Wednesday 25 November 2020

कविता और तर्क

कविता और तर्क की हुई मुलाकात

फिर चली बात पर बात

कविता ने कुछ यूँ ,परिचय दिया

मैं कविता

कल्पना और यथार्थ 

दोनों में जीती हूँ,

पर बिन कल्पना

मैं रीती हूँ।


सुन कविता का परिचय

तर्क मुस्कुराया, बोला

देखे,पढ़े सुने हैं मैंने

तुम्हारे जज़्बात

बेमतलब की होती है

तुम्हारी हर बात!


चाँद से बातें करती हो

मेघ को दूत बनाती हो

फूल तुम्हारे हँसते गाते हैं

रात अंजन लगाते हैं।


होनी को अनहोनी करती हो

विचित्र चित्र तुम रचती हो,

विज्ञान में नही करती तुम वास

बस कवियों की कल्पना में

है तुम्हारा आवास।


बोल पड़ी कविता

क्यूँ मुझपर झल्लाते हो

माना तुम यथार्थ दिखलाते हो

पर,ज़िन्दगी की आपाधापी में

तर्कों में बस उलझते, उलझाते हो!

नज़रो में तुम्हारे

चाँद ,बस एक उपग्रह

मेरे लिए कल्पनाओं का संग्रह!

दिल तुम्हारे लिये

महज़ एक शरीर का पुर्ज़ा

जबकि लिखकर गए, इसपर

सब शायर, कवि

चाहे,जॉन,निदा या मिर्ज़ा


नज़र में तुम्हरे

गीत,ग़ज़ल बस शब्दों का पुलिंदा है

पर सुनकर उन्हें,  हर संवेदनशील जिंदा है

कल्पनाओं से तुम 

कोसों दूर भागते हो,

नहीं ख्वाबों, ख्यालों में

कुछ लिखते ,गुनगुनाते हो।


तर्क तुम्हारे पास 

हर बात की गवाही है

पर, मेरे पास

बस कल्पना और स्याही है।

पढ़कर मुझे लोग

मुझसे नाता जोड़ लेते हैं

भावनाओं की मोती,

पिरो लेते हैं!


प्रेम, विरह ,रौद्र, शृंगार

सभी रूपों में मैं जीती हूँ

ज़िन्दगी के सभी पहलुओं को

मैं शब्दों में पिरोती हूँ।

एक बार, बस एक बार

सब तर्कों को रख परे

न सोच, मैं छोटी, तुम बड़े

जैसे कंकड़ ,पत्थर हर सरिता में

न ढूंढो तर्क, हर कविता में।


तर्क की बनावट गठीली है

पर कविता!

पर कविता एक स्त्री समान लचीली है

उसका तुम भी, सम्मान करो

न बस अपने तर्क पर अभिमान करो

न बस अपने तर्क पर अभिमान करो

साहिर

 रक्त बीज से गुणित हो रहे

इस धरा पर पाप है

क्या लग गया

सोने की चिड़ियाँ को 

सच मे किसी का श्राप है?

किसान कर रहे ,जहाँ खुदकुशी

शिक्षा हो रही बदहाल है

आये दिन हो रहा

बंद और हड़ताल है

लूट और आगजनी 

आये दिन की बात है

हो रहे ऐसे कांड यहाँ

इंसानियत भी शर्मसार है

हैरान कायनात सोच रही

कब ढलेगी ऐसी स्याह रातें

होगी इस धरा पर 

बिन सियासत की बातें

"वो सुबह कभी तो आएगी"

 बदलेगी इस देश की भी हालातें

"चुप है धरती चुप है चाँद सितारे"

 शायद ढूंढ रहे उनको

"जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ है"

कहाँ हैं?

कहाँ है?

कहाँ हैं?....

अमृता सा इश्क़

 सुनो

तुम तुम ही रहो

"मैं" मैं ही रहूँगी

नहीं बंधना मुझे

"हम" वाले बंधन में

उड़ना चाहती हूँ मैं

इश्क़ के उस उन्मुक्त आकाश में

एक मुक्त पंछी जैसे

जहाँ इश्क़ का 

कोई दायरा नहीं

कोई बंधन नहीं

कोई फिसलन नहीं

न ही कोई छलावा।

महसूस करना चाहती हूँ

जुनून ए इश्क़

अपने "स्व"के साथ

खुद "अमृता" बनकर

तुम्हें कभी "साहिर"

कभी "इमरोज़" बनाकर।

बोलो है मंज़ूर.....

©Anupama jha

रतजगा और गुफ़्तगू

 रतजगा था मेरा,चाँद परवाह मेरी करता रहा

सिरहाने बैठ मेरे,मेरी दास्ताँ सुनता रहा।


बहलाता, फुसलाता,मुझसे गुफ़्तगु करता रहा

आहिस्ता आहिस्ता ,ज़ख्मों को मेरे सहलाता रहा।


नम आँखो को मेरे,चाँदनी से चूमता रहा

घास जैसे ओस को,खुद में जज़्ब करता रहा।


सुनकर दास्ताँ मेरे अधूरेपन की,बस खामोश रहा

कहाँ रह पाता वह भी पूरे रात का,यह मुझे समझाता रहा।


सोलह कलाओं को लेकर बैठा था,साथ मेरे

दाग की बात पूछने पर टालता रहा।


स्लेटी बादलों में छुपता रहा,दाग को अपने छुपाता रहा

न दिखाओ सरे आम दाग अपने,इशारों में यह बतलाता रहा।

Tuesday 24 November 2020

नए साल में

 नये साल की तारीखों में

कर लो कुछ अपने मन की


बहुत जोड़ लिया तिनका तिनका

रखा ख्याल इनका,उनका

अब जपो मन का मनका

निकल घोंसले से ,उड़ान भरो

मुट्ठी में अपने जहान करो,

बना लो एक दुनिया,अपनी भी,

नए साल की तारीखों में

कर लो कुछ अपने मन की।


मुश्किलों से ज़िन्दगी कभी उबरती नहीं,

गाँठ बंधनो की ,कभी सुलझती नहीं

बाँध लो कुछ अपने सपने

गाँठ लगा लो,

अपने लिए,कुछ करने की

कर लो, कुछ अपने मन की।


उम्र निकल गयी

वक़्त गया गुज़र

बाकी बची ज़िन्दगी भी

हो जाएगी बसर,

ऐसा- बिल्कुल सोचना मत।

सपनों को जीने की कोई

मियाद नहीं होती,

ख्वाहिशों से खेलने की

तय कोई उम्र नहीं होती।

पछतावे, दोषारोपण से बेहतर है

सुन लो अपने दिल की।

चलो नए साल की तारीखों में

कर लो कुछ अपने मन की।


कहने दो ,जिनको जो कहना है

जीवन जीने का हक़ भी

सबका अपना है।

सोच से ज़माने के

कहकहे लगाना न बंद करो।

सोच गर उनकी तंग है,

तो ,खुद की क्यूँ तंग करो?


सुनो

क्षणिक इस जीवन में 

न पछतावों के संग रहो

 सपनों में अपने तुम

ज़िन्दगी के रंग भरो।

जब भी ,जैसे भी हो मुमकिन

धनक बना लो ,सपनों की

आने वाले सालों में

सुनो कुछ अब अपनी भी,

नये साल की तारीखों में

जगह बनाओ खुद की 

कर लो कुछ अपने मन की

कर लो कुछ अपने मन की।

एक सत्य


जब लिखी जाती है कविता

गौर वर्णा स्त्रियों पर

पहनायी जाती है,शब्दों से

रंग बिरंगी चूड़ियाँ

गोरी कलाइयों पर

तो,विशेषणों में लग जाती है होड़

संवारने को रूप,रंग ,उस गौर वर्णा के

तब

चुपचाप सब पढ़ती है "वो"

वो सब कविताएँ,

जिन्हें सुंदर नहीं

कहा,माना, जाता।


कभी काली ,कभी बदसूरत कही जाती है

विचित्र नामों से भी पुकारी जाती है।

और गौर वर्णों के आगे 

कम ही दुलारी जाती हैं।


अंतर्मन के सवालों से

खुद को संवारती,खुद के लिए

सवालों को उठाती है।

सुना हैआजकल स्त्री विमर्श का बोल बाला है

क्या होता है मुद्दा, इन विमर्शो में?

क्या कहते हैं मनोचिकित्सक?

किसने ज्यादा नुकसान किया

लिंग भेद या रंग भेद?

दोनों ही 

घर से शुरू होते है न?


फिर सारे प्रश्नों को अनुत्तरित कर

बढ़ती है वो आगे

खुद को फिर से समझाती

तनिक व्यंग्य से मुस्काती

कृष्ण भी मात्र 

शिकायत करके राह गए

राधा क्यों गोरी

मैं क्यूँ काला?

फिर मेरी क्या बिसात!

फिर आश्वस्त हो खुद से

चल पड़ती है

उन दुकानों की ओर 

जहाँ बेचा जाता है झूठ

दिखाकर , विज्ञापनों में

उन्हीं स्त्रियों को

जिनपर लिखी जाती है कविता

और बनाये जाते हैं 

बड़े बड़े होर्डिंग

जो टंगे ही टंगे करते हैं

कितने ही भावनाओं का कत्ल

जिनपर नहीं लिखी जाती

कोई भी कविता

ग्लोब

 ग्लोब


जीवन के रंगों को

अपने गोलार्द्धों में समेटे

गोल घूमता ग्लोब

क्या नहीं प्रतीत होता

एक स्त्री जैसा?


अपनी  धूरी पर घूमता

अल्हड़ पहाड़ी नदी की चंचलता

सागर की गंभीरता

धरती की सहिष्णुता

आकाश की उन्मुक्तता

सबको अपने में समेटे

पृथकीकरण करता है

बारीक लकीरों से 

सबकी हदें

बिल्कुल स्त्रियों जैसा।


देखो ग्लोब को, ध्यान से

झुका हुआ है,एक ओर

शायद यह भी

सबके भार से,

बना रहा संतुलन

अपने मे समेटे ,दुनियाँ का

जैसे स्त्री समेटती है

अपनी दुनियाँ

अपनी धूरी पर घूमते

और जाती है झुक

सबका भार उठा।

Friday 6 November 2020

सामंजस्य

 देख आते अरुणिमा को

चाँदनी,हो रही आतुर

छिटकने को रात से,

लगती नाराज़ सी

वो किसी बात से,

कुछ कह रही धरा

आओ सुने प्रात से !


शिथिल मौन अब भंगित होगा

कलरवों के नाद से

पादप दल मुस्काएँगे

पुष्पों के,अभिव्यंजित श्रृंगार से,

मकरंदों के लिए

तितलियों के अभिसार से।


मंद मधुर पवन के झोंके

लगे असावरी के राग से

नव प्रात,जैसे नव गात

न खंडित अवशेष, रात से,

अभिशप्त चादर तिमिर का

उड़े दिवा के भाग से।


था रात,सब सुन रहा

सुन सब,कह पड़ा

सुन धरा

न प्रात पर यूँ इतरा,

अभिशप्त नहीं तिमिर मेरा,

न कर तू,तेरा मेरा,

रह जायेगा अभिमान तेरा

यूँ का यूँ ही धरा!

गर रूप चक्र आवर्तन का

प्रकृति ने नहीं धरा।


ए धरा, सोच ज़रा

थम जाएगा काल चक्र

हो जाएगा समय वक्र

अधूरा रहेगा,धरा श्रृंगार सब

प्रकृति की धरा से

है सुंदर यह धरा।


गयी बात समझ धरा

दिवा आभूषण उसका

तिमिर श्रृंगार अंजन जिसका

अब दोनों से सजकर 

देखो इतराती धरा

दिवा,रात्रि का सामंजस्य

जीवन में सिखलाती धरा

🌷🌿🌷🌿🌷🌿


धरा - धरती

धरा - नाप का पैमाना

धरा - धरे रहना/ रखना

दीवाली

 सुनो

दिवाली की सफाई कर लो

हाँ, 

करनी है अबकी जमकर।


सबसे पहले, खूंटी पर टंगी

वो पोटली फेंकूँगी

जिसमें मेरी कितनी अनचाही " हाँ" बँधी है।

हाँ, वही कोने वाली,

खूँटी पर टंगी पोटली!


हर बात  में " हाँ " करके

देखो न कितनी,

 "हाँ" इकट्ठी हो रखी  है!

बेफजूल, बेदिल,बेमानी वाली।


अबसे कुछ अपनी पसंद की

" हाँ" इकट्ठी करूँगी

और रखूँगी सजाकर,

जहाँ से दिखाई दे,

सबको मेरी " हाँ"।


अपनी ख्वाहिशों को नहीं छुपाऊँगी

किसी अखबार या अलमारी में,

सबसे नीचे

करीने से सजाऊँगी,

बैठक वाली अलमारी में,

रखूँगी सबके बीच।


अबकी दीवाली बहुत कुछ करना है,

बरसों से परत दर परत

जमी औरों की सोच को

"सेल्फ थिंकिंग" वाली लोशन से

साफ करना है।


सोच रही हूँ

"लोग क्या कहेंगे " वाली पोस्टर भी

घर से निकाल दूँ!

बहुत साल ,देख लिया इसे


वो जो मेरी ज़ोर से

 हँसने वाली आदत

बंद पड़ी न, घर में कहीं

उसे ज़रा बाहर निकाल लूँ!


अब भी वैसी ही चमकती है

बिल्कुल नई जैसी,

क्यूँ न उसे दीवार पर, टाँग दूँ?


देखो न

उम्र की गोधूलि हो चली है

जो भी बची साँझ है,

क्यूँ न उनमें ख्वाहिशों की

अवलि लगा लूँ?

प्रज्वलित कर उन्हें,

अपने मन की दीवाली मना लूँ!

अपने मन की दीवाली मना लूँ!