाते हैं
शुरू होता है जो
एक प्रश्न से ,
वो कई प्रश्नचिन्हों पर
जाकर अटक जाते हैं
सारे प्रश्न , सारे उत्तर
होते हमारे सामने भी
हम कुछ समझ
नहीं पाते हैं
        किन्तु
ज़िन्दगी की पाठशाला
सारे प्रश्नोत्तर
हमे अपने काल -चक्र में
समझा जाते हैं .........

Tuesday 5 November 2013

कल और आज

बरसों पहले
देख जलते दीपक को
कह बैठी थी मैं, उससे
तू तो मेरा साथी है
तू भी जलता
मैं भी जलती
तो , चल मैं भी
तेरे संग चलती.....
तनिक व्यंग्य से कहा था , उसने
तू हांड- मांस का मनुष्य
सुख -वैभव का है भोगी
जलना मेरी है नियति
क्या जलने की पीड़ा
तुझे सहन होगी?
तब हँसने की थी , बारी मेरी
कहा था मैंने हंसकर उससे ,
तेरा जलना तेरा मोक्ष है
पर मेरा जलना ?
मेरी नियति
पर दोनों का साम्य यही
तुझे जलाता है कोई
और मैं घुट -घुट जलती ...........

               आज
बरसों बाद ,फिर
हम दोनों आमने -सामने  हैं

मेरे सामने  ज़िन्दगी के कई
सुलझे मायने  हैं......
      देख मुझे
पूछा दीपक ने मुझसे
क्या अब भी तू मेरा साथी है?
क्या अब भी तू संग मेरे
चलने को राज़ी है?
हँसकर कहा मैंने
हाँ चल ले चल
अपने संग मुझको
अब मैं जान गयी हूँ खुदको
परिपक्व हो गयी हूँ मैं
घुटन और यथार्थ के
बीच की लकीर को
समझ गयी हूँ मैं
अपने अँधेरे कोने में भी
रौशनी फैला रही हूँ मैं
जलकर भी तेरी तरह
हँसना सीख गयी हूँ मैं
  साम्य अब भी
दोनों की है  वही
        पर बस
मेरी सोच नयी ................

Wednesday 30 October 2013

कर्म

डलती है नींव, बचपन में,
सच- झूठ की
 फिर ऊम्र के साथ
बढता है हमारा दायरा
             और
बातें करते हैं हम
 पाप- पुण्य की
धर्म -अधर्म की
कर्म -अकर्म की
          पर
क्या करने से बातें
मिलती है शांति मन की?
क्या धर्म क्या अधर्म है ?
जीवन में कई
अनसुलझे मर्म हैं
जिसे करने से हो
मन हर्षित ,पुलकित
मेरे लिए तो बस
वही सच्चा कर्म है ......... 

Saturday 26 October 2013

अंतर्सुर


अक्सर हम
अनसुनी कर देते हैं
अपनी अंदरुनी  आवाज़ को ,
बना लेते हैं ,अपना संगीत
दुनियादारी के राग को .........
मिलाते रहते हैं अपना सुर
सबके सुरों के साथ ,
और बजाते रहते हैं
उनके ही साज़  को .....
देते हैं तसल्ली खुद को ,गाकर
"यही है ज़िन्दगी ,यही है दुनियादारी
जिसे निभाने में ही है समझदारी "
और बस आलापते रहते हैं
इसी आलाप को ......
डूबे रहते हैं हम
रोज़मर्रा के रियाज़ो में
और भूल बैठते हैं
अपने ही उद्गार को ,
कभी निकल जाती है
उम्र कभी सदियाँ
सुनने में अपने ही
दिल की आवाज़ को
सुन लेते हैं जिस दिन
अपनी अंदरुनी आवाज़ को
निकल पड़ती है सरगम
और समझ जाते हैं हम
अपने अंतर्मन के सुर- ताल को
और चल पड़ते हैं
एक नए आग़ाज़ को .........

Tuesday 22 October 2013

ख़त

पुराने खतों को निकाल कर बैठी हूँ ,
यादों के अम्बार पर बैठी हूँ,
तब्दील हो गया है
अतीत  वर्तमान  में,
मैं उसकी रौशनी मे
नहा कर बैठी हूँ..
हर ख़त का अपना किस्सा है
हम दोनों का अपना हिस्सा है ,
आज उन किस्सों को ,
सुनने बैठी हूँ
पुराने खतों को निकाल कर बैठी हूँ ...
हर एक बात लिखा करती थी ,
हर अफसाना बयां करती थी ,
जुदाई के छण हो या
मिलने की आकुलता,
सबको शब्दों मे, उतारा करती थी
अपनी परेशानियां, अपनी नादानिया
सब तुम तक पहुंचाया करती थी
बिन सोचे -समझे ,कुछ भी लिख जाया करती थी
मन के भावों को ,ख़त से ही
तुमसे बाटां करती थी,
बेटे के बढ़ते पहले कदम की ,
उसके पहले बोले शब्द की,
उसकी किलकारी, उसकी शैतानी
सब तुमसे ऐसे ही तो, बांटी थी
उसकी सारी बातें ऐसे ही
तुम तक पहुंचाया करती थी,
तुम्हारे खतों से ,तुम्हारे शब्दों से
कितने ही अनदेखे जगह
अपने -अपने से हैं
कितने ही पहाड़ों और पगडण्डीयों
की राह, जाने पहचाने से हैं.
हजारों मिलों की दूरियाँ
मिटा देती थी ये ख़त, जिन्हें
आज फिर निकाल कर बैठी हूँ........
खतों से जीवंत हो गए हैं
जैसे गुजरे पल
कई अवसादों के पल
कई उन्मादों के पल
आज सभी पलों को कुरेदने बैठी हूँ
भूले-बिसरे पलों को
पन्नों मे संभाल कर बैठी हूँ
नए आज में, नए साधन में
ख़त हो गया है गुजरा कल
बस उन्ही गुजरे कल को
सजीव कर बैठी हूँ
पुराने खतों को निकाल कर बैठी हूँ
यादों के अम्बार पर बैठी हूँ .................
 


Friday 18 October 2013

रिश्ता -एक ज़ेवर

होते हैं रिश्ते जेवर  की तरह
जिन्हें हम सँभालते हैं
धरोहर की तरह
कभी पहनते ज्यादा
किसी जेवर को ,
कभी सम्भाल कर रख देते हैं ,
बस कभी नज़र भर देख
उसे संजो  कर रख लेते हैं ,
लद जाते हैं कभी ,
जेवरों के बोझ तले
फिर भी पहनते रहते हैं ,
दिखाते हैं अपनी संपूर्णता
और उसे झेलते रहते हैं ,
कभी असली ,कभी नक़ली
जेवरों को ढ़ोते फिरते हैं
कभी किसी मनपसन्द जेवर से
खुद को सँवारकर
ज़िन्दगी सजा लेते हैं,
कभी किसी जेवर को
बंद कर तिजोरी मे
ऊम्र गुजार देते हैं.......

Monday 14 October 2013

मौन

मौन की  अपनी एक भाषा है ,
एक अपनी परिभाषा है ,
कुछ न  कहकर भी
बहुत कुछ कह जाती है ,
सिर्फ दिल ही नहीं
कई रिश्तो को भी
जोड़ जाती है,
मौन एक साधना है,
मौन एक भावना है ,
कभी प्रभु की
कभी खुद  के भावो की
 अराधना है ...........

पतंग और हम

आसमान मे उड़ते रंग बिरंगे पतंग
आज की युग की साम्यता लिए
स्वतंत्र, निर्भय, उन्मुक्त
सब एक दुसरे से
आगे  बढ़ने को तत्पर
हर घडी, हर पल
बस ऊंचाई की चाह लिए
आगे बढ़ने की राह किये
कटकर या काटकर
मरकर या मारकर
यही एक धेय लिए
यही एक उद्देश्य लिए .......
ऊँची उडान मे कोई बुराई नहीं
पर ,किसी की डोर काटना
अच्छाई नहीँ,
कुछ पतंग पीछे उड़ रहे हैं
          इंतज़ार मे
हवाओं के रुख के बदलने का
दिशा दशा पलटने का
आगे पीछे होड़ लगी है
बस सबकी दौड़ लगी है .......
         सच है
है आकाश असीम
पर हमें अपनी सीमितता समझना है
है डोर का भी ओर छोर
ये समझना ओर समझाना है ............

Friday 4 October 2013

मेरा चेहरा

मैं हर रोज एक नया चेहरा लगा लेती हूँ ,
दिल पर पाबंदियाँ और पहरे लगा लेती हूँ,

एक चेहरा जो झूमता है, गाता है
ज़िन्दगी मे हर कदम पर कहकहे लगता है
एक चेहरा उदास रहा करता है ,
ज़िन्दगी मे हर गम चुपचाप सहा करता है ,

एक चेहरा  ख्वाब देखा करता करता है
कांटे  नहीं बस गुलाब देखा करता है
एक चेहरा हकीकत की खबर रखता है
फूलों के साथ काँटों पर नज़र रखता है

एक चेहरा ,जिसे संस्कारों ने पाला है
उसके इर्दगिर्द आदर्शो का जाला है
उसूलों और ईमान की बाते किया करता है
हर वक्त ज्ञान की बातें किया करता है,
 विद्रोह पनपता है एक चेहरे मे
एक आग सुलगती है कहीं गहरे मे
जो सारी परम्पराओ को तोडना चाहती है
हवाओ का रुख मोड़ना चाहती है

यदि इनमे से कोई चेहरा
तुम्हें भाया है
तो वो मैं नहीं सिर्फ  मेरा साया है
मैं तो हर रोज़
नया चेहरा लगा लेती हूँ
दिल पर पाबन्दियाँ और पहरे लगा लेती हूँ.........

Tuesday 1 October 2013

मुक्तिबोध

हमारी इन्द्रिय,
हमारा मन,
हमारी बुद्धि,
हमारी आत्मा,
और ,सर्वोपरि परमात्मा,
चक्रव्यूह मे इनके
पूरी विश्व है लिप्त,
किसकी है आत्मा तृप्त?
हर सतहों पर
प्रश्नों का अथाह समुद्र
जिसे पार करने मे लगा
      हर मनुष्य.
होड़ लगी है
आगे-पीछे
जन्म-जन्मान्तर सुधारने को ,
कितनो ने ही पढ़ी गीता ,
और गाया रामायण को ,
पर उसे ही मिली मुक्ति
जिसने नर मे देखा
   नारायण को ........

Friday 27 September 2013

कतरन

व्यस्त ज़िन्दगी के
गुजरे पलों के इधर उधर पड़े
लम्हों के कतरनों को
संभाल कर रखना ...
कहीं कोई रंगीन
कहीं रंगविहीन टुकड़ा पड़ा होगा
किसी टुकड़े में
दाग कोई लगा होगा ,
दोस्तों की टोली की तरह
कई यादों का टुकड़ा सतरंगी होगा,
 रिश्तो की तरह,कोई टुकड़ा
किसी डोर से उलझा होगा ,
कहीं कोई टुकड़ा .कहीं से आरा
कहीं से तिरछा होगा,
कुछ यूँ ही कुछ अजनबी एहसासों
में लिपटा होगा
ज़िन्दगी के अनुभवों की तरह ,
सब टुकडो का
 मायना और अस्तित्व होगा
जोड़कर सब कतरनों को,सिलकर
चलो बनाये एक चादर
कभी ओढ़कर जिसे
कभी बिछाकर
यादो की कतरन
अनुभवों और यादों की
उष्णता देगा....




Wednesday 25 September 2013

अकेले

क्या करती हो अकेले??
कई बार प्रश्न ये
लोगो के मैंने हैं झेले,
    किसे समझाऊ?
     किसे बताऊँ?
अकेली हूँ  पर तन्हा नहीं ,
कल्पना मेरी संग सहेली ,
यादों के रंग से मैं
रचती अपनी हथेली,
ख्वाबों से सजाती
दिल का हर एक कोना
हर एक गली,
 कभी बुझती,
कभी बुझाती
ज़िन्दगी  की पहेली
इतना कुछ है करने को
फिर कैसे हुई मैं
          अकेली??????
     


Tuesday 24 September 2013

जन्मदिन

               मानो                            
कल की ही तो बात है
उसके नन्हे उंगलियों को पकड़
चलना उसे सीखा  रही थी,
उड़ना उसे बता रही थी,
               कब
वक्त को पंख लगे
कैसे गुजरे
दिन, महिने , साल
और बढ़ते रहे
दिन -प्रतिदिन
हमारे मोह -माया जाल .
             अब
विस्तृत जग में
विस्तृत नभ में
घोंसला छोड़, स्वतंत्र उड़ने को
तैयार हमारा बाल,
सबकी आशीष खड़ी है
बनकर उसका ढाल,
जन्मदिन हो उसे मुबारक
ऐसे ही सालों -साल......................
(२४-९-२०१३)

Friday 20 September 2013

चाह


चाँद को पाने की आस
किसे नहीं होती ?
बुलंदियों  को छूने की चाह
किसे नहीं होती ?
जानती है समुन्दर की लहरे भी
छू नहीं पायेगी चाँद को
पर चांदनी रात मे उसकी
उफान कम नहीं होती .
गंतव्य पथ से जब भी हुई हैं
       राह -च्युत नदियाँ
काल चक्र घूम जाता है
उथल -पुथल कहाँ नहीं होती?
बढ़ते चलो , जूझते चलो
चाँद को पाने की आस लिए
बुलंदियों को छूने की प्यास लिए
सीख लो कुदरत से कुछ बातें
तो ज़िन्दगी में
  ख़ुशी कम नहीं होती ............

Tuesday 17 September 2013

प्रभु

धीमी -धीमी हवा की सरसराहट ,
खिले अधखिले फूलों की तरावट,
उन पर घूमती तितलियों की नज़ाकत,
चिड़ियों की मीठी चहचहाहट,
बारिश  से भीगी मिट्टी की सोंधाहट
नंगे पाँव घास पर चलने से
शरीर की सुगबुगाहट,
      महसूस कर
प्रकृति की ये सब बनावट ,
और कर एहसास
चारो ओर है बस
एक उस प्रभु
की ही तो गुनगुनाहट.............

श्रदांजलि......निर्भया के नाम

निर्भया की गहरी नीन्द ने
सबको जगा दिया
कितनी गिर सकती है मानवता ,
यह बता दिया.
जिस रावण का जलता है
पुतला हर साल
उसने तो बस सीता को हरा था ,
क्रोधित था वो
क्योंकि सीता ने उसे
नहीं वरा था
 हमने उसे ,बुराई का
पर्याय बना दिया.
बहुत भला था
त्रेतायुग का रावण
बीते वक़्त ने
यह बता दिया
  इस युग में
शुम्भ -निशुम्भ की तरह
गुणित हो रहे है राक्षस,
रोज़ कहीं न कही
हत्या और बलात्कार
कोई प्रकट नहीं होनेवाला है
          अवतार
खुद बन कर चंडी
कर इनका संहार
निर्भया ने जाते जाते
यह बता दिया
उसकी गहरी नीन्द ने
सबको जगा दिया ...........

Monday 16 September 2013

तलाश

तलाशते  रहते हैं हम सब
कई मंजिले एक साथ
जबकि ,रहते हैं हम
कभी अपने हालातों मे गुम
कभी अपने सवालातों मे गुम
भटकते रहते हैं हम
कभी इस  दर
कभी उस दर ,
हजारों ख्वाहिशों का बोझ उठाए
एक कोई रास्ता नहीं
एक कोई आरज़ू नहीं
फिर कैसे मिले हमें मंजिल
यूँ ही भटक भटक कर
        दर -दर .........

Saturday 14 September 2013

सफ़र

यादों के सफ़र में,
सहर हो गयी,
ज़िन्दगी इस दरम्या,
कहर हो गयी ,
कितना भी चाहा,
न याद करूं तुम्हें,
पर तेरी यादें ही मेरी
हमसफ़र हो गयी.......

नयी सुबह

बहुत दिनों से चुभन थी, जकरण  थी
सोच रही थी
क्यूँ  है ये?
अंतर्मन से पूछा तो
पाया  जवाब
बहुत दिनों से सोई थी तू
दुनियादारी की सपनो मैं खोई थी तू
किसी और के सोच को बिछाकर
उसके विचारो को ओढ़कर
सोकर अकड़ गयी है तू
दुसरो की सोच से जकड़ गयी है तू
अब भी कोई देर नहीं हुई
उठ जा , जाग जा
बारिश की बूंदों से
धो डाल
अपनी अकरण -जकरण
सूरज की नयी रौशनी में
अपनी नयी सोच को बिछा नहीं
                  फैला
अपने विचारो को ओढ नहीं
               उड़ा
ओर देख एक अनोखी दुनिया
एक अनोखा स्वप्न..........

Friday 13 September 2013

ज़िन्दगी

फलसफों और दलिलो से
किसी के बहुत पास
किसी से बहुत दूर
है ज़िन्दगी,
क्या सच , क्या झूठ,
यही उधेरबुन है ज़िन्दगी.
कर लिया है
किसी ने कैद
ज़िन्दगी की सच्चाईयों को
अपने फलसफो में
पर मेरा भ्रम ही है
मेरा फलसफा , मेरी ज़िन्दगी
मैं क्या करूँ हिसाब
आये गए पलो का,
बहुत बेहिसाब है
        ज़िन्दगी ......

Saturday 7 September 2013

प्रेम

यथार्थ की कटुता
कल्पना की मधुरता ,
मन की चंचलता
प्रेम की मादकता
कहाँ संजोऊ? कहाँ समेटू मैं?
इस रिश्ते की प्रगाढ़ता?
मन की अधीरता
बन जाती है
कल्पना की जीवन्तता
             पर
यथार्थ की सजीवता
से भी सजीव है
प्रेम की परिपूर्णता........

अंकुरण

मेरी नई अंकुरित  कविता
किसने किया सृजन तेरा ?
बीज तो बरसो से डला था
किसने प्रेम की बूंदे डाली ?
कैसे फल फूल रही तू
और महका रही
अस्तित्व मेरा ?
बता ना मेरी अंकुरित  कविता
किसने किया सृजन तेरा ?
खिल खिल कर , महक महक कर
बोली मेरी कविता
जैसे एक पंछी बो जाता है
बीज कई जाने अनजाने.
पड़ी रहती है वो धरती पर
जब तक बारिश की बूंदे
ना आए उन्हें सह्लाने
ओर फिर एक बूँद ही है पर्याप्त
जिससे होती है
एक नयी उत्पति
एक नया सृजन
मुझे भी मिली वो
प्रेम- बूँद
ओर मैं भी बन गयी
एक जीवन
एक अंकुरित कविता

Friday 6 September 2013

मृगतृष्णा

एक पूर्ण ज़िन्दगी में
कहीं कुछ सुनापन
कहीं कुछ ख़लिश
कर देती है बैचैन
पाने को उस
अतृप्त प्यास को
जिसे मृग-तृष्णा कहूँ
या ज़िन्दगी की मरीचिका
या वो है मृग कस्तूरी
जिसकी खुश्बू की चाहत से
बैचैन है मन
उसे पाने को
पर शायद वो है मेरे ही
वजूद का हिस्सा
बस जिसे दूंढ रही हूँ
             मैं !!!!