सुनो
कह दो ,अपनी कविताओं से
अपनी हद में रहें,
कोई उन्हें ,बेहद चाहने लगा है।
शग़ल बन गया है
तुम्हारी कविताओं में
ख़ुद को ढूंढना।
जबकि जानती हूँ
नहीं होती हूँ मैं
दूर दूर तक कहीं
तुम्हारी ,कल्पनाओं में भी!
पर उन्हें बार बार पढ़ती ,
नए सिरे से उनमें अर्थ ढूंढती हूँ,
वैसे ही जैसे राजनेताओं के
भाषणों में अर्थ ढूंढता है
एक आम आदमी
और हाथ आता उसके
सिर्फ सिफ़र....
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