* साहित्याकाश *
साहित्याकाश में चमक रहे
असंख्य सितारे हैं
काव्यों को नमन इनके
ये गौरव हमारे हैं
रश्मियाँ निकलती हैं "रश्मिरथी" से
"उर्वशी" से होता सौंदर्य श्रृंगार है
फूँका राष्ट्रीय चेतना जिनकी कलम ने
वो "दिनकर" की किताब है।
"खड़ी बोली" से सजी जो कविता
वो "गुप्त जी" की रचना है
करते अलग रूपों में जो
"उर्मिला""शकुंतला" की कल्पना हैं।
"छायावादी""निराला" का लेखन निराला
कथा,काव्य,नाट्य, जीवनी
सब था इन्होंने लिख डाला
"मैं" की शैली अपनाकर इन्होंने
कविता को छंदो से मुक्त किया
अपनी लेखनी अपनी कल्पना को जीवंत किया
सहज,सरल शब्दों में "बच्चन" ने
जीवन दर्शन कह डाला
"मधुशाला" के ज़रिए घूँट जीवन का पिला डाला
लहरों, छन्दों संग हुआ "हालावाद" का प्रवेश
फिर निकलीं कविताएँ अनेक।
मनु और श्रद्धा के पात्र में
सृष्टि का सार लिख डाला
चिन्ता से आनंद तक
बस पंद्रह सर्गों में
"जयशंकर जी" ने महा काव्य रच डाला
मानव सृष्टि दर्शन कि अद्भुत
ग्रंथ यह "कामायनी" है
कृति यह उनकी,अंतिम लेखनी है।
मानव और प्रकृति के सौंदर्य को
"पंत जी" ने क्या खूब किया है बयान
सारे उपमाओं, अलंकारों को
अपनी कविताओं में दिया स्थान।
"महादेवी" वेदनामय काव्य की जननी
हैं वियोग और श्रृंगार जिनकी लेखनी
काव्यों से इनकी
फूटती भावों की धार ऐसी
जैसे बहे कोई निर्झरिणी।
हिंदाकाश में चमकते सारे
तारों को कहाँ मैं गिन पाऊँगी
उम्र गुजर जाएगी
सारों को न लिख पाऊँगी।
नमन साहित्याकाश के सब तारो को
जगमगाते उनके काव्य सितारों को।।।।
©अनुपमा झा
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