Tuesday, 8 September 2020

श्रृंगार

 नहीं करती मैं श्रृंगार

नहीं भाता मुझे फूल हार

नैनों के काजल

फैल नीर संग

पीर दिल की 

कह जाते हैं

व्यथा मन की मेरे

पूरे जग को सुनाते हैं।

नहीं लगाती कुमकुम,बिंदी

फैल तकिये पर जाती है

बेचैनी का मेरे वो

हाल सबको सुनाती है।

नहीं सुहाती खनकती चूड़ियाँ

रतजगे का मेरे

करती वो इज़हार

गिन गिन उनको करती मैं

प्रात का इंतज़ार

ये मुई पायल भी 

कहाँ मुझे भाती है

विरह वेदना मेरी

छम छम कर 

यह और बढ़ाती है

नहीं भाता मुझे

प्रिय तुम बिन 

कोई भी श्रृंगार

न ही भाते

फूल भी कोई 

गुलमोहर,गुलाब या कचनार

आवृत तुम्हारी नेह,से मैं

क्या करूँ कोई भी श्रृंगार

बस लेने से नाम,तुम्हारा

आती जो चेहरे पर लालिमा

रक्तिम आभा सी

 जाती है फैल

बस यही मेरा श्रृंगार

बस यही मेरा श्रृंगार

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