मेघाच्छन्न नभ को देख
न जाने क्यूँ
हमेशा याद आता है
मेघदूत के श्लोक
और फिर उभरते हैं
बरसों से उमड़ते घुमड़ते
वही ख़्याल
क्या कोई कर सकता है
इतनी शिद्दत से इतना प्रेम?
बस,कवि की कल्पना मात्र
ही तो है यह प्रेम !
पर सच कहूँ?
ढूंढती हूँ आज भी
घुमड़ते बादलों में
कोई प्रेषित संदेश
मुझे ढूँढती हुई
तुम्हारा संदेश लेकर!
तुम्हारे उस अंतिम खत
का इंतज़ार आज भी है
जिसमें शायद कोई तो
जिक्र हो, तुम्हारी मजबूरियों का
या शायद, मुझे अंतर्यामी समझा तुमने!
कहीं पढ़ा है
हर स्त्री में एक शिव बसता है
सो,पी गयी गरल,!
गौतम में भी कहाँ थी हिम्मत
कुछ बता कर जाने की यशोधरा को!
पर दौड़ता, भागता, छुपता मेघ
शायद तुम्हारी याद दिलाता है
इसलिए लगा बैठती हूँ
एक उम्मीद किसी संदेश की!
पर कल्पना की सोच पर
हकीकत की चमकती बिजली
अपने ज़ोरदार गरज से
अपनी मीठी बूंदों के साथ
जज़्ब कर लेती है
कुछ नमकीन बूंदे भी,
प्यासी धरती में।
और मेघदूत की कल्पना
दब जाती है,मिट्टी में
होने को मिट्टी
मेरे प्रेम की तरह
तुम्हारे लिखे कुछ खतों की तरह….
No comments:
Post a Comment