Tuesday, 8 September 2020

मुकरियाँ

 मुकरियाँ (मुकरी) या कह-मुकरियाँ (कह-मुकरी) एक काव्य संरचना है जिसे अमीर खुसरो ने विकसित किया था और भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी खूब अच्छी लिखीं। यह दो सखियों के बीच वार्तालाप है, जिसमें नामानुसार कुछ कह कर उससे मुकर जाना होता है। इसकी पहली तीन पंक्तियों में एक सखी साजन की बात करती जान पड़ती है। चौथी पंक्ति के दो भाग होते है: प्रथम भाग में दूसरी सखी पूछती है कि क्या वह अपने साजन की बात कर रही है, और दूसरे भाग में पहली सखी चतुराई से मुकर जाती है, और एक ऐसी चीज बताती है जिसपर वही चित्रण पूरी तरह से सटीक बैठता है।

यह मेरा कह-मुकरियाँ लिखने का पहला प्रयास है। आप सबके सुझाव,संशोधन का स्वागत है।


(1) 

देख बदरिया कारी कारी,

हुई जाती चाल मतवाली,

देख उसे मन उठे हिलोर,

ऐ सखि साजन? न सखि मोर!

(2) 

सब करे इसका गुणगान,

है अतिसुन्दर बहुत महान,

प्रेम मेरा इससे अशेष,

ऐ सखि साजन? न सखि देश !

(3)

अति सुंदर रंग रंगीला,

बोली बानी चटक चटकीला,

राम नाम मे रहता खोता,

ऐ सखि साजन? न सखि तोता !

(4)

सगरे बगिया खिल खिल जाए

जब भी वो आ जाए,

है वो ऐसा चितचोर,

ऐ सखि साजन? न सखि मोर !


(5)

अपन रूप से सबके डरावत,

कभी जगावत, कभी तड़पावत,

काहे न दिखावत, यह नर्मी?

ऐ सखि साजन? न सखि गर्मी !


(6)

नित मेरे आँगन आवत है,

भोर भए फिर जावत है,

निहारे उसे हर एक बंदा ,

ऐ सखि साजन ? न सखि चंदा !


(7)

छेड़े से न आवे बाज ,

हँसी ठिठोली करे दिन रात ,

मिन्नत से कभी पसीजा ,

ऐ सखि साजन ? न सखि जीजा !


(8)

गोद बैठ मैं उसके झूमुं ,

संग उसके मैं नभ चूमूँ ,

दिन दुनियाँ जाऊँ मैं भूला

ऐ सखि साजन? न सखि झूला !


(9)

पल में तोला पल में माशा ,

नित यह बदले,ज्यों तमाशा ,

दिखलाता रहता अपना दम खम,

ऐ सखि साजन ? न सखि मौसम !


(10)

अधर लगे यह नहि छूटे ,

धर्म,ईमान सब यह लूटे ,

सब कहे इसे खराब ,

ऐ सखि साजन ? नहि शराब !


(11)

नयनन का पहरेदार बन खड़ा ,

नाकों पर भी रहता चढ़ा ,

मैं हूँ उसके वश मा ,

ऐ सखि साजन ? न सखि चश्मा !


(12)

कल्पना को मेरी हवा दे,

उदासी में मुस्कान जगा दे,

बह जाऊँ मैं उस सरिता,

ऐ सखि साजन ? न सखि कविता !

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