Tuesday, 8 September 2020

रतजगा

 #रतजगा


क्यूँ आ जाती है

तुम्हारी यादें?

बिना कुछ बताए

दबे पाँव-बेखटक!

रतजगे का मेरे

जैसे करती,इंतज़ार वो

और आती है तो जाती नहीं

कुछ चिपकू रिश्तेदार जैसे,

मेरे गम,मेरे ख़ुशियों से

कोई सरोकार,नहीं उसे

बस,आ जाती है

चुपके से-बेखटक!

मेरी अधमुंदी सी आँखो में

पढ़ लेती है

मेरी,अनकही बात

और याद दिला देती है

कुछ अधूरी,कुछ पूरी मुलाक़ात!

उठ,बैठ जाती हूँ फिर

उकेरने लगती हूँ,अपने जज़्बात!

पर,ये कागज़,मसी भी

नहीं देते मेरा साथ

विरह,लिखना चाहती हूँ

पर,प्रेम लिख जाती हूँ

मौन,होकर भी

वाचाल हो जाती हूँ!

लफ़्ज़ों में मेरे

कुछ यादें ही

चादर ओढ़े होती है

कुछ,गुज़रे वक़्त का

एतबार लिए होती हैं।

रतजगे का मेरे वो

इंतज़ार करती मिलती हैं

अधमुंदी,अधसोयी, आँखो में

बेखटक, किसी के आने का

गुमान लिए फिरती हैं.....

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