Monday 29 May 2017

यूँ ही

यूँ ही
सोचो अगर
इंद्रधनुष की तरह
मन के भाव भी हमारे
सतरंगी होते ,तो क्या होता?
पहचाने जाते, रंगों के छलकने से
छुपाना उनको,
कितना मुश्किल होता!
अश्क़ जब हमारे छलकते
भाव अपने रंगों के संग
उनमे ढलकते!
सोचो जो तकिया है
हमारा हमराज़
उस तकिये का रंग
कैसा होता ?
रोज़ नए रंगों में रंगा मिलता
कभी सतरंगी रंगों में
सना मिलता
जो नहीं कर पाते बयां
लफ्ज़ हमारे
उन एहसासों का तकिया
कैनवस होता.....






बाल्टी में चाँद

आँगन में भरी बाल्टी थी पड़ी,
चाँद की नज़र उसपर पड़ी,
देख उसमे अपनी छवि, वो घबराया
क्या सच में,
धरती पर दिन ऐसा आया?
नदी तालाब क्या सब सूख गए?
क्या ,या गए दिन सच में इतने बुरे!!
      नहीं, नहीं वो चिल्लाया
पास का बादल, देख यह
 मंद- मंद मुस्काया
बोला दूर नहीं वो दिन
जब तू देखेगा ,ऐसे ही
अपनी प्रतिबिम्ब......

पहर

सुना है बहुत खूबसूरत है
भोर का प्रथम पहर,
पर फुर्सत कहाँ
निहारूँ इसे जरा ठहर,
भागते दौड़ते बना लिया
है,हमने ज़िन्दगी कहर,
बने रहते कभी
तूफ़ान कभी लहर
चलता नहीं पता
कब होती है रात,
और कब सहर....

पैसा

मैं इतिहास हूँ,
मैं वर्तमान हूँ,
मैं भविष्य हूँ,
मैं पैसा हूँ।
मैं गरीब की आस हूँ
मैं अमीर की प्यास हूँ
मैं पैसा हूँ।
मैं सामर्थ्य हूँ,
मैं समर्थ हूँ,
मैं पैसा हूँ।
मैं रण हूँ,
मैं रणवीर हूँ
मैं दान हूँ,
मैं दानवीर हूँ
मैं पैसा हूँ।
मैं भोग हूँ ,
मैं योग हूँ,
मैं विकार हूँ,
मैं प्रतिकार हूँ,
मैं संबंधों की जोड़ हूँ,
मैं संबंधों की तोड़ हूँ,
मैं पैसा हूँ।
मैं शांति हूँ,
मैं अशांति हूँ,
मैं ठोस हूँ,
मैं तरल हूँ
मैं विष हूँ,
मैं गरल हूँ
मैं पैसा हूँ।
जन्म से मृत्यु
तक का साथ हूँ
मैं सबकी चाह हूँ,
मैं जीने की राह हूँ
मैं उत्थान हूँ,
मैं पतन हूँ,
हाँ मैं ऐसा हूँ,
मैं पैसा हूँ।

खामोशियाँ (शीर्षक साहित्य परिषद दिल वाही खामोशियाँ बोता रहा)

बोझ उठाए अकेलेपन का
बोझिल मन चलता रहा
दिल वही खामोशियाँ बोता रहा।

शिकायतें मन ही मन करता रहा
अभिव्यक्ति अलफ़ाज़ ढूंढता रहा
दिल वही खामोशियाँ बोता रहा।

नाकामियों से नाता जुड़ता रहा
फलसफों में गैरों के उलझता रहा
कश्मकश की कश्ती में
डूबता उतरता रहा
दिल वही खामोशियाँ बोता रहा

इच्छाएँ बन शावक
कुलांचे भरता रहा
दिल वही खामोशियाँ बोता


Sunday 28 May 2017

Online की दुनियाँ

सारी भावनायें ,संवेदनायें
एक screen में,
समाहित होती जा रही है
असल ज़िन्दगी से delete होती जा रही है।
अपने रिश्ते नाते touch से
 दूर होते जा रहे है
Virtual world की दुनियाँ में
सब touch में आ रहे हैं,
यहाँ नित नए रिश्ते बनते जा रहे हैं
हम online की दुनियाँ में
जिये जा रहे हैं।
Break up और Make up
होता है अब प्रेम में
नहीं अब वफ़ा की कसमें खाये जा रहे हैं
हम online की दुनियाँ में जिये जा रहे हैं।
Likes और dislikes पर
रिश्ते बनते और बिगड़ते जा रहे हैं
मूल्य भावनाओं के
इनपर तौले जा रहे हैं।
अब कट्टी और दोस्ती नहीं होती
दोस्तों के तकरार में
अब सब follow, unfollow, Block
का दस्तूर निभाए जा रहे हैं,
हम online की दुनियाँ में जिए जा रहे हैं।
भाग भाग कर पूछते थे
जो अबूझ सवाल बुजुर्गों से
वो जगह हम बड़े हक़ से
Google को दिए जा रहे हैं,
हम online की दुनियाँ में
 जिए जा रहे हैं ।
No Issues,Chill Pill
जैसे शब्दों को अपनाकर
हम भी ज़माने के साथ
हाँ में हाँ मिला रहे हैं
हम भी Cool Parents
 बनते जा रहे हैं
हम online की दुनियाँ में
जिए जा रहे हैं।
कभी इन साधनों से प्यार
कभी खीझ जता रहे हैं
हम Online की
दुनियाँ में जीए जा रहे हैं।




Tuesday 23 May 2017

तुम

बिन छुए भी
तुम्हारा स्पर्श पाती हूँ
बिन बोले तुम्हारे शब्दों
 को समझ जाती हूँ।
मेरा मौन भी तुम्हें
 समझ आता है
शब्द भी मेरे,मुझसे पहले
तुम्हारी जुबाँ कह जाता है
संग तेरा मेरा कुछ ऐसा हो गया है
सबकुछ एकाकार सा हो गया है
उतार- चढ़ाव,जोड़ -घटाव
सब साथ हमने काटा है
ख़ुशी हो या गम
सब साथ ही तो बाँटा है।
लम्हे,दिन साल बन
 वक़्त यूँ ही झपकी में
गुजर जाता है,।
बस,हमारे कच्चे पक्के
खिचड़ी से बाल
एहसास वक़्त का दिलाता है।
              देखो न
गुजर गए कितने साल
वर्ष में एक और लग गयी गाँठ
मजबूती इस मजबूत रिश्ते की
और बढ़ गयी
दोस्ती हमारी और
 गहरी हो  गयी।
 बनकर हमदम,हमसफ़र, हमराज़
देते रहे तुम, मेरे सपनों को परवाज़
यूँ ही साथ बनाये रखना
दोस्ती अपनी निभाए रखना......








Monday 22 May 2017

खुद-ख़ुशी

बंद कमरे में वो
दर्पण में खुद को
निहार रही थी,
सुन्दर तन,उम्र कम
आँखों से ख़्वाहिशों का काजल
फैला अंतर तल तक।
निकाल बिंदी ,उसने माथे पर सजाई
चूड़ियाँ कुछ कलाईयों को पहनाई
होंठो पर हलकी सी लाली लगाई,
सतरंगी चुनरी से छिपा खुद को
मन ही मन सोच कुछ
आँखे उसकी भर आयी।
दरवाज़े पर पड़ी थाप
तन्द्रा सी टूटी उसकी
सामने खड़े हाथ से ले
सफ़ेद साड़ी,छुटी सिसकी उसकी
हिकारत से देखा उसने उसको
माँ समान माना था जिसको।
दर्पण देख अब वो रही सोच
जीवन साथी मरा उसका
नहीं उसका जीवन,
क्यूँ खत्म करूँ ख्वाहिशों को
क्यूँ मिटा डालूँ खुद को?
क्या हत्या नहीं ये"आत्म" की?
अंतर्मन के जज्बात की?
लिया उसने एक निर्णय अहम
सोच लिया तोडूंगी ,ये सामाजिक वहम
नहीं करुँगी मैं अरमानो की "ख़ुदकुशी"
देखूँगी अब" खुद की ख़ुशी"
सौभाग्य से मिलता स्त्री जन्म
संवारकर इसे लिखूंगी अपना कर्म.......


दीवार

दीवारें गूंगी लगती थी
एक कमरे की दीवार भी,
चारदीवारी लगती थी।
हुई जबसे शब्दों से मुलाकात
बढ़ा कुछ लिखने से ताल्लुकात,
दीवारें बोलने लगी
मुझे महफ़ूज़ करने लगी।
अब दीवारे भी खुश रहने लगी हैं
संग मेरे शब्द ,भाव उकेरने लगी हैं
नहीं अब सूनेपन का एहसास है
अब तो दीवार भी बन गयी
कुछ खास है
आये हैं सुनते
दीवारों के भी कान होते हैं
इसलिए ,दीवारों को भी
अपनी लिखी सुनाती हूँ
दीवारों संग हँसती, बतियाती हूँ....

व्यथा कलम की

मैं इतिहास रचने वाला हूँ,
एक इतिहास का हिस्सा बनने वाला हूँ
लुप्त हो रही, अहमियत मेरी
न रही इस बदलते युग में
पहले सी हैसियत मेरी
मैं क से कलम की तस्वीर
बनकर रहनेवाला हूँ
मैं इतिहास में बसनेवाला हूँ।
मैं हूँ कलम
हो रही अपना भविष्य देखकर
मेरी आँखें नम।

हस्ताक्षर भी अब हो गए डिजिटल
नहीं रही है ,मेरी कमी किसी को खल
मगन सब नए नए साधनों के प्रभाव में
नहीं जी रहे कलम के अभाव में
लेखनी रही मेरे बिन भी फूल फल।
ये देख,हो रही
मेरी आँखे सजल।

तुलना होती थी मेरी
कभी तलवार से
पूजा जाता था मैं,प्यार से
पाया जाता था ,जेब में सबके
आज उपेक्षित मिलता हूँ,
दुखी हूँ, खुद को बेबस पाता हूँ
अपनी व्यथा सुनाता हूँ।
रहा हूँ सिसक
लिए दिल में कसक
मैं हूँ कलम
हो रहीं है अपना भविय देखकर
मेरी आँखे नम.....

Friday 19 May 2017

कबड्डी

भुलाना चाहूँ, भुला न पाऊँ
तेरी यादें
छुड़ाना  चाहूँ, छुड़ा न पाऊँ
तेरी यादें
 कबड्डी के सधे खिलाड़ी सी है
तेरी यादे।
गहरी लंबी साँस लिए
बार बार छूने आती है मुझे
तेरी यादें
अपने को बचाती हूँ
इधर उधर भागती हूँ
पर जीत कहाँ पाती हूँ,
कोशिश करती हूँ ,मैं भी
एक सधे खिलाडी जैसे
छिटकने की,दूर भागने की
फिर भी छू जाती हैं
तेरी यादें
तुम्हारे पाले में जाना नहीं चाहती
छूकर तुम्हें आना नहीं चाहती।
जाना पड़ता है,कई बार मगर
अपने को आजमाने के लिए
अपनी जिद को जिताने के लिए
जीतना है खुद को खुद से
पर हर बार हरा जाती हैं
तेरी यादे
कभी मैं तुम पर हावी
कभी तुम मुझपर।
ये सिलसिला यूँ ही
यादों का कभी
इस पाला, कभी उस पाला
कितनी सुहानी थी यह छुआ छुई
बना दिया है ,इसे खेल कबड्डी
तेरी यादे.....



भोर

हुई रात्रि घनघोर शेष
नहीं तम का कहीं अवशेष
रवि आया ,संग लालिमा ले
सिंदूरी हुई धरती की देह
निकल पड़े विहग
उन्मुक्त आकाश में
नव विहान,नव उल्लास
सुनो इनके कलरव मधुर ताल में
मस्त उपवन के ,फूल सारे
तितलियों के गूंजायमान में
सुरभित बयार,प्रकृति का उपहार
पुलकित मन इस
सुन्दर भोर में।

Tuesday 16 May 2017

महानगर

मन मस्तिष्क में कोलाहल सा भर गया है
दिल भी कुछ तंग तंग सा हो गया है
आँखों में धुआँ धुआँ सा भर गया है
हर शख्स समस्याओं का अंतहीन
सड़क सा हो गया है
           लगता है
इंसान भी कुछ महानगर सा हो गया है.....

बुकमार्क (Bookmark)

बुकमार्क सरीखी हो गयी है ज़िन्दगी
रखकर जो भूल गए हो तुम,मुझे
ज़िन्दगी की किताब में
हर बात तुम्हें याद दिलाने की आदत सी हो गयी है
तुम्हारी ख़ुशी, तुम्हारे गम सबकुछ
तुम्हे ही बताने की आदत सी हो गयी है
ज़िन्दगी मेरी बुकमार्क सी हो गयी है
पन्ना दर पन्ना तुम्हे पढ़ती रही
शब्दों को तेरे देखती रही
तुम्हें समझती रही
अधूरी कहानी की नायिका की तरह
बाट तुम्हारा संजोती रही
     जानती हूँ
नहीं होता वजूद कोई बुकमार्क का
किसी कहानी किस्सो में
पर मैं बुकमार्क न जाने क्यूँ
तुम्हारी ज़िंदगी की किताब में
अपना वजूद ढूढ़ती रही
जहाँ पढ़ना छोड़ गए थे तुम
उसी पन्ने में
कहानी का अंत ढूंढती रही
अजीब सा रिश्ता तेरा मेरा
तू ज़िन्दगी की किताब
और मैं उस किताब की
         बुकमार्क......


उदगार

कितने ही भाव आते जाते
इस मन मस्तिष्क में
सबको पिरोकर ,सजाकर
हृदय के ताप का
उदगार लिखती हूँ।
कभी मादकता से ओत प्रोत
भावों का अभिसार लिखती हूँ
कभी श्रृंगार, कभी उन्माद
कभी प्रेम,कभी कटाक्ष लिखती हूँ
कभी पतझड़,कभी मधुमास लिखती हूँ
कभी तपती गर्मी,कभी शीतल बयार
लिखती हूँ
मन को झंझोरते भावों का
हिसाब लिखती हूँ
सतरंगी सपनों का
किताब लिखती हूँ
कभी किसी अनजान प्रिय पर
अपना अधिकार लिखती हूँ
मैं ह्रदय के ताप का उदगार
लिखती हूँ
बस उदगार लिखती हूँ......

Monday 15 May 2017

प्रेम कथा

आज चलो लिखती हूँ
एक सच्ची प्रेम कथा
नायक, नायिका हैं जिसके
सबसे जुदा
वो लिखती थी ऐसे
सफा दर सफा
जैसे करती रौशन चिराग
लेखनी से उसके एक
निकलती थी आग।
होती थी हाथों में सिगरेट उसके
धुआँ सिगरेट का ,ऊपर नहीं
शायद पन्नो से जाता था चिपक
और पन्नो से पढ़नेवालों तलक,
जम जाती थी,सिगरेट के धूँए सी
मन मस्तिष्क पर उसकी लिखाई।
वो लिखती थी,सबसे अलग
लापरवाह, बेफिक्र सी
समाज की जिक्र सी
इश्क़ उसका था जूनून
चलता था साथ उसके
बनकर उसकी परछाईं
ज़माने से नहीं वो डरती थी
सबकुछ सरे आम करती थी
जीवन उसका था सबके सामने
एक खुली किताब,
पुरस्कार भी रहता था बेताब
देने को उसकी लेखनी को दाद
अपनी कूची से रंगों को उकेरता
नायक उसका
नायिका के भावों को रंगता
वो भाव रचती वो इनमे रंग बिखेरता
रहता उसके संग अंग जैसा
अपने पेंटिंग के रंग जैसा
साथ रहा उसके हरदम,हरपल
न समाज की चिंता
न घर की फ़िकर
बना रहा वो उसका हमदम,हमसफ़र
कलम और कूची की मित्रता
रही बनी उनके रिश्तों की प्रगाढ़ता
सबसे अलग सबसे जुदा
अमृता इमरोज़ की प्रेम कथा......




मन की मधुशाला 1 & 2

सुन्दर शब्द स्वप्न दिखाती रोज़
मेरे अल्फ़ाज़ों की हाला
मधुर,मदिर मेरे ख्यालों की
 मधुशाला
और लिखे जा
और रचे जा
शोर मचाती
मन की मधुर आकुलता
लिखकर ही मिटती फिर
ये मन की व्याकुलता।
कोरे कागज पर जब ,शब्द बिखरते
होती तसल्ली ,मद मस्त मनुष्य सी
फिर लहरों, छंदों सी बहती 
मेरे मन के शब्द ,बन मेरी कविता।
मधुशाला मैं ही अपनी
मेरे शब्द ही मेरे हाला
मैं ही अपने शब्दों की साकी
मैं ही अपने शब्दों की सहबाला.......



कोरे कागज जैसे खाली प्याला
लिखकर लगे जैसे ,भर दी हाला
मिलती नही तृप्ति
बस कुछ शब्दों से
लगती प्यासी अधर
प्यासी मन की मधुशाला
भावों को जो मेरे
भर दे लफ़्ज़ों से
घूँट घूँट पिला दे अपने हर्फों से
ऐसी हो कुछ मेरे मन की मधुशाला!
लालायित रहती कुछ रचने को
आकुल रहते शब्द हरपल सजने को
लहरों, छन्दों से भरती ,बहती
ये मेरे मन की मधुशाला....



रूठा तारा

छत पर टहल रही हूँ
चाँद तारों की
गुफ़्तगू सुन रही हूँ
एक तारा जरा रूठा सा है
शायद अंदर से कुछ टूटा सा है
दर्द को अपने छुपा रहा है
दूसरे तारों के साथ मुस्कुरा रहा है
शायद बिछड़ गया है,अपने प्यार से
सुखी नहीं शायद अपने संसार से।
मुझे ऐसा लग रहा है
चाँद उसे कुछ समझा रहा है
कर ले दोस्ती अपने प्यार से
शायद ये बता रहा है,
हमसफ़र न सही,
हमदर्द मिल जायेगा
बाँट दुःख तकलीफ उससे
तू अपने दर्द से छुटकारा पायेगा
पर वो ज़िद्दी तारा
समझ नहीं पा रहा है
बाकी तारो के साथ
यूँ ही झूठमूठ मुस्कुरा रहा है.....

नमन

हमारा महत्त्वपूर्ण ,बहुत महत्त्वपूर्ण कुछ
महानगर में खो गया था
उथल पुथल मच गयी थी ज़िन्दगी में
सबकुछ शून्य सा हो गया था।
बड़ी मुश्किल से गुजरे तीन दिन,
घंटे ,मिनट गिन गिन,
खुद को हिम्मत ,हौंसला बंधाते
एक दूसरे से "सब ठीक है"
का स्वांग रचाते,
पर स्वांग भी रंग ला गया
ऊपरवाले को भी तरस आ गया।
एक अनजान इंसान को
मिला हमारा सामान
बनकर आया वो रूप भगवान
लौटा गया वो सबकुछ
घर का पता देखकर
अपना बहुमूल्य समय देकर
शब्द नहीं उसके लिए हमारे पास
जगा गया वो इंसानियत में हमारी आस
पुनः पुनः नमन उस शख्स को
जो बना गया हमारे जीवन में
अपनी जगह खास
दिखा गया इंसानियत में आस
सीखा गया आस्था और विश्वास का पाठ।



मेघ

मेघ को दूत बनाकर,भेजूँ कुछ सन्देश
मेघ तो रहता अब दूर अपने देश
नहीं आता कितना करती मनुहार
नहीं आता अब इसको
हम इंसानो पर प्यार
कितना कहा उससे मैंने
पहुँचा दे मेरे पिया को सन्देश
जो रहते मुझसे दूर देश।
चल न पहुँचा सन्देश
यूँ ही बरस जा
थोड़ा गुस्से से ही गरज जा
भिंगो दे धरती का तन मन
कुछ तो उपजे ,किसानों का अन्न
क्रोध भाव से गरजा मेघ
ए इंसान तू खुद ही देख
तूने छोड़ा बोना पेड़
मैंने भी बरसना छोड़ा
बोलो क्यूँ मैं बरसूं
क्यूँ सिर्फ मैं ही तरसू
अब मैं नहीं मेघदूत बन सकता हूँ
तुम्हारे बनाये नियम पर नहीं चल सकता हूँ।
फिर स्वयं हुआ भान
आया यह ध्यान
अब तो बादल भी बदल गए हैं
जज़्बात इनके भी हमारे जैसे ढल गए हैं
एक हाथ से दो,दूजे से लो
ये भी हमारे से बन गए हैं....


धमकी

आँखों को दे ही डाली धमकी आज
कहा उससे मैंने
मत आ तू झांसे में दिल के
तू आँख है,दिल नहीं!
दिल का दिमाग नहीं होता
उसके पास सब सवालों का
जवाब नहीं होता
काम तेरा देखना है
सपनो को उकेरना है
तू बेशक,भटक, मटक
पर इस दिल से न लटक
न बन दिल जैसा जज्बाती
न बना कमज़ोर मुझे
नहीं मैं सह पाती
दिल को कहते है दरिया
तू मत बन उसके
बहने का जरिया
तू बहता है तो मैं भी
संग तेरे बह जाती हूँ
कमज़ोर खुद को पाती हूँ
नहीं रहना मुझे अश्कों के संग
देखना मुझे आँखों से ,सतरंगी रंग
बस बहुत हो गया
कर ली दिल ने मनमानी
अब तुझे न रहने दूंगी संग उसके
ये है मैंने ठानी
अगर अब बरसा तू तो,देख ले
मेरी ये आखरी धमकी
अट्टी ,बट्टी तुझसे सौ बरस की कट्टी......


Sunday 14 May 2017

पेड़ और प्रेम

वो हमारी पहली मुलाकात
जब कच्चे पक्के से थे
हमारे जज्बात,
लाकर दिया था
एक पौधा तुमने
और ये कहा था
एक पौधा हूँ मैं
मुझे प्रेम वृक्ष बनाओ
अपनाकर मुझे,मेरा जीवन बचाओ।
बहुत भाया था, ये अंदाज़ तुम्हारा
फिर चढ़ा परवान,प्रेम हमारा
पूछा था मैंने फिर
किस फूल का पेड़ है?
या यूँ ही कोई बेल है?
हँसकर कहा था तुमने
बेल होगी तो फ़ैल जायेगी
मेरे इश्क़ के जुनून की तरह
और पेड़ बना तो
रहना तुम महफूज़ उसपर
एक पँछी की तरह
बनाना हमारा घोंसला
और रहना मेरे साथ
पेड़ के जड़ की तरह...
एहसास तुम्हारा सच्चा लगा था
अंदाज़ तुम्हारा ये अच्छा लगा था।
      बो दिया वो पौधा हमने
तुम्हारी ही किसी जमीन पर
तुम्हारी मुहब्बत, तुम्हारी यकीन पर
बढ़ता रहा वो पौधा ,बढ़ते रहे हमारे ख्वाब
                       फिर
उम्र कुछ बीता और बीते कुछ साल
हमारे प्रेम का हुआ
उस पौधे जैसा ही कुछ हाल
वक़्त की तरह बस बढ़ता गया
न फूल खिले उसमे
न उसने कोई छाँव दिया
बसाए उसकी हरियाली मन में
ज़माने के साथ हमारा वक़्त बहता गया।
            सालों बाद
उस पेड़ के सामने हूँ
हरियाली आज भी है ,उसकी बरक़रार,
सोचा कल सींच आऊँगी
पुराने कुछ साल जी आऊँगी,
       पर ये क्या ,
मेरे आने की शायद
उसको भनक लग गयी
रातों रात खड़ी हो गयी
पेड़ के सामने एक दिवार
जैसे कह रहे हो तुम
नहीं हूँ मैं अब
इस पेड़ के हवा की भी हक़दार........