Tuesday, 8 September 2020

वसीयत

 वसीयत


कुछ विरासत की वसीयत

 है मेरे नाम

कुछ को मैं खारिज़ करती हूँ!

कुछ को सौंपुंगी

अगली पीढ़ी की स्त्रियों को,


एक बाइस्कोप है,

घूँघट के रूप में,

जिसके ओट से 

वही दिखाया,जाता रहा

जो पहले की पीढ़ियों ने

खुद देखना चाहा।

उसे कुछ सालों इस्तेमाल के बाद

एक कोने में रख दिया है,

आने वाली नस्लों

उसे हाथ न लगाना।


कमरे से बाहर,जाने को एक दरवाज़ा है

जो बस,होता है इस्तेमाल

खिड़की की तरह,

झांकने के लिए...आँगन भर

उस खिड़की, किवाड़ को

देना विस्तार,

देख आना,पूरा गाँव

दौड़ने की वसीयत,तुम्हारे नाम 

गाँव की बहुओं।


बस छत और आँगन से

न देखना चाँद ,तारों को

न निहारना,सूर्य देव को

बस तार पर कपड़े डालते।

बैठ बाहर, दालान पर

पुरुषों के साथ गिनना,

ग्रह,नक्षत्र और वर्षा के आसार!

इस सपने की वसीयत भी मेरी 

सारे गाँव की स्त्रियों के नाम।


सुनो सब दबे स्वर वालियों

अपने सुंदर स्वर को,खोलना तुम

अपनी धुन,अपनी राग के लिए।

सिर्फ सोहर,लोरी,विदाई, भजन गीत

से न करना संतोष!

गाना, अपने मन के राग भी

झूम झूम कर बेहिचक!

इस "बेहिचक" वाली आदत की

लगाना गाँठ दिल में।


और सुनो एक आखरी दरख्वास्त

बना के जाना तुम सब एक नयी वसीयत

अपने देखे अपूर्ण सपनों को

साकार करने की।

और हाँ

उड़ने के लिए आँगन नहीं

देना पूरा आकाश...बहु,बेटियों को

फिर देखना विरासत कैसे संभलती है

बिन लिखे,पढ़े कोई वसीयत।

No comments:

Post a Comment