*वो पुराना घर*
ज़ेहन में आज भी
नींव उसी की पड़ी है
सालों बाद भी
सब यादें
वहीं की वहीं धरी है।
सालों से आज तक
सपने में दिखता आया
वही पुराना मकान है
जिसका हमारे पास
सपनों के अलावा
न कोई नामों निशान है।।
बिक चुका है वो
फिर किसने दिया उसे अधिकार
जो कर लेता है
मेरे सपनों पर इख्तियार
क्यूँ देता है वो आज भी
मायके वाला प्यार?
आज भी नींद में
आराम से टाप जाती हूँ
वो घर की सत्रह सीढ़ियाँ
जहाँ देखी है हमने
घर की चार पीढ़ियाँ
सुनी थी जहाँ
कभी सोहर कभी लोरियाँ।
छत पर जो सूखते थे
क़रीने से ढ़ेरों कपड़े
बन गयी हैं शायद
वो गीली लकड़ियां
यादों की आंच से सुलगती
वो लम्हों की कड़ियाँ
साफ दिखती जिसके धुएँ में
यूँ की यूँ गुज़रती सदियाँ।
फलों से लदे पेड़
पता नहीं हैं या नहीं
नहीं चाहती उन्हें याद करना
पर सपने में उग आता है
मुझमें फलों सा लद जाता है
उसकी मिठास में डूब जाती हूँ
फिर चाहकर भी
आँखे नही खोल पाती हूँ।
शायद
पेड़ के साथ
जड़े भी मुझपर हावी हैं
आज भी वर्तमान से ज्यादा
भूत मुझमें बाकी है
नींद में ही सही
उस घर का हर कोना
घूम आती हूँ
अपना बचपन,अपना लड़कपन
फिर जी जाती हूँ
सपने में मायके का
सूकून पाती हूँ।।
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