तुमसे मिलना मानो,
यादों की मिट्टी पर
उग आए विशाल दरख़्त की
छाँव के नीचे बैठना।
अपनी नेह वृष्टि से भी जिसे
कहाँ भिगो पाती हूँ मैं!
बूंदे इधर उधर बिखर जाती हैं,
हर बार लगता है
तुम्हारे मन का कोई कोना
फिर रह गया सूखा....
कई बार अपने शब्दों से
तूफान सी बनकर
झंझोड़ने की कोशिश करती हूँ,
बस झड़ जाते हैं
इक्का, दुक्का शब्द तुम्हारे
पीत वर्णी पत्तों जैसे....
सारी कोशिशें हो जाती हैं नाकाम
जब तुम बस मुस्कुरा कर
टाल जाते हो - सबकुछ
कई बार
एक छोटी सी चिड़िया बनकर
फुदकती हूँ, तुम्हारे दरख्तों पर
जो अपना घोंसला तो न बना पाई
इस वृक्ष पर
पर बैठ जाती है
इसपर, आकर पता नही
किस अधिपत्य से?
दिल करता है
सच बहुत दिल करता है
वज़ूद में तुम्हारे
हो जाऊँ एकाकार
ओस की बूंदों जैसी
जिसे कोई देख भी न पाए
पर फिर याद आते हैं
तुम्हारे कहे शब्द
दिल का क्या है?
न मरती हैं न भरती हैं
इसकी अनंत इच्छाएं!
पर कैसे कहूँ तुम्हे
बुद्ध बनना इतना आसान है क्या?
©Anupama jha
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