Tuesday, 8 September 2020

ऐसे मुझो मिलो तुम

 उदास सर्दियों की,लंबी शाम में

अचानक से

पुरानी डायरियों के बीच

मिल जाती है,बरसों पहले लिखी,

 कोई कविता जैसे

वैसे मुझे मिलो तुम।


बरसों बाद किसी अनजान शहर में

मिल जाये बचपन का दोस्त कोई

उस पल में मिली  खुशी जैसे

वैसे मुझे मिलो तुम।


गर्मियों की ठहरी दोपहरी में

बंद कमरे में,गुलज़ार के नज़्म

पढ़ते सकूँ जैसे

वैसे मुझे मिलो तुम।


गोधूलि के सिंदूरी आभा में

सुरमई धड़कनों के संग

शाम,प्रतीक्षारत रहती है जैसे

वैसे मुझे मिलो तुम।


दिन,रात की बेचैनी को

अपने आगोश में

क्षितिज समेटता है जैसे

वैसे मुझे मिलो तुम।

आँखे बंद हो मेरी, और

तुम आ जाओ अचानक 

 पीछे से "धप्पा"

"ढूंढ़ लिया तुम्हें " कहते

ऐसे मुझे मिलो तुम

फिर कभी न बिछड़ने के लिए.......

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