नहीं करती मैं श्रृंगार
नहीं भाता मुझे फूल हार
नैनों के काजल
फैल नीर संग
पीर दिल की
कह जाते हैं
व्यथा मन की मेरे
पूरे जग को सुनाते हैं।
नहीं लगाती कुमकुम,बिंदी
फैल तकिये पर जाती है
बेचैनी का मेरे वो
हाल सबको सुनाती है।
नहीं सुहाती खनकती चूड़ियाँ
रतजगे का मेरे
करती वो इज़हार
गिन गिन उनको करती मैं
प्रात का इंतज़ार
ये मुई पायल भी
कहाँ मुझे भाती है
विरह वेदना मेरी
छम छम कर
यह और बढ़ाती है
नहीं भाता मुझे
प्रिय तुम बिन
कोई भी श्रृंगार
न ही भाते
फूल भी कोई
गुलमोहर,गुलाब या कचनार
आवृत तुम्हारी नेह,से मैं
क्या करूँ कोई भी श्रृंगार
बस लेने से नाम,तुम्हारा
आती जो चेहरे पर लालिमा
रक्तिम आभा सी
जाती है फैल
बस यही मेरा श्रृंगार
बस यही मेरा श्रृंगार
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