Tuesday, 8 September 2020

शहर



भीड़ ही भीड़ हर जगह

फिर भी तन्हा सा ये शहर

इमारतों के पीछे छुपा चाँद,सूरज

पता नहीं, कब होती रात यहाँ

कब होती है सहर?


बेहतरी की तलाश में

ख़्वाहिशों का यहाँ, भागता घोड़ा बेलगाम

लम्बी सड़क सी,अन्तहीन

ख़्वाहिशों का सफर ये शहर


खुद की परेशानियों में उलझे सब

हाल गैरों के,पूछने की फुर्सत कब

अपनेपन को तरसता ये शहर

अकेलेपन में बसता ये शहर!


न चबूतरा न खलिहान

चारों ओर बस मकान ही मकान

चारदीवारों में अपने,कैद सा इंसान

एक उन्मुक्त कैद सा ये शहर!


गाँव छोड़ आते जो,सपनों की गठरी बाँध

अपने अन्तहीन जरूरतों से परेशान

कभी होते सफल,कभी नाकाम

उम्मीदों के दीये,जलाता ये शहर!


एक अधूरी पहचान सा

 नाम सबका गुमनाम सा

गुमनानी में खुद को तलाशता ये शहर

सबके दिलों में फिर भी,रचता, बसता सा ये शहर


कुछ ज़मीनी हक़ीक़तों से दूर भागता ये शहर

अधुनिकता के नक़ाब से खुद को छुपाता ये शहर

डूबते सपने रोज़ यहाँ

उम्मीदों के पुल, बाँधता ये शहर

भीड़ ही भीड़ हर जगह

फ़िर भी कितना तन्हा सा है ये शहर.....


©अनुपमा झा

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