Friday 30 June 2017

माँ की तस्वीर

चलो एक कोशिश करती हूँ
माँ की तस्वीर बनाती हूँ
आकार तो बना लिया
पर भाव कहाँ से लाऊँ?
आँखों मे तस्वीर के
माँ का प्यार कहाँ से लाऊँ?
बनाती हूँ,मिटाती हूँ
पर कुछ है अधूरा सा
जो मैं रंग नहीं पाती हूँ
चलो एक कोशिश करती हूँ
माँ की तस्वीर बनाती हूँ।
तस्वीर में माँ को सजाती हूँ
बड़ी सी बिंदी भी लगाती हूँ
पर काम में लगे माँ के
हाथों से फैले ,बिंदी की सुंदरता
नहीं ,तस्वीर में उतार पाती हूँ।
लगती तस्वीर कुछ अधूरी सी
नहीं माँ तेरी जैसी पूरी सी
लाल रंग से होठों को सजाती हूँ
पर तुम्हारी स्मित
नहीं चित्र में उतार पाती हूँ
फिर भी कोशिश करती हूँ
माँ की तस्वीर बनाती हूँ।
प्रेम,समर्पण, निश्छलता, ममता
सारे गुण सिमटे माँ तुममे
नहीं ये सारे भाव
कैनवस पर अंकित कर पाती हूँ
फिर भी कोशिश करती हूँ
माँ की तस्वीर बनाती हूँ।
बन गयी तस्वीर अब जो
सब कोने से उसे निहारती हूँ
पर कुछ है अब भी
अधूरा सा
जो समझ मैं नहीं पाती हूँ।
सारे कृत्रिम रंगों को मिला जुलाकर
एक माँ की तस्वीर बनायी
पर अपनी कूची से
विधाता के बनाये "माँ" से
कहाँ मैं अच्छा चित्रित कर पायी!!







Tuesday 27 June 2017

डाकिया

खाकी वर्दी ,सर पर टोपी हुआ करती थी
उसकी साइकिल की ट्रिन ट्रिन की
एक अलग आवाज़ हुआ करती थी
चश्मे के नीचे से झाँकती
उसकी मुस्कान थी
कंधे पर टंगा झोला ,
उसकी पहचान थी।
इंतज़ार में उसके
पूरा घर रहा करता था
पैगाम वो खत के रूप में
लाया करता था
किसी ज़माने में
ऐसा डाकिया हुआ करता था।
जाने ,अनजाने लोगो के
दुःख सुख से जुड़ा होता था
खुशखबरी वो कुछ
नख़रे दिखाकर दिया करता था।
कभी पैसे तो कभी मिठाई
लिया करता था,
लोगों से भी रिश्ता जुड़ा रखता था
किसी ज़माने में
ऐसा डाकिया हुआ करता था।
समय ने ली करवट
स्वरुप सबका बदल गया
लिफाफा, डाक टिकट, डाकिया
सब मशीन बन गया
न होती ट्रिन ट्रिन की आवाज़ अब
न होती डाकिये की पदचाप अब
खत आना हुआ बंद अब
धड़कते दिलों से खत का लेना
हुआ ख़त्म अब
डाकिया भी गुमनाम अब
ड से डाकिया
शायद यही उसकी पहचान अब।
हाँ ,किसी ज़माने में
होता था ऐसा डाकिया
किताब और गूगल बताया करेगा
ऐसे पहचान डाकिये की
सबसे करवाया करेगा......


बरस ओ बादल

ओ बादल जमकर बरस
सूखी, तपती धरती
रही तेरे स्पर्श को तरस
करवा लेना मान मनुहार
दिखा लेना अपना रोष
गुस्सा तुम्हारा लोगों से
बेचारी धरती का क्या दोष?
प्रगति के नाम पर लोग
प्रकृति को रहे उजाड़
कर रहे सब धरती पर ही अत्याचार
देखो न
धरती कैसे कातर नयनों से रही निहार
लगा रही तुमसे गुहार!
बादल और धरती का रिश्ता बेजोड़
फिर ऐसे कैसे तुम
आहिस्ता आहिस्ता बंधन ये
दिए जा रहे हो तोड़?
इस विशाल धरती की
बस तुम्ही मिटा सकते प्यास
तुमसे ही बस अब
इसकी आस
ओ बादल अब तो खा तरस
जमकर बरस
खूब बरस
खूब बरस!!!!

शायद






 कुछ अनकहे शब्दों में
कुछ अधूरे छन्दों में
कुछ अधूरे से सवाल में
कुछ उलझे से ख्याल में
तुम्हारे पुराने घर की दीवारों में
टिमटिमाते सितारों में
रतजगे के आलिंगन में
मासूम से चुम्बन में,
बंद पड़े लिफाफों में
खत के अल्फ़ाज़ों में,
किसी डायरी के पन्नों में
फंसी हूँ कुछ हरफ़ो में
साथ सुने गीत में
यादों के मधुर संगीत में,
तुम्हारे अच्छे, बुरे ख़्वाबों में
तुम्हारी शहर की हवाओ में
तुम्हारी आस्था और विश्वास में
तुम्हारी चढ़ती, उतरती श्वास में
तुम्हारी दर्द भरी मुस्कान में
तुम्हारी अपनी पहचान में,
तुम्हारे नेह के गुमान में
शायद
मैं अब भी बाकी हूँ तुममे
शायद!!!


Sunday 25 June 2017

ख़ुशी

खुश रहने लगी हूँ,
चहकने लगी हूँ,
शब्दों के पंख क्या लगे
मैं तो उड़ने लगी हूँ।
कल्पना की उड़ान है,
असीम जहान है
बनाना अपनी पहचान है,
कुछ बुनने लगी हूँ
कुछ लिखने लगी हूँ
आजकल ,खुश रहने लगी हूँ।
लग रहा जैसे
नयी सी हो गयी हूँ,
लहरों,छन्दों के नए भाव
रोज़ पहनने लगी हूँ,
हर लफ़्ज़ों में ,हर पन्नो में
नयी आशाएँ देखने लगी हूँ
आजकल,खुश रहने लगी हूँ।
कविताओं के दिए जलाने लगी हूँ
कल्पनाओं की बाती से
रूह रोशन करने लगी हूँ।
चाहती हूँ फैले रौशनी
हो चहुँ ऒर उजियारा
अपनी लेखनी से
लौ प्रज्ज्वलित करने लगी हूँ
आजकल बहुत खुश रहने लगी हूँ।
भावों के रंगों से ओतप्रोत रहने लगी हूँ
शब्दों से होली खेलने लगी हूँ
देख बढ़ते ,घटते  चाँद को
सेवइयों की कल्पना करने लगी हूँ,
रोज़ ही ईद ,होली मनाने लगी हूँ,
आजकल बहुत खुश रहने लगी हूँ।
कभी तितली कभी भंवरा
कभी फूल बन जाती हूँ
कभी बादल, कभी बारिश बन
शब्दों को सींच जाती हूँ
सौंधी सौंधी मिटटी की
 खुश्बू सी कविता
को हरपल महसूस करने लगी हूँ
आजकल बहुत खुश रहने लगी हूँ
बहुत खुश रहने लगी हूँ....





Tuesday 13 June 2017

पुरुष

नहीं पुरुष होना आसान होता है!
तुम पुरुष हो,रो कैसे सकते हो
तुम पुरुष हो तुम सब झेल सकते हो!
बचपन से उसे ये सुनना पड़ता है
कोमल मन को भी
पाषाण बनाना पड़ता है
नहीं पुरुष होना आसान होता है!

यौवन की दहलीज पर आते ही उससे
उम्मीदों की झड़ी लग जाती है
सबकी उम्मीदों पर उसे
खड़ा उतरना पड़ता है,
अपने स्वप्नों को भूल
माँ बाप के देखे स्वप्नों को
पूरा करता रहता है
नहीं पुरुष होना आसान होता है!

सब बातों की जिम्मेवारी
कंधो पर आ जाती है
मुश्किल हालातों में भी
मुस्कुराता रहता है क्योंकि,
रोते नहीं पुरुष
वो खुद को ये समझाता है!
नहीं पुरुष होना आसान होता है!

माँ, बाप,घर,परिवार
सबके लिए जीता है
उनकी ख़्वाहिशों की खातिर
अपने को वो भूलता है
सबके नाज़ों नख़रे वो सहता है
नहीं पुरुष होना आसान होता है!

बच्चे उनके उनसे बेहतर जीए
पत्नी की मुस्कान न हो कम
माँ बाप की उम्मीदों पे हो खड़ा
न हों रिश्तेदार ख़फ़ा
सबका हिसाब उसे रखना पड़ता है
नहीं पुरुष होना आसान होता है!

स्त्री जीवन गर है मुश्किल
तो पुरुष का जीवन भी
आसान कहाँ होता है?
अपवादों की बातें छोड़ो
अपवाद कहाँ नहीं होता है?
नहीं, पुरुष होना भी
 आसान होता है!!!!






रेशमी एहसास

कभी नहीं भूल सकती
वो खूबसूरत एहसास
तेरी रेशम सी छुअन का
जब नन्हे नन्हे से हाथों ने
छुआ था मुझे पहली बार।
झंकृत कर गया था,
मेरे शरीर का एक एक तार।
बजा गया संगीत
ममत्व और वात्सल्य का
बस,तुम्हारी वो नन्ही सी
रेशम से भी रेशमी
छुअन करा गयी
एक पूर्णता का एहसास....

बाल मजदूर

छोटा सा छोटू
अचानक से बड़ा हो गया
पिता की मृत्यु के बाद
घर का पिता बन गया।
कभी ईंटे उठाई,
कभी किसी ढाबे पर चाय बनाई
कभी की बूट पॉलिश, कभी की पुताई
दो पैसे मिले जहाँ ,वहीँ की उसने कमाई।
छोटी सी मुन्नी ने भी
अपनी जिम्मेदारी है दिखाई
गुड्डा गुड़िया खेलने की उम्र में
छोटे भाई बहनों को संभालती,
कभी पत्थर ढोये
कभी घरों के जूठन धोए
उसने  भी हैं अपने सपने खोए।
ज़माने की गन्दी नज़रो की भी शिकार हुई
पर सुनता कौन उसकी
वो लाचार हुई।
ढोते ढोते जिम्मेदारी
कब बचपन इनका जवान हुआ
क्या होता है बचपन
उन्हें न कभी भान हुआ।
नाम के छोटू ,मुन्नी
मेहनत ,मजदूरी कर
घर के बड़े बन जाते हैं
सपने इनके पोटली में
धरे के धरे  रह जाते हैं।
गरीबी,विवशता,लाचारी
ये सब लाइलाज बीमारी
बाल मजदूरी से शुरू होता बचपन
मजदूरी की ही राह बिताते हैं
कहानी ये असंख्य
 छोटू मुन्नी की
जो न कंधों पर
बस्तों का बोझ उठाते हैं
गरीबी और जिम्मेवारियों के बोझ तले
स्वतः ही बाल से बुजुर्ग बन जाते हैं।

Thursday 8 June 2017

किसान

एक जिज्ञासु बच्चे का सवाल
क्या होता है किसान?
क्या वो mall जहाँ से
हम लाते खाने का सामान?
क्या दूँ मैं किसान की परिभाषा?
पर खत्म भी करनी है
बच्चे की जिज्ञास
     क से किसान
हल का जिसके
कंधे पर है निशान
दिन रात धरती पर,जो मेहनत करता
कभी धूप, कभी पानी को तरसता
जो अन्न हमारा है उपजाता
वही है किसान कहलाता।
दिन भर कड़ी मेहनत,भी उसकी
कभी बाढ़ कभी सूखा में
खाक हो जाता।
पसीने से उसकी सूखी धरती
भी न पसीजती
बारिश की बूँदों को
सिर्फ आँखें ही नहीं
उसकी आत्मा भी तरसती।
कभी बाढ़ की मार वो सहता
संग आँसू उसके
फसल का सपना बहता।
फसल उगे जो सोने से
व्यापारी उनको सही मोल न देता।
कृषि प्रधान देश में
हमारा किसान अपने हक़ के लिए
लड़ता ,मरता है
आत्महत्या तक करता है
घर परिवार को क़र्ज़ में
डूबो कर जो छोड़ जाता है
दर दर जो ठोकरें खाता है
"योजनाओं" के अंतर्गत जिसका
नाम सबसे पहले आता है
मेरे बच्चे
इस देश में किसान
वही कहलाता है......





Wednesday 7 June 2017

यादें

किस पन्ने से शुरू करूँ
यादों का किस्सा,
सब यादों की अपनी जगह
सब यादों का अपना हिस्सा।
कुछ यादें बचपन की
कुछ लड़कपन की यादें
कुछ कट्टी दोस्ती की
खट्टी मीठी सी यादें
कुछ यौवन के सपनो की
बंद और खुली आँखों वाली यादें
उफ्फ़फ़ ये यादें...
यादों की एल्बम से
कई भूले बिसरे दोस्त याद आ गए
जिन्हें वक़्त की दौड़ में न जाने
हम कब भूल भूला गए।
दोस्तों संग बेवजह खिलखिलाने की यादें
बेवजह बात पर शर्त लगाने की यादें
छेड़, छाड़, प्रेम मनुहार
उफ्फ़फ़ कितनी ही यादें।
कितनी सार्थक यादें,
कितनी निरर्थक यादें,
कितनी हँसाती यादें,
कितनी रुलाती यादें,
ज़िन्दगी के अनुभवों की यादें
उफ्फ़फ़ ये यादें।
यादों से कभी बढ़ता जीवन,
कभी जीवन से बढ़ती यादें,
 हो जाता है जीवन शेष ,
पर रह जाती यादें अशेष
हाँ ये यादें
उफ्फ़फ़ ये यादें....









Monday 5 June 2017

बाल विवाह

"अपनी गुड़िया की शादी रचनी है
मुझे नहीं शादी करनी है"
शब्द ये कहते कहते थक गयी
पर मुनिया की शादी रची गयी।
पति की उम्र अधेड़,
घर में कामो का ढेर
पति के पहले वाले दो
बेटियों की माँ बन गयी
छोटी मुनिया अचानक से
बड़ी बन गयी।
कभी इस आँगन ,कभी उस आँगन
जो चहकती थी,फुदकती थी
उसके पर दिए क़तर
आँगन में बंधी ,पल्लू के संग,
फूँक रही थी चूल्हा
या अपने अरमान?
कौन जाने,हे भगवान!
काला धुआँ फूंक रही थी
या अपने नसीब को
धूक रही थी!
क्या थी उसकी गलती
अपने नसीब से पूछ रही थी।
कुछ दिनों बाद
घर में मिठाई बंट रही थी
मुनिया माँ बन गयी थी
            पर
प्रसव की पीड़ा सह न पायी
एक और मुनिया दे
इस पीड़ा से उसने मुक्ति पाई।
बेटी जन्म के ताने सुनने को
वो नहीं बच पायी थी
जाते जाते चढ़ती सांसों से
बस इतना कह पायी थी
बाल विवाह न करवाना इसकी
नहीं तो भरती रहेगी
ये भी एक मुनिया बन सिसकी.......




Sunday 4 June 2017

चिड़ियाँ की व्यथा

 चिड़िया कुछ सोच रही है
कम होते पेड़ो को देख ,व्यथित हो रही है
कहाँ होगा हमारा घरबार
कहाँ बसेगा हमारा संसार?
पेड़ न हो तो ,छाया कैसे होगी
फल न होंगे तो भूख हमारी कैसे मिटेगी?
किसकी डाली पर हम फुदकेगे
हमारी कलरव कहाँ होगी?
दूसरे देशों से भी आते जो
पँछी बन मेहमान
वो कहाँ रुकेंगे?
देख हमारी दुर्दशा
हमारे संग मनुष्यों पर भी हँसेंगे
खुद मनुष्य जो काट रहा
वो भी कहाँ अछूता रह पाएगा
काट पेड़ बस छणिक सुख पायेगा
जब कटते होंगे पेड़
चोट इन्हें भी तो लगती होगी
ये कटे तो मानव की भी तो सांसे घटती होगी?
इन पेड़ों से ही साँसे चलती
जीवन चलता सबका।
ओ मानव
जरा सी लालच हटा कर सोच
एक मिनट को पँछी बनकर सोच
सोच पेड़ का मूल्य
दोस्ती कर प्रकृति से
रह दूर जरा प्रगति से
दोस्ती हमसब की
युग युगान्तर तक जायेगी
फिर क्या पेड़, क्या  पँछी
ये व्योम ,धरा,नदी सब
खिलखिलायेगी


नाव

एक सहज नाव नहीं मैं
जीवन बसता मुझमे
मुझसे ही कइयों का जीवन सजता
कल कल कल लहरों पर जब मैं चलता।

नदी पार एक गाँव है
जहाँ लोगो का जीवन मुझसे चलता
एक गरीब तबका ही, वहां रहता
न रास्ता कोई,न कोई पूल
बस नदी पर मेरा जोर है चलता।

प्रगति का नमो निशान नहीं
बस प्रकृति की गोद में बसता
इनका बस पानी और मुझसे रिश्ता
बच्चे,बुढ़े या फिर जवान
सब का वाहन बन मैं ही चलता।

मैं एक सहज नाव नहीं
मैं मूक वधिर बन
दुःख दर्द इनके बांटता
इनका जीवन है मुझसे चलता
मैं इनके जीवन में बसता
कल कल कल पानी पर चलता।

Friday 2 June 2017

तस्वीर

हाथों में मेरे कला नहीं
बनाने की किसी की तस्वीर,
इसलिए बस रचती हूँ
कल्पनाओं की तस्वीर।
बनाती हूँ,मिटाती हूँ,
मन मर्ज़ी सजाती हूँ,
विरह ,प्रेम,प्रकृति,त्याग
आकुलता, व्याकुलता
सभी रंगों को मिलाती हूँ।
रंगती इन भावों से,
शब्दों की कूची से
उन्हें देती आकार
होती है तब मेरी
रचना की तस्वीर साकार।
ईद की तस्वीर में
होती रंग दिवाली की
नहीं कोई सीमित कल्पना
मुझ मतवाली की।
कल्पना की तस्वीरों में
खुद को भी रच लेती हूँ
लफ़्ज़ों के रंग,भावों के संग
उन तस्वीरों में
मैं भी जी लेती हूँ
कुछ अपनी प्रतिबिम्ब ढूंढ लेती हूँ....